Monday, December 12, 2011

पांच साल में गैर सरकारी संगठनों को मिला पचास हजार करोड़


देश में गैर सरकारी संगठनों की सक्रियता और उनके मिलनेवाली विदेशी सहायता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले पांच सालों में गैर सरकारी संगठनों को लगभग पचास हजार करोड़ का विदेशी अनुदान मिला है. इसमें अमेरिका भारतीय गैर सरकारी संगठनों के लिए सबसे बड़ा दानदाता है. पिछले पांच सालों में अकेले अमेरिका ने भारतीय गैर सरकारी संगठनों को 10,337 करोड़ रुपये का अनुदान दिया है.
गृह मंत्रालय द्वारा संसद को जो जानकारी दी गई है उसमें बताया है कि अमेरिका के बाद जर्मनी दूसरा बड़ा दानदाता देश है. हालांकि अब तक अमेरिका के बाद भारतीय गैर सरकारी संगठनों के ब्रिटेन दूसरा बड़ा दानदाता देश रहा है. लेकिन अब ब्रिटेन की जगह जर्मनी ने ले ली है. जर्मनी के बाद ब्रिटेन, इटली और नीदरलैण्ड का नंबर आता है. यहीं पांच देश ऐसे हैं जो भारत में गैर सरकारी संगठनों को मिलनेवाले विदेशी चंदे का आधा से अधिक देते हैं.
भारत में 21.058 संस्थाओं ने पिछले पांच सालों में 49,968 करोड़ रूपये का विदेशी चंदा हासिल किया है जिसमें सबसे ज्यादा पैसा ग्रामीण विकास के लिए आया है. इसके बाद बच्चों के कल्याण के लिए तथा स्कूल इत्यादि के लिए दूसरे तथा तीसरे नंबर पर सर्वाधिक चंदा मिला है.
ऐसा नहीं है कि केवल अमीर देश ही भारत को चंदा दे रहे हैं. भारत के पड़ोसी देश जिनके सामने भारत भीमकाय देश बनता है वहां से भी भारतीय एनजीओ दान मांग लाते हैं. गृह मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार 2009-10 में नेपाल ने 12 करोड़, चीन ने 2.8 करोड़, अफगानिस्तान ने 1.9 करोड़, पाकिस्तान ने 1.2 करोड़ तथा बांग्लादेश ने 86 लाख का विदेशी चंदा दिया है.
अपनी रिपोर्ट में गृह मंत्रालय मानता है कि जो पैसा जिस काम के लिए आ रहा है उसी काम में खर्च हो रहा है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि विदेशी पैसे से कोई ऐसा काम हो रहा है जो आपत्तिजनक हो.

पत्तों को मत झाड़िए, जड़ को उखाड़िये


प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को आचार संहिता के फंदे में फंसा चुकी सरकार अब सोशल नेटवर्किंग साइटस पर लगाम लगाने की कवायद में जुट गई है। सरकार ये प्रचार कर रही है कि इन सोशल नेटवर्किंग साइटस पर धार्मिक संप्रदायों और महापुरूषों का अपमान होता है। ऊपरी तौर पर सरकार की पहल साफ-सुथरी और नेक नीयत में लिपटी दिखाई देती है, लेकिन अगर सरकारी पहल के भीतर अगर थोड़ा झांका जाए तो सारी कहानी आसानी से समझ आ जाएगी। सरकार की जो कोशिश है वह पत्तों को झाड़कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाने की है जबकि भ्रष्टाचार और कुशासन की जड़ पर वार करने से वह बचना चाहती है।

कीबोर्ड और अँगुलियों के तालमेल से भयभीत सरकार ने गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट और याहू के अधिकारियों से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और मोहम्मद पैगंबर से जुड़ी कथित अपमानजनक, गलत और भड़काने वाली सामग्रियों को हटाने के लिए कहा था। सूचना मंत्री कपिल सिब्बल ने याहू, गूगल और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटस चलाने वाली कंपनियों के अधिकारियों से इस बारे में बात की, लेकिन उनकी ओर से कहा गया कि जब तक इस बारे में अदालत का कोई फैसला नहीं आता, वो इस बारे में कुछ नहीं कर सकते। कंपनियों के रूखे व्यवहार और टके से जबाव से तिलमिलाई सरकार सोशल नेटवर्किगं साइट्स की पेशबंदी करने पर उतर आई है।

