सर्दियों के दिनों में उत्तर भारत के मैदानी और पहाड़ी इलाकों में ठंडी हवाओं का जोर रहता है। इन दिनों लोग ज्यादा से ज्यादा समय घर में दुबककर बिताना पसंद करते हैं। ठंडा कोहरा शहर के ऊपर लिहाफ की तरह बिछा रहता है। लेकिन जो लोग बेघर हैं, उन्हें सर्दियों के क्रूर मौसम में भी अपना जीवन बचाए रखने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। ये कचरा बीनने वाले, मजदूरी करने वाले या रिक्शा चलाने वाले लोग हैं, जो पैसा कमाने के लिए गांव-देहात से शहर चले आए हैं। इनमें वे अभागी महिलाएं भी शामिल हैं, जिन्हें उनके घर से निकाल बाहर किया गया है। वे बच्चे हैं, जो शराबी पिता की मार से बचने के लिए भाग आए हैं। इनमें बूढ़े, बीमार, अपाहिज, मानसिक रोगी सभी तरह के लोग शामिल हैं, जिनके सिर पर आसमान के सिवा कोई दूसरी छत नहीं है।
बहुत कम सरकारें निराश्रितों के लिए सर्दियों में शरणस्थलों का संचालन करती हैं। अब तो उस पुरानी मानवीय परंपरा को भी भुला दिया गया है, जिसके तहत धर्मस्थलों के दरवाजे निराश्रितों के लिए खोल दिए जाते थे। ये बेसहारा लोग खुद ही सूखी लकड़ियां, टहनियां और प्लास्टिक का कचरा बीनकर जलाते हैं और सर्दियों की लंबी रातों से जूझने के लिए खुद को गर्म रखते हैं। इनमें से बहुत थोड़े लोग ही छोटे और लोभी व्यापारियों से अपने लिए रजाई-कंबल खरीद पाते हैं, बाकी लोग नि:शुल्क कंबल बांटने वाले किसी परोपकारी व्यक्ति की दान-दया पर निर्भर रहते हैं। कुछ लोग नशे की मदद से सर्दियों की कठोरता से संघर्ष करने का प्रयास करते हैं। छोटे बच्चे एक-दूसरे के साथ सटकर बैठ जाते हैं और एकजुटता के साथ सर्द हवाओं का मुकाबला करते हैं।
सर्दियों का हर मौसम अपने पीछे निराश्रितों की लाशें छोड़ जाता है। दिल्ली पुलिस ने तो इन लोगों के लिए एक शब्द ही गढ़ दिया है : ‘भिखारी टाइप’। यह शब्द उन लोगों के बारे में बताता है, जो सरकार के लिए कोई अहमियत नहीं रखते। उनकी ठंड से अकड़ चुकी लाशें पोस्टमार्टम की भी हकदार नहीं समझी जातीं। उनकी मौत को इस योग्य भी नहीं माना जाता कि उसके कारणों की जांच-पड़ताल की जाए। सरकारें यह मान चुकी हैं कि गरीबों के प्रति उसके कोई कर्तव्य नहीं हैं। सरकार का कर्तव्य केवल यही है कि वह गरीबों के सिर से छतें छीन ले, उन्हें सार्वजनिक स्थानों से खदेड़ डाले या उन्हें पलायन करने को मजबूर कर दे। नतीजा यह होता है कि ये बेघरबार लोग या तो हरसंभव तरीके से अपनी रक्षा करने को मजबूर हो जाते हैं या फिर सर्दी की सख्ती के आगे दम तोड़ देते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि निराश्रितों की मृत्यु की आशंका केवल सर्दियों में ही नहीं, बल्कि पूरे सालभर सामान्य लोगों की तुलना में पांच गुना अधिक होती है।
