Friday, November 26, 2010

एक जननायक का जाना


हर्ष मंदर  

अक्टूबर 2010 की एक गर्म दोपहर जब हैदराबाद की चहल-पहलभरी सड़कों से वह शवयात्रा गुजरी तो लोग उसमें शामिल होने के लिए उमड़ पड़े। वरिष्ठ अधिकारियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को उन दसियों गरीब पुरुषों और महिलाएं की धक्का-मुक्की का सामना करना पड़ा, जो आगे बढ़कर अर्थी को कांधा देने की कोशिश कर रहे थे।

वर्दीधारी पुलिसवालों ने बंदूक की सलामी देने के बाद सम्मान से अपनी आंखें झुका लीं। यह एक ऐसे व्यक्ति की अंतिम यात्रा थी, जिसे लोग शांतिदूत मानते थे। हवा में तख्तियां लहराती रहीं। किसी में उन्हें दलितों और आदिवासियों का बेटा बताया गया था तो किसी में गरीबों और वंचितों का पैरोकार। जब उनकी भतीजी ने उनकी चिता को अग्नि दी तो कुछ आंखें नम हो चलीं।

मुझे याद नहीं पड़ता इससे पहले किसी अधिकारी की शवयात्रा में इस तरह का दृश्य देखा गया हो। जितनी तादाद में और जितने तरह के लोग उन्हें अलविदा कहने आए, उससे पता चला कि अपने जीवन में उन्होंने कितने लोगों की जिंदगी को प्रभावित किया था।

एसआर शंकरन ने प्रशासनिक सेवा में कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के मानक स्थापित किए और एक लंबे अरसे तक समाज के वंचित तबके के हितों के लिए संघर्ष करते रहे। उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी प्रभावित किया। वे हिंसा के हिमायती नहीं थे, फिर भी माओवादी भी उनका उतना ही सम्मान करते थे, जितना गांधीवादी।

शंकरन का दृढ़ विश्वास था कि राज्यसत्ता का सबसे बड़ा दायित्व है वंचितों की गरिमा, उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करना। उनका जीवन और उनके कार्य इस बात की मिसाल हैं कि यदि किसी लोकतांत्रिक सरकार में उन जैसे अधिकारी शामिल हों तो क्या किया जा सकता है।

उन्होंने भूमि सुधारों के लिए कानून बनवाए और उन्हें लागू करवाया। उन्होंने सरकार को जनजातीय उपयोजनाओं और विशेष योजनाओं के लिए राजी किया और अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों के कल्याण के लिए राशि मंजूर करवाई। उन्होंने सामाजिक न्याय से संबंधित कई कार्यक्रम बनाए, जिनमें आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए हजारों आवासीय स्कूलों की योजना भी शामिल है। बंधक कामगारों की मुक्ति के लिए भी उन्होंने प्रयास किए।

जब शंकरन आंध्रप्रदेश में सामाजिक कल्याण सचिव थे तो उन्होंने बंधक श्रमिकों की मुक्ति के लिए अभियान चलाया, जिससे राज्य के रसूखदार मुख्यमंत्री नाराज हो गए थे। एक कैबिनेट मीटिंग में मुख्यमंत्री ने कह दिया कि शंकरन राज्य में अशांति फैलाने का प्रयास कर रहे हैं।

उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने गांव-गांव जाकर गरीब देहातियों से कहा कि स्वतंत्रता उनका अधिकार है और विद्रोह के लिए उन्हें एकजुट किया। मृदुभाषी शंकरन ने आरोपों को स्वीकारते हुए कहा कि यही उनका दायित्व था। गुस्साए मुख्यमंत्री ने कह दिया सरकार में ऐसे क्रांतिकारी अधिकारियों के लिए कोई जगह नहीं है। शंकरन ने शालीनता के साथ जवाब दिया कि वे भी सरकार के साथ काम नहीं करना चाहते।

यह उनके जीवन का टर्निग पॉइंट था। त्रिपुरा के मार्क्‍सवादी मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती ने उन्हें बुलाया और त्रिपुरा में मुख्य सचिव के रूप में काम करने का प्रस्ताव रखा। मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव की यह साझेदारी बड़ी दिलचस्प थी। दोनों अविवाहित थे, ईमानदार थे, उनके बहुत कम नाते-रिश्तेदार थे और यहां तक कि वे अपने कपड़े भी स्वयं ही धोते थे। उनकी जोड़ी खूब जमी। दोनों ने छह साल मिलकर काम किया। भारत में बहुत कम ऐसी सरकारें होंगी, जिन्होंने वंचितों के हित में काम करने को लेकर इस तरह की प्रतिष्ठा अर्जित की हो।

