प्रियंका का मीडिया परिवार |
जब से प्रियंका गांधी वाड्रा उतरीं हैं मैदान में,तब से लग रहा है कि यूपी में बाकी नेता प्रचार ही नहीं कर रहे हैं। वैसे प्रियंका ने सिर्फ रायबरेली और अमेठी का जिम्मा संभाला है फिर भी ऐसे बताया जा रहा है जैसे वो पूरे उत्तर प्रदेश में प्रचार कर रही हैं। दिन भर कैमरे पीछा करते है,लाइव दिखाते हैं,फोकस में प्रियंका ही रहती हैं। एक भी कैमरा पैन होकर,लेफ्ट-राइट होकर अमेठी या रायबरेली नहीं दिखाता।
उनकी हर बात बल्कि वही बात बार बार दिखाई जा रही है। अब प्रियंका गांधी ने तो नहीं कहा होगा कि आइये हमारे पीछे-पीछे चलिये। मीडिया खुद ही दरी बिछाकर लेटने के लिए तैयार है तो क्या किया जा सकता है। प्रियंका की राजनीतिक अहमियत तो समझ आती है मगर रॉबर्ट वाड्रा को भी कवरेज की कमी महसूस नहीं हुई होगी। राबर्ट वाड्रा पर मीडिया टूट और टूटा पड़ा रहा।
राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के बीच प्रियंका गांधी एक ख़बर ज़रूर हैं। लेकिन जब यह ज़रूरत निष्ठा में घुलने मिलने लगती है तब समस्या होती है। समस्या उन चिरकुट पत्रकारों को ही होती है जो सत्ता के साथ चुपचाप तालमेल बिठाकर नहीं रहना जानते। अगर आप टीवी पर कवरेज का प्रतिशत निकालें तो प्रियंका के आने के बाद से यह संतुलन गांधी परिवार के पक्ष में ही बैठता है। जितना राहुल को दिखाया जाता है उतना अखिलेश या मायावती को नहीं। मुलायम तो शायद ही कभी-कभी। अजित सिंह भी नज़र नहीं आते। अब इसके लिए गांधी परिवार को क्यों दोष दें? उन्होंने कोई सर्कुलर तो जारी नहीं किया होगा कि अरे भाई आओ,हमीं को दिखाओ। मीडिया सचमुच इस परिवार की सत्ता को सह्रदय स्वीकार करता है। इसलिए नहीं कि बाइट या इंटरव्यू मिलेगा। वो भी किसी को नहीं मिला है। एक्सक्लूसिव तो किसी को नहीं मिला। प्रियंका ने तो झुंड के बीच एकाध बाइट दे भी दिये हैं मगर राहुल गांधी तो हमेशा लांग शाट में ही नज़र आते हैं। इन दोनों में राबर्ट वाड्रा ही मीडिया चतुर निकले। कैमरे और माइक के बीच सहज नज़र आए। आराम से बात करते रहे। उन्हें राजनीति का यह रूट शायद पसंद हो। मगर राहुल गांधी तो बिल्कुल कैमरे वाला रूट पसंद नहीं करते। उन्हें मालूम है कि ये पीछे पीछे आयेंगे ही तो क्यों बुलायें। राहुल बुलाते भी हैं तो एक कमरे में मीडिया को बिठाकर बात करते हैं। खुलकर बात करते हैं। मगर यह भी कह देते हैं कि आपके लिए है,रिपोर्ट करने के लिए नहीं। वहां कैमरे और रिकार्डर नहीं होते हैं। यह अपने आप में मीडिया पर गंभीर टिप्पणी है। राहुल को भरोसा नहीं कि इस तरह की बातचीत को भाई लोग ज़रूरत से अधिक निष्ठा में कुछ का कुछ न बना कर परोस दें। बहुत अजीब लगता है कि जब किसी तिराहे पर ओबी वैन लगे हों और मीडिया प्रियंका के आने का इंतज़ार कर रही हो। वो वहां पांच सौ हज़ार लोगों से मिलकर चली जाती हैं। कैमरा दूसरे लोकेशन पर पहुंचने के लिए सामान समेटने लगता है।
मीडिया के लिए राहुल या प्रियंका को फॉलो करना ग़लत नहीं है। राजनीति के विद्यार्थी और पत्रकार के नाते मैं भी यही करता। लेकिन क्या सारा कैमरा इन पर ही रहेगा? जबकि खुद प्रियंका कह रही हैं कि रायबरेली और अमेठी का चुने हुए विधायकों ने विकास नहीं किया। तब भी कैमरे और रिपोर्टर इसे स्टोरी नहीं समझते। वो एक सस्ता काम करते हैं। दावे के साथ कह सकता हूं एक राजनेता के तौर पर राहुल गांधी जितनी मेहनत करते हैं वो खुद समझ जाते होंगे ऐसी मीडिया को देखकर। सवाल राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा गांधी के कवरेज में संतुलन का है। बाकी नेताओं के साथ ग़ैर गांधी परिवार या ग़ैर करिश्माई व्यवहार नहीं होना चाहिए। ऐसा करने वाले पत्रकार राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले कम चाटुकारिता की तलाश वाले ज्यादा लगते हैं।
