Wednesday, February 20, 2013

क्या प्रेम में सेक्स जरूरी है?


वह नहा रही थी और उसका प्रेमी उसे नहाते हुए देखने के लिए आहें भर रहा था। किसी पहरेदार की तरह मौसम हर दिन श्यामला के घर के आसपास संदिग्ध तेवर में दिखता। खुद को व्यस्त दिखाने के लिए किसी से एक लफ्ज तक नहीं बोलता। कोई टोक दे तो अनसुना कर देता। श्यामला का बाथरूम कुछ ऐसा था कि उसके कपड़े दिख जाते थे। वह नहाते वक्त कपड़े को चाहारदिवारी पर रख देती। मौसम कपड़े देखता और बोलता अच्छा आज लाल वाली पहनी है। दूसरे दिन भी इसी तरह देखता और कहता आज नारंगी वाली पहनी है। फिर जोर से पैर को धूल भरी जमीन पर पटकते हुए आगे बढ़ जाता।

जैसे ही मौसम ने मायूस होकर आगे की ओर कदम बढ़ाए कि श्यामला के भाई ने आवाज लगाई, ‘का हो मौसम भाई कहां जा रहे हैं?‘ गांव में संबोधन के लिए हर कोई भाई है। पर इससे इस चक्कर में मत पड़िएगा कि संबंध भी भाई के ही हैं। संबंध और संबोधन कई बार आप विपरीत देखेंगे। जैसे- ‘अमर को मरते देखा धनपत कूटे धान।‘ बिल्कुल गंगनम स्टाइल में। मौसम को श्यामला के भाई में भी श्यामला की छवि कई बार दिखती थी। उसने कई बार मुझसे कहा, ‘इसकी आवाज मुझे एकदम श्यामला की तरह लगती है। वह इस आवाज को अनसुना कर दें ऐसा कभी नहीं हुआ। ऐसा वाकया मौसम को भी याद नहीं है।

फिर दोनों की घंटों बातें होतीं। घंटों इसलिए कि एक झलक श्यामला की मिल ही जाएगी। यह उस दौर की बात है जब गांवों में मोबाइल नहीं आया था। जाहिर है इन प्रेमी जोड़ों ने कई खतों को स्याही से रंगे होंगे। जब प्रेम सुनामी बना तो स्याही में लहू भी मिलाए गए। उस लहू से कुछ दिल की आह निकली तो कई बार लिखे गए-

लिख रही हूं खून से स्याही मत समझना
जीती हूं कैसे बेगानी मत समझना
तेरी याद मेरी रात है तेरी खुश्बू मेरी सांस
पता नहीं कब मिलेंगे टूटती नहीं आस

कितने खत रंगे गए, कितने आंसू निकले, कितने खत सार्वजनिक हो गए, कितने खत पहुंचाने वाले ने गुस्ताखी कर खुद के पास रख लिए, कितने खतों से ब्लैकमेल की कोशिश की गई चाहे जितनी बार बताऊं यकीन मानिए यह सिलसिला खत्म नहीं होगा। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। मौसम के साथ श्यामला का भी यह कहना है। ऐसा तब है जब आज की तारीख में दोनों अलग दांपत्य जी रहे हैं। आज की तारीख में दोनों एक दूसरे को भईया और छोटी बहन कहने को अभिशप्त हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि वह प्रेम मर गया। उस अतीत के ठहरे प्रेम में एक कंकड़ धीरे से मार दीजिए वे खुद को रिवर्स कर पांच साल पीछे जाकर जीने के लिए ललच जाते हैं।