गौरतलब है कि पिछले लगभग दो वर्षों से सोशल नेटवर्किंग साइटस पर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर जिस तरह से छींटाकशीं, कमेंटस और बयानबाजी हो रही है, उससे तिलमिलाई और घबराई सरकार धर्म की ओट लेकर आम आदमी की आवाज को बंद करने की साजिश रच रही है। यूपीए-2 के दो साल के कार्यकाल में मंहगाई ने सारी हदें पार कर रखी हैं, भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है, सरकारी योजनाओं में मची लूट जगजाहिर है। आम आदमी की आवाज और परेशानियों को देश-दुनिया के सामने रखने वाला मीडिया नियम-कानून और धंधे में फंसकर सर्कस का शेर बनकर रह गया है। परिणामस्वरूप सरकार की जनविरोधी नीतियों और निर्णयों से गुस्साए, परेशान और झुंझलाए देशवासी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी भड़ास और गुस्से का खुलकर इजहार करते हैं। सोशल नेटवर्किंग साइटस सोशल मीडिया का बड़ा सशक्त माध्यम बनकर उभरा है, और लगातार इसके यूजर में बढोतरी हो रही है। वर्तमान में भारत में ढाई करोड़ लोग फेसबुक और लगभग दस करोड़ गूगल से जुड़े हैं।

पिछले कुछ वर्षों में गूगल, याहू, फेसबुक आदि तमाम सोशल नेटवर्किंग साइटस सोशल मीडिया का सशक्त माध्यम बनकर उभरी हैं। अन्ना के आंदोलन हो या फिर देश और जनहित से जुड़े तमाम दूसरे मुद्दों को देश-दुनिया के सामने का काम ये साइटस बखूबी कर रही हैं। 1200 नौजवानों का एक सर्वे इस बात की तस्दीक कर रहा है कि भ्रष्टाचार से कारगरण लड़ाई में सोशल मीडिया कारगर हथियार हो सकता है। इस सर्वे में शामिल नौजवानों में 78 प्रतिशत लोगों ने माना है कि सोशल मीडिया ने उन्हें मजबूत किया है।  देश का आम आदमी अपनी आवाज और भावनाओं को इन सोशल नेटवर्किंग साइटस के माध्यम से देश-दुनिया के सामने आसानी से पहुंचाता है। अन्ना के आंदोलन और प्रदर्शन को सफल बनाने में इन सोशल साइटस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भ्रष्टाचार, मंहगाई, घोटालों और तमाम दूसरी समस्याओं के विरोध में देशवासी खुलकर इन सोशल साइटस का इस्तेमाल करते हैं। सरकार धार्मिक भावनाएं भड़काने और आहत करने की आड़ में आम आदमी की आवाज को बंद करना की साजिश रच रही है। यूपीए सरकार की कुनीतियों, भ्रष्टाचार, मंहगाई और घोटालों से त्रस्त और गुस्साई जनता ने अपनी भड़ास निकालने के लिए इन सोशल नेटवर्किंग साइटस का जमकर प्रयोग किया है। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के अलावा तमाम दूसरे नेताओं और मंत्रियों की छीछालेदार और भद्द इन सोशल साइटस पर पिट रही है। सरकारी विज्ञापन और तमाम दूसरी सुविधाओं के लिए प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने नफा-नुकसान के गुणाभाग को देखकर ही सरकार की आलोचना या विरोध करता है। देश की जनता को मीडिया की हकीकत बखूबी मालूम है, ऐसे में ब्लागिंग से लेकर सोशल नेटवर्किंग साइटस के द्वारा देश की जनता अपनी भावनाएं प्रदर्शित करने के लिए करती है।

सोशल नेटवर्किंग साइटस की बढ़ती लोकप्रियता और आजादी सरकार को रास नहीं आ रही है। इसलिए धर्म की आड़ में सरकार अपनी प्रति बढ़ती नाराजगी, विरोध और आलोचना को रोकना चाहती है। इसी साल 11 अप्रैल को सरकार ने ‘इनफारमेशन टेक्नोलॉजी; इलेक्ट्रानिक सर्विस डिलेवरी रूल्स-2011’ की राजज्ञा जारी की थी। इस कानून में साफ तौर पर लिखा है कि विद्वेषपूर्ण, आपत्तिजनक, जुआ जैसे खेलों को प्रोत्साहन देने वाले, नग्न, बाल यौन षोशण, आपत्तिजनक टिप्पिणयों को नियत्रिंत करने की जिम्मेदारी कतिपय साइट के प्रशासक की होगी। लगभग सात महीने पूर्व बने इस कानून के बाद भी अगर सरकार किसी गाइडलाइन और आचार संहिता लागू करने की बात करती है तो ये सरकार की नीति और नीयत की पोल खोलती है।

