Source: फिरोज बख्त अहमद | Last Updated 00:15(08/02/11)
इस्लामी शिक्षा के प्रतिष्ठित केंद्र दारुल उलूम देवबंद के हाल ही में निर्वाचित कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तान्वी ने जब कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में सभी अल्पसंख्यक समुदाय विकास कर रहे हैं तो उन्होंने सच कहा था। इसके बावजूद समूचा मुस्लिम मीडिया उनके इस कथन के लिए उनकी लानत-मलामत करने लगा और उसे हकीकत से कोसों दूर बताया जाने लगा। ये प्रतिक्रियाएं यही दिखाती हैं कि मुस्लिम समुदाय आज भी अपनी पुरानी मानसिकता से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है।
नरेंद्र मोदी को गुजरात में हुए सांप्रदायिक नरसंहार के लिए भले ही क्लीन चिट न दी जाए, लेकिन उन्हें इस बात का श्रेय तो जरूर दिया जाना चाहिए कि उनके नेतृत्व में गुजरात के सभी वर्गो ने विकास किया है, जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं। अपनी किताब इंडियन मुस्लिम्स : व्हेयर हैव दे गॉन रॉन्ग? में रफीक जकारिया लिखते हैं कि भारत के मुसलमानों को मुख्यधारा का अभिन्न अंग बनने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें अपनी जड़ताओं और अवरोधों को तोड़कर एक सौहार्दपूर्ण परिवेश का निर्माण करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए। यदि मुस्लिम आत्ममंथन करें और खुद से यह सवाल पूछें कि क्या उन्होंने देश के विभाजन के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी संबंधों को मजबूत बनाने के लिए वास्तव में कोई योगदान दिया है, तो जवाब होगा : नहीं।
जकारिया लिखते हैं कि भारत के मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि उनकी रूढ़िवादी सोच के कारण उनसे कतराने वाले हिंदुओं की संख्या में दिन-ब-दिन बढ़ोतरी होती जा रही है। मुस्लिमों को हिंदुओं की यह धारणा बदलने के लिए भरसक प्रयास करने चाहिए। यह जितना उनके हित में है, उतना ही देश के हित में भी होगा। दुर्भाग्य से मुसलमान अपनी ही अलग दुनिया में जी रहे हैं। मुस्लिम नेता केवल उनकी भावनाएं भड़काने का काम करते हैं और उनकी मुसीबतों में और इजाफा ही करते हैं। इन आत्मतुष्ट नेताओं का मुसलमानों के पिछड़ेपन से कोई सरोकार नहीं है। हर मौके पर उनके द्वारा दिखाए जाने वाले कट्टरपंथी रवैये ने हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी रिश्तों की बुनियाद को और कमजोर किया है। पाकिस्तान का खुलकर विरोध करने और जिहादियों के विरुद्ध ठोस रवैया अख्तियार करने के स्थान पर वे केवल अपनी राजनीतिक दुकानें चला रहे हैं। इनमें से कोई भी नेता कभी गांव-देहात जाकर मुस्लिमों की वास्तविक स्थिति पता करने की कोशिश नहीं करता। उन्हें नहीं पता देश के दूरदराज के इलाकों में बसे गरीब और पिछड़े मुसलमान किन परिस्थितियों में जी रहे हैं।
भारत के मुस्लिमों को आगे बढ़ना चाहिए। उन्हें अपनी आदतों और अपने पूर्वग्रहों के ढांचे से बाहर निकलना चाहिए और खुद को बदलते वक्त की जरूरतों के मुताबिक ढालने की कोशिश करनी चाहिए। उन्हें अपने लिए अनुग्रह की मांग करनी बंद कर देनी चाहिए, क्योंकि इससे वे और कमजोर होंगे। उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना इसलिए सीखना होगा, क्योंकि उनके आसपास उनके कोई सच्चे दोस्त नहीं हैं। कई लोग, जो उनसे सहानुभूति जताने की कोशिश करते हैं, वे वास्तव में उनके शुभचिंतक नहीं हैं। वे उनकी मदद से केवल चुनावी राजनीति में बढ़त हासिल करना चाहते हैं। भारत के मुसलमानों को अगर सफल होना है तो उन्हें अपने आचार-विचार में आमूलचूल बदलाव लाना होगा। यदि वे जल्द ही ऐसा नहीं कर पाए तो बहुत देर हो जाएगी।
मुस्लिम अभिभावकों को भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। उन्हें अपनी पुरानी आदतें और धारणाएं छोड़नी होंगी और अपने बच्चों को प्रोत्साहित करना होगा कि वे अच्छी शिक्षा प्राप्त करें। यदि वे योग्य हैं तो उन्हें जरूर सफलता मिलेगी, जैसाकि मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तान्वी ने कहा है और ठीक ही कहा है। मुस्लिमों को सबसे पहले तो अपनी कट्टरता से मुक्त होना होगा, जिसके कारण वे आज समाज में अलग-थलग पड़ गए हैं। उन्हें गैरमुस्लिमों को आश्वस्त करना होगा कि उनका मजहब ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत में भरोसा रखता है। मुस्लिमों को अपने धर्मग्रंथों में वर्णित शिक्षाओं का उल्लंघन किए बिना अपने पर्सनल लॉ में कुछ बदलाव लाने की कोशिश करनी चाहिए, खासतौर पर बहुपत्नीवाद। वास्तव में शरीया कानून में शादी, तलाक, दहेज और यहां तक कि भरण-पोषण से संबंधित नियमों में भी संशोधन की पर्याप्त गुंजाइश है। इज्तिहाद या स्वतंत्र चिंतन, जिन्हें पहले शास्त्रीय विधिवेत्ताओं और धर्मशास्त्र के जानकारों द्वारा अमल में लाया जाता था, का मौजूदा पीढ़ी द्वारा भी पालन किया जाना चाहिए। भारत के मुसलमानों में यह जागरूकता पैदा होनी चाहिए कि वे हिंदुओं के साथ इस आधार पर सौहार्दपूर्ण संबंध विकसित कर सकते हैं कि वे एक-दूसरे की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं, भावनाओं और रीति-नीतियों का सम्मान करेंगे। जहां तक समान नागरिक संहिता के प्रारंभिक चरण के रूप में पर्सनल लॉ में सुधार लाने का सवाल है तो मुस्लिमों को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी ऐसी चीज का विरोध न करें, जिसके भविष्य के स्वरूप के बारे में वे जानते ही न हों।
19 मई 1950 को एक निजी भेंट में सरदार वल्लभभाई पटेल ने सैफुद्दीन किचलू से कहा था, ‘बहुसंख्यक समुदाय की सद्भावना ही अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सर्वश्रेष्ठ नीति होनी चाहिए।’ मुस्लिमों को पारसी समुदाय से सबक सीखने की जरूरत है, जो भारत में शायद सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला समुदाय है। अपने धर्म की विलक्षणता और अपने अधिकारों के बारे में बिना कोई शोर-शराबा मचाए पारसियों ने कानून, उद्योग, व्यवसाय, चिकित्सा, पत्रकारिता, विज्ञान और बैंकिंग के क्षेत्र में देश को महान विभूतियां दी हैं
No comments:
Post a Comment