इस बार करीब एक साल के बाद गांव गया। मुझे कई प्रेम कहानियों को सुनने का मौक मिला। ये बिखरी प्रेम कहानियां किसी महाकाव्य से कम नहीं। इनका जन्म खेत-खलिहान और गलियों में होता है और वहीं दम तोड़ देते हैं। लेकिन कुछ प्रेम कहानियां मुकाम तक भी पहुंच ही जाती हैं। यहां प्रेम के व्याकुल संवाद किसी मेट्रो स्टेशन या पार्क में नहीं होते। भला इन नादान परिंदों को इस पवित्र अनुभव के लिए कौन मंजूरी देगा। किसी ने देख लिया तो कुलटा से लेकर कुलनाशन तक तमगा पल में मिल जाएगा। गांव में लड़कों को कई मामलों में विशेषाधिकार मिले होते हैं। मसलन स्कूल के लिए गांव से शहर जाने की छूट के साथ वे कहीं अकेले भी आवाजाही कर सकते हैं। लड़कियों के लिए भाई और पिता पहरेदार हैं। हालांकि उसका प्रेमी भी खुद को उसका कई मामलों में पहरेदार ही समझता है।

मौसम ने एक दिन खतरनाक गुस्ताखी की। श्यामला नहा रही थी। उसने हर दिन की तरह कपड़े निकालकर चाहारदिवारी पर रखे। मौसम चारों तरफ देखकर तेजी से झपटा और कपड़े लेकर भाग गया। कपड़े ले जाने की खबर श्यामला तक को नहीं लगी। खत में श्यामला ने खुलासा किया कि उस दिन मेरे कपड़े लेकर भागे थे पता भी नहीं चला था। राम कसम मैं तो डर गई थी कि और किसकी नजर मेरे ऊपर लग गई। आप मुझे न बताए होते तो मैं आपको डर से इस वाकये के बार में बताती भी नहीं। मौसम ने पूछा क्यों नहीं बताती? आप फिर टेंशन में आ जाते कि वह और कौन है जो मुझे इस कदर चाहता है।

खत में ही श्यामला ने पूछा, आपने कपड़ों का क्या किया था उस दिन? कहां लेकर गए थे? मौसम की सांसें तेज हो गईं। उसने खुद को संभालते हुए कहा - कपड़े लेकर गेंहू के खेत में चला गया था। उसे सीने में दबाए देर शाम तक सोता रहा। श्यामला ने कहा धत तरी के एकदम पागल हैं क्या। कोई लड़की का कपड़ा लेकर खेत पर जाता है। जिस खत में मौसम और श्यामला के ये संवाद थे वह खत उस खेत की मिट्टी में मिल गया। लेकिन मौसम को उस खत की हर पंक्ति उसी शैली और इमोशन के साथ याद है। आप मौसम से इसे सुन लें तो लगेगा कि वह लिखा खत ऑडिया-विडियो बन गया है।

हो सकता है मौसम और श्यामला उस एकांत क्षण की तलाश में आज भी हों कि उन सारी बातों को कम से कम कह सकें। मौसम ने भरे दिल से कहा अब संभव नहीं है। अब तो उसके बच्चे मुझे मामा कहते हैं। मेरे बच्चे उसे बुआ। मौसम इस बात को कहकर हंसने लगते हैं। लेकिन उस हंसी में एक ऐसी प्यास होठों पर दिखती है जिसका बुझना शायद मरते दम तक बचा रहे।

आज की तारीख में मौसम पिता बन चुके हैं। श्यामला भी मां बन गई हैं। श्यामला उस मर्द की पत्नी बनी जिसे नहीं चाहती थीं और मौसम उस लड़की के पति बने जिसे वह नहीं चाहते थे। न चाहते हुए दोनों बच्चों के माता-पिता भी बन गए।

इस बार मौसम ने दिल भारी कर पूछा, ये कैसे रिश्ते हैं मित्र? हम नहीं समझ पाते हैं। आधी जिंदगी गुजर गई कुछ भी अब तक अपने मन से नहीं हुआ। यहां तक कि पत्नी भी अपने से चुनने की आजादी नहीं मिल सकी। पिताजी को और माताजी को अच्छी बहू की जरूरत थी, शायद वह मिल गई। लेकिन सच कह रहा हूं दोस्त, मन की पत्नी नहीं मिली। मुझे लगता है कि मुझसे जिस लड़की की शादी हुई वह मेरे घर की अच्छी बहू है लेकिन मेरे मन की चुनी हुई पत्नी नहीं। जाहिर है यही दर्द श्यामला का भी होगा।