सच्चाई यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें अपने राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर राज-काज चलाती हैं। राजनीतिक दलों के रवैये और व्यवहार से देश के बड़े तबके में नारजगी व्याप्त है। आम आदमी के दुख-दर्दे और परेशानियों को सरकार और अहम पदों पर आसीन महानुभावों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी लोकतंत्र का चौथा खंभा प्रेस निभाता रहा है, लेकिन दिनों-दिन व्यवासायिकता का चोला ओढ़ने और कारपोरेट कल्चर का शिकार मीडिया जनपक्षकार की भूमिका निभाने की बजाए सरकारी भोंपू बनता जा रहा है। वोट बैंक की घटिया और ओछी राजनीति के चलते लगभग सभी राजनीतिक दल अनाप-शनाप निर्णय, नीतियों और योजनाओं में आम आदमी के हक और हकूक के पैसे का जमकर दुरूपयोग करते हैं। सरकारी कुनीतियों के विरोध में जब आम आदमी सड़कों पर उतरता है तो उसका सामना पुलिस के लाठी-डंडों से होता है। जनलोकपाल बिल पर अन्ना और काले धन के खिलाफ रामदेव की मुहिम को दबाने के लिए सरकार और सरकारी मशीनरी ने सारे हथकंडे अपनाए थे। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने अपनी सरकार के विरोध में उठने वाली आवाज को दबाने के लिए सूबे में धरना, प्रदर्शन और जुलूस के आयोजन के लिए कानून बनाकर अपने प्रजातांत्रिक मंसूबे का खुलासा कर दिया है।

असलियत यह है कि सरकार अपने विरोध में उठने वाली आवाज की सच्चाई और वजह जानने की बजाए उसे दबाने का हर संभव प्रयास और हथकंडा अपना रही है। सामान्य स्थितियों और हालात में किसी के मुंह से अपशब्द निकलना संभव नहीं है। जब देश का आम आदमी सरकार के खिलाफ अपना विरोध, प्रदर्शन, बयानबाजी और गुस्सा प्रगट कर रहा है तो इसका सीधा अर्थ है कि देश के हालात सामान्य और परिस्थितियां ठीक नहीं हैं। आवेश और भावनाओं में बहकर सीमा और मर्यादा का उल्लंघन आम बात है लेकिन अगर देश की जनता खासकर पढ़ा-लिखा तबका लगातार सरकार, उसके नुमांइदों और उनकी कार्यप्रणाली पर छींटाकषी, बयानबाजी और नाराजगी जाहिर कर रहा है तो सरकार को स्वयं सोचना चाहिए कि आखिरकर क्या गलत हो रहा है। लेकिन विडंबना यह है कि सरकार जड़ का इलाज करने की बजाए पत्तों पर दवा का छिड़काव करके बीमारी का इलाज करना चाहती है।

लोकतंत्र में अपनी आवाज रखने का अधिकार हर नागरिक को है, और जब देश के नागरिक मर्यादा में रहकर अपनी बात सरकार के समक्ष रखते हैं तो प्रजातंत्र रूपी संस्था की सफलता और सार्थकता सिद्व होती है। लेकिन जनविरोधी नीतियों, भ्रष्टाचार और अड़ियल रवैये पर तुली सरकार अपनी कमियों, खामियों और भूलों को सुधारने की बजाए उनकी ओर इशारा करने और कुनीतियों के खिलाफ मुंह खोलने वालों का मुंह बंद करने पर आमादा है। देश की जनता धीरे-धीरे ही सही राजनीतिक दलों और नेताओं की हकीकत समझने लगी है, नेताओं को भी इसका बखूबी एहसास है, ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार जन भावनाओं को समझे। अभी तो ये गनीमत है कि बहुत से लोगों का गुस्सा सिर्फ इस आभासी दुनिया में निकल रहा है, सरकार की पाबंदियों से कहीं यह गुस्सा-यह विरोध वास्तव में सड़कों पर आ गया तो हालात बेकाबू हो जाएंगे? सरकार को अपने विरोध में उठने वाली आवाजों को बंद करने की बजाए उन पर उचित ध्यान देना चाहिए, इसी में देश, प्रजातंत्र और जनता की भलाई है।....डॉ. आशीष वशिष्ठ

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