सीरिया का गृहयुद्ध मुसलमानों के शिया और सुन्नी संप्रदाय के युद्ध में बदलता जा रहा है, जिसे सउदी अरब और ईरान का समर्थन मिल रहा है. दोनों समुदायों की आपसी लड़ाई की जड़ें इस्लाम के शुरुआती दिनों में हैं
पैगंबर मोहम्मद ने यदि 632 साल में अपनी मौत से पहले अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया होता, तो आज स्थिति कुछ और होती. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और युवा इस्लामी समुदाय पैगंबर की मौत के तीस साल बाद ही बिखर गया. इनमें बहुमत उन लोगों का था जिन्होंने बाद में अपने आपको सुन्नी कहा. दूसरा दल पैगंबर के दामाद अली इब्न अबी तालिब के समर्थकों का था. शियात अली यानि अली का दल बाद में शिया संप्रदाय बना. शिया अभी भी अल्पसंख्यक हैं और मुसलमानों की 1.6 अरब की आबादी में उनका हिस्सा करीब 15 फीसदी है.
पैगंबर मोहम्मद ने यदि 632 साल में अपनी मौत से पहले अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया होता, तो आज स्थिति कुछ और होती. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और युवा इस्लामी समुदाय पैगंबर की मौत के तीस साल बाद ही बिखर गया. इनमें बहुमत उन लोगों का था जिन्होंने बाद में अपने आपको सुन्नी कहा. दूसरा दल पैगंबर के दामाद अली इब्न अबी तालिब के समर्थकों का था. शियात अली यानि अली का दल बाद में शिया संप्रदाय बना. शिया अभी भी अल्पसंख्यक हैं और मुसलमानों की 1.6 अरब की आबादी में उनका हिस्सा करीब 15 फीसदी है.
झगड़े की शुरुआत पैगंबर के उत्तराधिकार को लेकर हुई, कहना है कील विश्वविद्यालय के इस्लाम विशेषज्ञ लुत्स बैर्गर का. "शुरू में राजनीतिक विवाद था, जिसकी जड़ में उत्तराधिकारी चुनने का सवाल और दलीय हित थे. उसके बाद राजनीतिक विवाद धार्मिक विवाद में बदल गया."
शुरुआती सत्ता संघर्ष
पैगंबर के वैध उत्तराधिकारी को लेकर छिड़ी बहस के शुरू में चार खलीफा थे, जिन पर बहुमत से सहमति हुई थी. साल 660 में उमैय्या खानदान ने सत्ता संभाली. खलीफों के चुनाव में बहुमत के लिए इस बात का खास महत्व था कि वह मुहम्मद के कबीले कुरैश का हो. इसके विपरीत अली के समर्थकों का मानना था कि पैगंबर का उत्तराधिकारी मुहम्मद के परिवार का हो. उनकी दलील यह थी कि खुदा ने अली को उत्तराधिकारी चुना है और मुहम्मद ने अपने मरने से पहले इसे लिखित रूप में तय कर दिया था. सुन्नियों ने इसे कुरान से निकलवा दिया. इसके साथ कुरान के साथ छेडछाड़ का आरोप लगा, जिसे आज तक वापस नहीं लिया गया है.
बैर्गर का कहना है कि महात्वाकांक्षी अली को यह बात परेशान करती रही कि वे पैगंबर का उत्तराधिकारी बनने में विफल रहे. आखिरकार उन्हें 656 में चौथा और अंतिम वैध खलीफा चुना गया. उनका शासन सिर्फ पांच साल चला. एक जानलेवा हमले में उनकी मौत हो गई. इस्लामी सत्ता के नए केंद्र दमिश्क में उमैय्या समर्थकों का बोलबाला था. अली के समर्थकों ने सीमाई प्रांत पर अपना दबदबा बनाए रखा जो आजकल इराक है. साल 680 में अली के सबसे छोटे बेटे हुसैन को खलीफा चुना गया. लेकिन उमैय्या समर्थकों ने उसी साल उनकी हत्या कर दी. उन्हें करबला में दफनाया गया. इसके साथ सुन्नी और शिया संप्रदाय के स्थायी विभाजन और शिया संप्रदाय में शहीदी संस्कृति की नींव डली.
शुरुआती दुश्मनी
इस्लाम विशेषज्ञ बैर्गर का कहना है कि शिया एक तरह से इतिहास के हारे हैं. अली और उनके उत्तराधिकारियों को पूरे इस्लामी समुदाय से अपने को मनवाने में सफलता नहीं मिली. इसी का नतीजा दुनिया को देखने का उनका नकारात्मक नजरिया है. और शायद शिया विचारधारा भी जिसपर कुर्बानी की तकलीफ और निर्वाण के उम्मीद की छाप है. शिया नजरिये से इमाम खुदा के चुने बंदे हैं. कयामत के दिन मुक्तिदाता आएगा और न्याय के दैविक साम्राज्य की नींव रखेगा. इमाम में भरोसा सुन्नी के मुकाबले एक अहम अंतर है.
शिया लोगों के लिए इमाम खुदा और बंदे के बीच मध्यस्थ है. सिर्फ उसे कुरान का छुपा अर्थ पता है, जिसे लोगों को बताना उसकी जिम्मेदारी है. उसके फैसले कभी गलत नहीं होते, उसकी बातों का वही मोल है जो कुरान का है. बहुत से सुन्नियों के लिए यह पाखंड है. बैर्गर कहते हैं, "शिया संप्रदाय पर लोगों को भगवान बनाने के आरोप हैं, यानि पैगंबर के दामाद अली और उनके उत्तराधिकारियों को दैविक चरित्र के रूप में देखना और इसके साथ इस्लाम के मूल सिद्धांत से पीछे हटना कि सिर्फ एक खुदा है और इंसान की पूजा नहीं होनी चाहिए."
स्थायी असर
सत्ता में हिस्सेदारी न मिलने के कारण शिया अपने को पराजित मझते रहे तो सुन्नी शुरू से ही सफल रहे. इस्लाम विशेषज्ञ बैर्गर का कहना है कि वे अली को अपने इतिहास में जगह देने में कामयाब रहे. उन्होंने शुरुआती झगड़ों को कम कर आंका और तख्त पर शिया दावे को उपद्रवी प्रयास के रूप में देखा. बैर्गर के अनुसार भले ही शिया और सुन्नी एक दूसरे को नकारते रहे हों, इतिहास में ऐसी मिसालें हैं जिनमें धार्मिक झगड़ों के बावजूद वे शांति में जीते रहे हैं.
इस्लामी दुनिया में आज के राजनीतिक विवादों की ज्यादातर वजह धार्मिक है और एक हद तक शिया और सुन्नी की परंपरागत विभाजन रेखा बनी हुई है. चाहे सीरिया हो, इराक हो या सउदी अरब और ईरान का लंबे समय से चला आ रहा विवाद. ईरान अकेला मुल्क है जहां शिया राष्ट्रीय धर्म है. इसके अलावा इराक और बहरीन में शिया बहुमत में हैं. उत्तरी अफ्रीका के देशों में बहुमत आबादी सुन्नियों की है. सउदी अरब, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी. सीरिया और फलस्तीनी इलाकों में भी बहुमत सुन्नी हैं.
रिपोर्ट: सबीने हार्टर्ट-मोजदेही/एमजे
संपादन: आभा मोंढे
3 comments:
Bahut hi shodhpurna.
bahut hi shodhpurna aalekh.
sukriya Mamta Tripathi
Post a Comment