मैंने मौसम से कहा, अब जो है उसे दिल से कबूल कर जीना शुरू कीजिए। मौसम ने आहत होकर कहा, ‘संभव नहीं है।‘

मैंने पूछा ऐसे कब-तक जीते रहेंगे?
जब-तक उससे एक बार सेक्स न कर लूं।
तो आप सेक्स के बाद उसे छोड़ देंगे?
मौसम का जवाब था, पता नहीं।
मौसम के इस जवाब से थोड़ा मैं भी कन्फ्यूज हूं। इस सवाल के साथ इस प्रेम कथा का अंत कर रहा हूं कि प्रेम और सेक्स में क्या संबंध है। क्या बिना सेक्स के प्रेम संभव नहीं है?

अल्पसंख्यकों के लिए...



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मशहूर साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल का यह व्यंग्य करीब दो दशक पहले एक अखबार में प्रकाशित हुआ था

अल्पसंख्यक दो प्रकार के होते हैं: एक वे जो बहुसंख्यक हैं पर अपने को अल्पसंख्यक कहकरउम्दा रोजगार और उम्दा तालीम के सिवा,अपनी सनक और समझ के अनुसार सरकार से कोई भी मांग कर सकते हैंदूसरे वे जो इतने अल्पसंख्यक हैं कि अपनी पहचान बनाए रखने के लिए वे सरकार को बराबर कुछ देते रहते हैंउससे कुछ खींच नहीं पाते. उदाहरण के लिएदूसरी कोटि के अल्पसंख्यक उत्तर प्रदेश के रोमन कैथोलिक हैंउनकी संख्या सिर्फ हजारों में हैलाखों में नहीं. वे प्राय: विपन्न पर खामोशपरिश्रमी और आत्मसम्मानी लोग हैं. उत्तर प्रदेश की सबसे उम्दा शिक्षा संस्थाएं उन्होंने स्थापित की हैंउन्हें वही चला रहे हैं.
पहली कोटि के अल्पसंख्यक हमारे बहुसंख्यक मुसलमान भाई हैं. अपनी पहचान या अस्मिता कायम रखने की चिंता अगर किसी को है तो इन्हीं कोउत्तर प्रदेश के कैथोलिक ईसाइयोंमहाराष्ट्र के पारसियों या गुजरात के यहूदियों को नहीं. मुसलमान दंगे-फसाद से घबराए रहते हैं जो कि सचमुच ही चिंतनीय हैपर उससे भी ज्यादा वे घबराए हुए हैं कि हिंदुस्तान की सरकार कहीं उन पर एक से ज्यादा बीवियों को तलाक देने की प्रक्रिया दिक्कततलब न बना देकहीं उर्दू का नामोनिशान न खत्म कर देहजयात्रियों को मिलने वाले अनुदान में कहीं कटौती न हो जाएआदि-आदि.