एक दिन यही राहुल गांधी कह देंगे कि मीडिया अपना काम ठीक से नहीं करता। उसे नेता की नहीं जनता की रिपोर्टिंग करनी चाहिए। देश की हालत दिखानी चाहिए। मीडिया नहीं दिखाता इसलिए उन्हें लोगों के घरों में जाना पड़ता है। क्यों नहीं मीडिया को अखिलेश,मायावती,अजित सिंह में करिश्मा नज़र आता है? क्या ये तीनों बिना करिश्मा के ही राजनीति में डटे हुए हैं? पत्रकारों से समझदार तो राहुल गांधी निकले जो मायावती और कांशीराम की तारीफ कर दी। शायद राहुल गांधी ने कांशीराम से ही सीखा हो कि गंभीर राजनीति करनी है तो ऐसी हल्की और बेपेंदी की मीडिया के भरोसे मत रहो। ज़मीन पर जाओ। धक्के खाओ। इंटरव्यू के चक्कर में मत पड़ो। चार संपादकों के चक्कर में पड़े रहने से अच्छा राहुल को लगता होगा कि बनारस के किसी रेस्त्रां या चाय की दुकान में चाय पी ली जाए। कम से कम उसके आस पास के लोग बात तो करेंगे कि यहां नेता जी आए थे। रही बात मीडिया की तो उन्हें मोबाइल में रिकार्ड कर फुटेज दे दो। एक्सक्लूसिव बनाकर दिखा देंगे। इतना वक्त और संसाधन लगाने के बाद भी एक भी जगह पर राहुल या प्रियंका गांधी वाड्रा की राजनीति की बारीकियों को समझाने वाली रिपोर्ट नहीं दिखी। वो भी शाम को टीवी खोल कर बंद कर देते होंगे कि इतना घूमा मगर ये भाई लोग सिर्फ हमारे आकर्षण में ही खोए रहे।
इसीलिए टीवी के ज़रिये आपको चुनावों की समझ कभी नहीं मिलेगी। आपको कई चैनल और अखबार ढूंढने होंगे तब जाकर पांच से दस प्रतिशत की ही जानकारी मिलेगी। बाकी जो हो रहा है वो कैमरों के बाहर हो रहा है। प्रधानमंत्री कब बनेंगे और राजनीति में कब आयेंगे, पूछने के लिए यही दो सवाल हैं इनके पास। हद है। क्या प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीति में नहीं है? नहीं होतीं तो वो पिछले कई बार से चुनाव प्रचार का काम क्यों संभाल रही होतीं? क्या राहुल गांधी बता देंगे कि जी मैं परसों प्रधानमंत्री बनूंगा? वो लालू यादव नहीं हैं कि यह कह दें कि मैं बनना चाहता हूं। अफसोस यही है कि ये सारे चाटुकारिता करके भी राहुल गांधी के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। मीडिया के लिए राहुल गांधी बाइट प्रवक्ता बन कर रह गए हैं। रिपोर्टिंग की लाश पड़ी है। हम सब कुचल कर चले जा रहे हैं।...रवीश कुमार
राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के बीच प्रियंका गांधी एक ख़बर ज़रूर हैं। लेकिन जब यह ज़रूरत निष्ठा में घुलने मिलने लगती है तब समस्या होती है। समस्या उन चिरकुट पत्रकारों को ही होती है जो सत्ता के साथ चुपचाप तालमेल बिठाकर नहीं रहना जानते। अगर आप टीवी पर कवरेज का प्रतिशत निकालें तो प्रियंका के आने के बाद से यह संतुलन गांधी परिवार के पक्ष में ही बैठता है। जितना राहुल को दिखाया जाता है उतना अखिलेश या मायावती को नहीं। मुलायम तो शायद ही कभी-कभी। अजित सिंह भी नज़र नहीं आते। अब इसके लिए गांधी परिवार को क्यों दोष दें? उन्होंने कोई सर्कुलर तो जारी नहीं किया होगा कि अरे भाई आओ,हमीं को दिखाओ। मीडिया सचमुच इस परिवार की सत्ता को सह्रदय स्वीकार करता है। इसलिए नहीं कि बाइट या इंटरव्यू मिलेगा। वो भी किसी को नहीं मिला है। एक्सक्लूसिव तो किसी को नहीं मिला। प्रियंका ने तो झुंड के बीच एकाध बाइट दे भी दिये हैं मगर राहुल गांधी तो हमेशा लांग शाट में ही नज़र आते हैं। इन दोनों में राबर्ट वाड्रा ही मीडिया चतुर निकले। कैमरे और माइक के बीच सहज नज़र आए। आराम से बात करते रहे। उन्हें राजनीति का यह रूट शायद पसंद हो। मगर राहुल गांधी तो बिल्कुल कैमरे वाला रूट पसंद नहीं करते। उन्हें मालूम है कि ये पीछे पीछे आयेंगे ही तो क्यों बुलायें। राहुल बुलाते भी हैं तो एक कमरे में मीडिया को बिठाकर बात करते हैं। खुलकर बात करते हैं। मगर यह भी कह देते हैं कि आपके लिए है,रिपोर्ट करने के लिए नहीं। वहां कैमरे और रिकार्डर नहीं होते हैं। यह अपने आप में मीडिया पर गंभीर टिप्पणी है। राहुल को भरोसा नहीं कि इस तरह की बातचीत को भाई लोग ज़रूरत से अधिक निष्ठा में कुछ का कुछ न बना कर परोस दें। बहुत अजीब लगता है कि जब किसी तिराहे पर ओबी वैन लगे हों और मीडिया प्रियंका के आने का इंतज़ार कर रही हो। वो वहां पांच सौ हज़ार लोगों से मिलकर चली जाती हैं। कैमरा दूसरे लोकेशन पर पहुंचने के लिए सामान समेटने लगता है।