पिछली सर्दियों में जब दिल्ली सरकार द्वारा कुछ चुनिंदा शरणस्थलों को भी ध्वस्त कर दिया गया और इस कारण गुब्बारे बेचने वाले एक युवक की मौके पर ही मौत हो गई तो हमने सर्वोच्च अदालत को पत्र लिखकर यह मांग की कि हर निराश्रित व्यक्ति को स्थायी आश्रय का न्यूनतम अधिकार दिया ही जाना चाहिए। न्यायाधीशों ने स्थिति की संवेदनशीलता को समझा। बेंच ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया कि निराश्रितों के लिए आश्रय की व्यवस्था की जाए। महज दो दिन में सरकार ने इतने शरणस्थल बना दिए, जितने कि स्वतंत्रता के बाद के इतने सालों में भी नहीं बनाए जा सके थे। फिर हमने अदालत को पत्र लिखकर बताया कि यह समस्या अकेले दिल्ली की ही नहीं, बल्कि देश के सभी शहरों की है और निराश्रितों के लिए केवल सर्दियों का मौसम ही कठिन साबित नहीं होता, बल्कि उनके लिए गर्मियों और बारिश का मौसम भी एक मुश्किल परीक्षा की तरह होता है। अध्ययनों से पता चला था कि वास्तव में भीषण गर्मी के दिनों में मरने वाले लोगों की तादाद सर्दियों में मरने वाले लोगों से भी अधिक होती है।
इसके बाद सर्वोच्च अदालत ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि सभी बड़े शहरों में निराश्रितों के लिए पर्याप्त संख्या में स्थायी व सुविधायुक्त शरणस्थलों की व्यवस्था की जाए। आदेश के बाद प्रारंभिक तौर पर अधिकांश राज्य सरकारों में भ्रम की स्थिति रही। कई सरकारों के पास ऐसा कोई विभाग तक नहीं था, जो शहरी निराश्रितों के कल्याण और पुनर्वास के लिए उत्तरदायी हो। महाराष्ट्र सरकार ने तो यह भी कहा कि मुंबई जैसे शहर में निराश्रितों के लिए किसी तरह के शरणस्थल के निर्माण के लिए जगह ही नहीं है। गुजरात सरकार ने कहा कि वर्ष 2021 से पहले वह ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सकती। दिल्ली के निराश्रितों में सबसे बड़ी तादाद बिहार से आए लोगों की है, लेकिन बिहार की सरकार ने एक शपथ पत्र के द्वारा सर्वोच्च अदालत को लिखित में यह उत्तर दिया कि निराश्रितों को भोजन मुहैया कराने से राज्य में अराजकता की स्थिति तक निर्मित हो सकती है। न्यायाधीशों ने सख्त रवैया अपनाते हुए सभी राज्य सरकारों को अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाने के लिए निर्देशित किया। हालांकि मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों की सरकारों ने अधिक सकारात्मक रवैया प्रदर्शित करते हुए सर्वोच्च अदालत को आश्वस्त किया था कि उसके आदेशों का पालन किया जाएगा। अलबत्ता एक साल बीतने के बावजूद बहुत कम निराश्रितों को शरणस्थल मुहैया कराए गए हैं, लेकिन कम से कम कुछ योजनाएं तो विचाराधीन हैं।
यह एक गंभीर और विचारणीय स्थिति है। स्वतंत्रता के इतने दशक बाद भी सर्वोच्च अदालत द्वारा सख्त रवैया अख्तियार करने तक किसी राज्य सरकार ने निराश्रितों के संरक्षण के लिए कदम उठाना जरूरी नहीं समझा। हम निराश्रितों के लिए किसी अनुदान की मांग नहीं करते। स्वच्छ और सुरक्षित आवास उनकी न्यूनतम आवश्यकता है, ताकि वे मानवीय गरिमा के साथ अपना जीवन बिता सकें। हमें अपने शहरों को इस तरह नियोजित करना चाहिए कि उसमें रहने और काम करने वाले सभी लोगों के सिर पर एक अदद छत तो हो।
हर्ष मंदर
लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं
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