इस हालत में केंद्र सरकार और राज्यों को क्या करना चाहिएयह सवाल ज्यादा मुश्किल नहीं है. अगर इन अल्पसंख्यकों के नेताओं की मांगें जांची जाएं तो साफ है कि उनको आधुनिक तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा की खास जरूरत नहीं हैकुरान की तालीम देने वाले मदरसों से वे संतुष्ट हैंरोटी की जगह कुछ उत्तरी और मध्यवर्ती राज्यों में उर्दू को राजभाषा बनाकर उन्हें परोस दीजिएउनका काम चल जाएगा. फिर भी अगर उन्हें लगे कि उनकी सही पहचान नहीं हो रही है तोजैसा कि केरल में हुआ हैउन्हें शुक्रवार की छुट्टी देना शुरू कर दीजिए.
यही छुट्टी वाली तरकीब काफी पुरानी और आजमाई हुई है. अंग्रेजी हुकूमत में मालाबार के मुस्लिम बहुल स्कूल शुक्रवार को काफी देर बंद रहते थे. 1967 में मार्क्सवादी मुख्यमंत्री नंबूदरीपाद महाशय ने कुछ क्षेत्रों में शुक्रवार का अवकाश घोषित किया. उनकी निगाह में यह धर्मनिरपेक्षता की और उनकी सहयोगी मुस्लिम लीग की निगाह में मुस्लिम अस्मिता की जीत थी. यह कायदा तब मल्लापुरम इलाके में लागू हुआ. अब केरल की मौजूदा सरकार ने मुस्लिम शिक्षालयों में शुक्रवार को छुट्टी का पुख्ता इंतजाम कर दिया है.
अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघभारतीय जनता पार्टी और उसी रंग-रेशे के दूसरे संगठन-जो अपनी अस्मिता के लिए मुसलमानों ही की तरह व्याकुल हैं- इसे अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण बताएं तो इसका भी इलाज है. उनके स्कूलों में मंगलवार का अवकाश दे दें ताकि उस दिन वे लाल लंगोटे वाले की आराधना कर सकें. शर्त सिर्फ यह रहे कि चाहे हिंदू हो या मुसलमानरविवार की छुट्टी सबके लिए बरकरार रहे.
इसके अलावा और क्या किया जाएआप चाहे भाजपा के अध्यक्ष ही क्यों न होंमुस्लिम नेताओं को बुलाकर रमजान में इफ्तार की दावत जरूर दें. संक्षेप मेंअगर अपने समाज की पहचान पक्की बनाने के लिए उसके नेता उसे पंद्रहवीं सदी में लिए जा रहे हों तो सरकार की नीति उन्हें और पीछे खिसकाकर तेरहवीं सदी में ले जाने की हो सकती है. यह अल्पसंख्यकों का आदर्श तुष्टीकरण होगा. पीछे जाने की उनकी महत्वाकांक्षा को इतना उत्तेजित किया जाए कि वे एक आधुनिक सभ्य समाज की जगह 'गुलिवर ट्रैवल्सके याहू बनने का भरपूर मौका पा सकें.