शंकरन राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में तब आए, जब नक्सलियों ने आंध्रप्रदेश के जंगलों से उनका अपहरण कर लिया। सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने ‘कन्सन्र्ड सिटीजंस कमेटी’ गठित की ताकि मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सरकार के साथ विचार मंथन किया जा सके।

विशेष तौर पर उन्होंने ‘पुलिस मुठभेड़’ की नीति पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया, जिसमें कथित नक्सलियों की गोली से उड़ा दिया जाता था। वे बिना थके सरकार को याद दिलाते रहे कि आदिवासियों का संघर्ष उनके विरुद्ध सदियों से किए जा रहे अत्याचार का परिणाम है, जिसमें उन्हें बर्बर तरीके से अपनी जमीन और जंगलों से बेदखल कर दिया गया।

लेकिन शंकरन ने नक्सलियों के सशस्त्र संघर्षो की हिमायत कभी नहीं की। उनकी नैतिक शक्ति के कारण ही सरकारें और माओवादी दोनों उनकी अपीलों को नजरअंदाज नहीं कर सकते थे। यह अलग बात है कि सरकार और माओवादी दोनों ही अपने रुख पर बरकरार रहे और दोनों ओर से खूनखराबे का सिलसिला जारी रहा।

इस तरह की घटनाओं से शंकरन को बहुत तकलीफ पहुंचती थी। उन्हें अंतिम समय तक यह अफसोस रहा कि वे हिंसा के इस खूनी खेल को खत्म नहीं करा सके और लोगों को न्याय नहीं दिला सके। रिटायरमेंट के बाद शंकरन ने सफाई कर्मचारी आंदोलन का भी नेतृत्व किया। यह मैला साफ करने की सदियों पुरानी अपमानजनक व्यवस्था को समाप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण अभियान था। शंकरन इस व्यवस्था को अस्पृश्यता और जातिवाद की सबसे घृणास्पद अभिव्यक्ति मानते थे।

रिटायरमेंट के बाद शंकरन ने अपनी आय और पेंशन का बड़ा हिस्सा दलित बच्चों की शिक्षा के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने इसका जिक्र किसी से नहीं किया, लेकिन जब उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा तो उनकी सेवा-सुश्रूषा के लिए कई नौजवानों में होड़ लग गई।

यह तो बाद में डॉक्टरों, इंजीनियरों, शिक्षकों और प्रशासनिक अधिकारियों से पता चला कि ये वे नौजवान थे, जिन्होंने अपने जीवन में जो भी मुकाम हासिल किया, वह शंकरन के कारण था। शंकर अविवाहित थे, लेकिन कई लोग उन्हें पितातुल्य मानकर उनका सम्मान करते थे। वे नैतिक व्यक्ति थे, लेकिन उन्होंने कभी भी दूसरों पर अपने विचार थोपने की कोशिश नहीं की।

कभी-कभी वे अपने सेंस ऑफ ह्यूमर का परिचय देकर चौंका भी देते थे। रिटायरमेंट के बाद वे एक छोटे से सादे अपार्टमेंट में रहने लगे। देखने में यह घर किसी वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी के बजाय किसी सेवानिवृत्त शिक्षक का लगता था।

जब उन्हें पेंशन एरियर की राशि मिली, तो उन्होंने यह थोड़ा-बहुत पैसा भी बेसहारा बच्चों के लिए और विकलांगों के लिए काम करने वाली एक संस्था को दे दिया। शंकरन का जीवन भारत के लाखों वंचितों के जीवन में गरिमा, न्याय और उम्मीद की किरण साबित हुआ है।

उनकी करुणा, सादगी और जीवनर्पयत साधना उन सभी लोगों को रास्ता दिखाती रहेगी जो शासकीय व्यवस्था में काम करते हैं, या उसकी विसंगतियों के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। उनकी स्थायी विरासत यही संदेश है कि सार्वजनिक व निजी जीवन में नैतिकता, ईमानदारी और अच्छाई के मूल्य किस तरह दुनिया को बेहतर बनाने में हमारी मदद कर सकते हैं। - लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।

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