मीडिया के लिए राहुल या प्रियंका को फॉलो करना ग़लत नहीं है। राजनीति के विद्यार्थी और पत्रकार के नाते मैं भी यही करता। लेकिन क्या सारा कैमरा इन पर ही रहेगा? जबकि खुद प्रियंका कह रही हैं कि रायबरेली और अमेठी का चुने हुए विधायकों ने विकास नहीं किया। तब भी कैमरे और रिपोर्टर इसे स्टोरी नहीं समझते। वो एक सस्ता काम करते हैं। दावे के साथ कह सकता हूं एक राजनेता के तौर पर राहुल गांधी जितनी मेहनत करते हैं वो खुद समझ जाते होंगे ऐसी मीडिया को देखकर। सवाल राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा गांधी के कवरेज में संतुलन का है। बाकी नेताओं के साथ ग़ैर गांधी परिवार या ग़ैर करिश्माई व्यवहार नहीं होना चाहिए। ऐसा करने वाले पत्रकार राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले कम चाटुकारिता की तलाश वाले ज्यादा लगते हैं।
एक दिन यही राहुल गांधी कह देंगे कि मीडिया अपना काम ठीक से नहीं करता। उसे नेता की नहीं जनता की रिपोर्टिंग करनी चाहिए। देश की हालत दिखानी चाहिए। मीडिया नहीं दिखाता इसलिए उन्हें लोगों के घरों में जाना पड़ता है। क्यों नहीं मीडिया को अखिलेश,मायावती,अजित सिंह में करिश्मा नज़र आता है? क्या ये तीनों बिना करिश्मा के ही राजनीति में डटे हुए हैं? पत्रकारों से समझदार तो राहुल गांधी निकले जो मायावती और कांशीराम की तारीफ कर दी। शायद राहुल गांधी ने कांशीराम से ही सीखा हो कि गंभीर राजनीति करनी है तो ऐसी हल्की और बेपेंदी की मीडिया के भरोसे मत रहो। ज़मीन पर जाओ। धक्के खाओ। इंटरव्यू के चक्कर में मत पड़ो। चार संपादकों के चक्कर में पड़े रहने से अच्छा राहुल को लगता होगा कि बनारस के किसी रेस्त्रां या चाय की दुकान में चाय पी ली जाए। कम से कम उसके आस पास के लोग बात तो करेंगे कि यहां नेता जी आए थे। रही बात मीडिया की तो उन्हें मोबाइल में रिकार्ड कर फुटेज दे दो। एक्सक्लूसिव बनाकर दिखा देंगे। इतना वक्त और संसाधन लगाने के बाद भी एक भी जगह पर राहुल या प्रियंका गांधी वाड्रा की राजनीति की बारीकियों को समझाने वाली रिपोर्ट नहीं दिखी। वो भी शाम को टीवी खोल कर बंद कर देते होंगे कि इतना घूमा मगर ये भाई लोग सिर्फ हमारे आकर्षण में ही खोए रहे।
इसीलिए टीवी के ज़रिये आपको चुनावों की समझ कभी नहीं मिलेगी। आपको कई चैनल और अखबार ढूंढने होंगे तब जाकर पांच से दस प्रतिशत की ही जानकारी मिलेगी। बाकी जो हो रहा है वो कैमरों के बाहर हो रहा है। प्रधानमंत्री कब बनेंगे और राजनीति में कब आयेंगे, पूछने के लिए यही दो सवाल हैं इनके पास। हद है। क्या प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीति में नहीं है? नहीं होतीं तो वो पिछले कई बार से चुनाव प्रचार का काम क्यों संभाल रही होतीं? क्या राहुल गांधी बता देंगे कि जी मैं परसों प्रधानमंत्री बनूंगा? वो लालू यादव नहीं हैं कि यह कह दें कि मैं बनना चाहता हूं। अफसोस यही है कि ये सारे चाटुकारिता करके भी राहुल गांधी के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। मीडिया के लिए राहुल गांधी बाइट प्रवक्ता बन कर रह गए हैं। रिपोर्टिंग की लाश पड़ी है। हम सब कुचल कर चले जा रहे हैं।...रवीश कुमार
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