कोई स्त्री को कमजोर कहता है तो आंटी का वह चेहरा याद आता है


आपबीती- मूलतः प्रकाशित, तहलका 28 फरवरी 2013

पटना की यह मेरी दूसरी यात्रा थी. तब मैं रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ता था. मुझे जानकारी मिली थी कि मशहूर आलोचक नामवर सिंह व्याख्यान देने पटना आनेवाले हैं. उन दिनों साहित्य और नामवर सिंह मुझ पर नशे की तरह सवार थे. मैं नामवर सिंह को दूरदशर्न पर नियमित देखा करता और कभी उन्हें सामने देखते हुए सुनने की कल्पना करता. कॉलेज की लंबी छुट्टी होने वाली थी. मैंने तय किया कि रांची से पटना सीधा चला जाता हूं, नामवर सिंह को सुनना भी हो जाएगा और साहित्यिक किताबों की खरीदारी भी. उन दिनों रांची में साहित्यिक किताबें बहुत कम मिला करतीं. कुछ दोस्तों ने बताया था कि पटना में गांधी मैदान के ठीक सामने पुरानी किताबों की ढेर सारी दुकानें हैं. वहीं अशोक राजपथ से नई किताबें खरीदने का विकल्प भी था.


शाम को मैं कांटाटोली बस स्टैंड पहुंचा और बस में बैठ गया. बगल की सीट खाली थी. मैं सोच ही रहा था कि पता नहीं कौन आएगा तभी करीब 45 साल का एक व्यक्ति उस पर आकर बैठ गया. उसने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ मैंने कहा,- ‘पटना.’ ‘वहां पढ़ाई करते हो?’ मैंने कहा,- ‘नहीं, पढ़ाई यहां करता हूं,वहां किताबें खरीदने और व्याख्यान सुनने जा रहा हूं.’ उसने तीन बार कहा- ‘गुड, गुड, गुड.’

जरा सी देर में इस व्यक्ति ने मुझसे पढ़ाई-लिखाई के बारे में काफी कुछ पूछ लिया था. उसे भी पता था कि प्रेमचंद कौन हैं, रेणु ने क्या लिखा है. हम इंजीनियरिंग मेडिकल की पढ़ाई नहीं कर रहे हैं, इसे लेकर हम दोस्तों-रिश्तेदारों के बीच मजाक के पात्र बनते थे. यह व्यक्ति मेरी पढ़ाई में दिलचस्पी ले रहा है, देखकर अच्छा लगा. 


फिर बस चल दी. थोड़ी देर में लाइटें ऑफ कर दी गईं. रांची छूटे कुछ ही समय हुआ था कि उस व्यक्ति ने मुझे छूना शुरू कर दिया. पहले तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन उसके हाथों की हरकतें बढ़ने लगीं तो मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने उसके हाथ पकड़ लिए. थोड़ी देर तक शांत रहा. फिर उसने मेरी पैंट के बटन खोलकर अपना हाथ भीतर डाल वदया. अब मैं बुरी तरह घबरा गया था. मैं उठकर जाने लगा तो उसने मेरे हाथ पकड़ लिए और बोला, ‘बैठो न, कुछ नहीं करूंगा.’ मैं चुप था और पटना जाने के फैसले पर अफसोस कर रहा था. आधे घंटे तक उसने कुछ नहीं वकया. फिर अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ा और अपने पैंट में डाल दिया. मैंने प्रतिरोध में हाथ पीछे खींचने की कोशिश की. लेकिन इतनी ताकत से मेरा हाथ वापस वहीं ले गया कि मैं एकदम से रो पड़ा. एक बार रुलाई छूटी तो फिर मैं रोता ही रहा. उसने मुंह दबाने की कोशिश की.


चलती बस की आवाज में पहले तो किसी को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन फिर एक महिला की आवाज गूंजी, ‘कंडक्टर साहब, लाइट जलाइए, कोई रो रहा है.’लाइट जली. एक महिला जो मेरी सीट के ठीक सामने बैठी थी, मेरे पास खड़ी थी. मैंने उस व्यक्ति की तरफ देखा.वह निढाल पड़ा था. उसकी पैंट पर सीमन बिखरे थे और मेरे कपड़े पर भी जहां-तहां फैल गए थे. उस महिला ने बिना मुझसे कुछ पूछे उस व्यक्ति को दनादन तीन-चार थप्पड़ जड़ दिए तो बाकी लोग भी मेरी सीट के पास जमा होने लगे. उसने मेरी पैंट पर अपनी मोटी फरवाली हैंकी डाल दी. शोर-शराबे की वजह से कंडक्टर ने गाड़ी रोक दी. तुम्हारा बैग कहां है ? मैंने रोते हुए इशारे से उस महिला को बताया और वो मेरा बैग लेकर मुझे अपने साथ लेकर नीचे उतर गई.

बैग से उन्होंने मेरा तौलिया निकाला और एक धुली पैंट और शर्ट. तौलिए लपेटकर मुझे पैंट उतारने कहा लेकिन मैं सिसकते हुए इतना कांप रहा था कि हाथ से पैंट की बटन और जिप खुल ही नहीं रही थी. उसने अपने हाथ लगाकर खोल दिए और पैंट की मोहरी खींचकर बाहर निकाल लिया. शर्ट के बटन भी उसने ही खोले. फिर एक-एक कर कपड़े पहनाए. अब उस व्यक्ति को बाकी लोग बुरी तरह पीटने लगे थे और धक्के देकर गेट की तरफ ले जा रहे थे. तय हुआ कि उसे ड्राइवर के बगल की सीट पर बिठाया जाए और आगे उतार दिया जाए. अब वह महिला मेरे बगल में थी. खिड़की की तरफ सिर टिकाकर मैं लगातार सिसक रहा था और वो मेरे सिर पर लगातार हाथ फेर रही थी. आंटी, मुझे उल्टी जैसी लग रही है..मैं फिर फफककर रोने लग गया था. उसने अपने बैग से परफ्यूम की शीशी निकाली और मुझ पर हल्का स्प्रे किया. जसमीन है, अच्छा लगेगा. वो कुछ बोल नहीं रही थी लेकिन उसका सहलाना जारी था.


सुबह के साढ़े छह बजे पटना पहुंचते-पहुंचते मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी. बस से उतरकर मैं जमीन पर पैर रखता उससे पहले मैं अचेत होकर गिर पड़ा. आंखें खोलीं तो मैं एक प्रसूति घर में पड़ा था. चारों तरफ से बच्चों के रोने और महिलाओं के  दर्द से चीखने की आवाजें आ रही थीं. मैं कुछ पूछता कि इससे पहले बगल में बैठी उन आंटी ने धीरे से पूछा, ‘अब बताओ, तुम्हें पटना में कहां जाना है? मेरे घर चलोगे?’ मैंने न में सिर हिलाया. दोपहर में मुझे वहां से डिस्चार्ज कर दिया गया. आंटी मुझे लेकर बाहर आ गई. दोबारा पूछा, ‘घर चलोगे ?’ मैंने कहा, ‘नहीं आंटी, अब कहीं नहीं जाऊंगा, वापस रांची.’ मुझे अब न तो नामवर सिंह को सुनना था और न ही साहित्य की किताबें खरीदनी थीं.


आंटी करीब डेढ़ घंटे और मेरे साथ रहीं. उन्होंने खाना भी मेरे साथ खाया. फिर बोलीं, ‘अब तुम पक्का ठीक हो न?’ ‘हां आंटी, आप प्लीज जाइए’,मैंने कहा. उन्होंने फिर मेरे सिर पर हाथ फेरा और कागज पर घर का पता लिखकर मुझे देते हुए बोलीं, ‘पटना आना तो मेरे पास आना मत भूलना. मैं रांची आई तो तुमसे मिलूंगी.’


करीब 13 साल गुजर चुके हैं. इसके बाद मेरा पटना कभी जाना नहीं हुआ. एक-दो मौके आए भी तो मैंने टाल दिया. लेकिन अब भी जब मेरे दोस्त मेरे बनाए खाने या मेरे साफ-सुथरे घर की तारीफ में कहते हैं, ‘तुम्हारे नाम के अंत में आ लगा होता तो तुमसे शादी कर लेता’, मुझे उस आदमी का चेहरा याद आ जाता है. टीवी चैनलों पर खासकर दामिनी,दिल्ली गैंग रेप की घटना के दौरान जब भी स्त्री की सुरक्षा के लिए किसी की मां किसी की बहन बनाकर एक तरह से कमतर और पुरुषों के साये में रहने की दलील दी रही तो आंटी का वह आत्मविश्वास से भरा चेहरा याद आता है, उनकी बांहें याद आती हैं जिनमें 18 साल का एक युवा सुरक्षित था...

विनीत कुमार

प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पर पार्टी और वरिष्ठ नेताओं की छवि धूमिल करने के गंभीर आरोप

प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पर प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पार्टी और वरिष्ठ नेताओं की छवि धूमिल करने के गंभीर आरोप बीते 20 साल से सत्ता का बनवा...