Tuesday, February 19, 2013

तो हमें तुम्हारी जरूरत ही क्या है मौलाना?


कश्मीर की तीन मुसलमान लड़कियों को खामोश करके खुश तो बहुत होगे तुम! तुम दुनिया को यह बताना चाहते हो कि उनके गिटार को चुप करवा कर तुमने इस्लाम को बचा लिया भारत में, कश्मीर में. लेकिन असलियत तुम जानते हो, और दूसरे भी कि तुमने इस्लाम को नहीं बल्कि अपनी सत्ता को बचाया है. अगर आम मुसलमान अपनी जिंदगी के फैसले खुद करने लगेगा, खुद सोचने-समझने लगेगा तो फिर तुम किस मर्ज की दवा रह जाओगे? आखिर उन लड़कियों को कहना पड़ा कि 'मुफ्ती ही बेहतर जानते हैं कि अल्लाह का हुक्म क्या है, इसलिए हम मुफ्ती की बात मानते हुए अपना म्यूजिक बंद करते हैं.' वैसे अल्लाह ने ईरान, तुर्की, पाकिस्तान, बांग्लादेश और ट्यूनीशिया के मौलानाओं को म्यूजिक पर पाबंदी क्यूं नहीं बताई? सिर्फ भारतीय मौलाना से अल्लाह यह राजदारी क्यूं करता है? अपनी बेटियों से इतना डरे हुए क्यूं हो, मौलाना?
देखें मौलाना, ऐसा है कि आपका औरतों से दुश्मनी वाला रवैया अब किसी तरह परदे में रहने वाला नहीं. अब मुसलमान औरत को समझ में आ रहा है कि पहले तो आपने मजहब को, उसकी जानकारियों को, उसकी राहतों को अगवा कर अपने अंधेरे पिंजरों में कैद कर लिया जहां सिर्फ आपके हमखयाल ही दाखिल हो सकते हैं. जिसने भी जरा सी चूं-चां की, वह भटका हुआ करार दिया गया यानी कि मुसलमान औरत को पहले तो मजहब की उम्दा और आला तालीम से दूर रखा गया, उसके लिए अच्छे और बाकायदा मजहबी तालीम देने वाले संस्थान ही कायम नहीं होने दिए गए. मजहब के मामलों पर गौर-ओ-फिक्र से मुसलमान औरत को अलग रखा. किसी पर्सनल लॉ बोर्ड, किसी फिकह अकादमी, किसी मुशावरत, किसी कजियात में मुसलमान औरत को कभी कोई ऐसी फैसला लेने लायक भागीदारी नहीं दी गई कि वह इस्लाम में औरत को राहत देने वाले इंतजामों से बाखबर हो कर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर पाती.
इसके बाद मुसलमान औरत पर तुमने अपनी मनचाही मर्दाना शरियत थोपी. यहां पर भी वही जिद कि हम जो बताएं वही शरियत है और उस पर तुर्रा यह भी कि शरियत बदल नहीं सकती, हिमालय की तरह अटल है. किसको बेवकूफ बना रहे हो, मौलाना? शिया, मेमन, बोहरा, देवबंदी, बरेलवी, हनफी, शाफई, मलिकी, महदवी और न जाने कितनी तरह की शरियतें रचने के बाद औरतों को बताते हो कि शरियत अटल है? शरियत के नाम पर तीन तलाक की मानसिक हिंसा तुम करो और करवाओ और हम यह मान लें कि यही अल्लाह का इंसाफ है औरत के लिए? चार बीवियां तुम रखो और रखवाओ और हम मान लें कि यही अल्लाह का इंसाफ है? अरे, अल्लाह को क्यों बदनाम करते हो अपने मतलब के लिए?
मुसलमान औरत को कभी कोई ऐसी फैसला लेने लायक भागीदारी नहीं दी गई कि वह इस्लाम में औरत को राहत देने वाले इंतजामों से बाखबर हो कर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर पाती
हमें पता है कि तुमने इसी लिए भारत में मुसलमान औरतों को मस्जिद में नहीं आने दिया. अगर मुसलमान औरतें भी सारी दुनिया के मुस्लिम मुल्कों की तरह मस्जिदों में उसी हक से दाखिल हो जाएं जिस हक से मर्द होते हैं तो क्या आसमान टूट पड़ेगा कौम पर? लेकिन यह कोई मासूम- सी पाबंदी नहीं है, मौलाना. तुम्हें पता है कि अगर ये औरतें हर रोज एक छत के नीचे इकट्ठी होकर आपस में बातचीत कर लेंगी, अपने हाल एक-दूसरे पर जाहिर कर देंगी तो संगठित हो जाएंगी. अभी वे उन जुल्मों को सिर्फ 'अपनी बदनसीबी' और 'अल्लाह का इम्तेहान' समझ कर एक निजी दुख की तरह झेल लेती हैं. मगर वे एक जगह इकट्ठी हो गईं तो उन्हें पता चल जाएगा कि ये तो वे तारीखी ज़ुल्म हैं जो उनकी नानी-दादी-मांओं ने
भी झेले हैं.
आखिर 'कौम' की तमाम मुश्किलों पर मस्जिदों के भीतर ही तो एक राय बनाई जाती है न? यहां तक कि देहली की एक मस्जिद तो यह तक तय कर देती है कि कौम अगले चुनाव में वोट किसे देगी. तो मौलाना, तुम्हें भी पता है और हमें भी पता है कि मस्जिद में अगर औरतें इकट्ठी हो गईं तो सबसे पहले खतरा तुम पर ही आना है.
 मौलाना पूरी कौम के नाम पर या कौम के लिए तुम जो भी बोर्ड, मजलिस, मदरसा, स्कूल, नदवा, वगैरह बनाते हो उसमें मुसलमान औरतों को 50 फीसदी नुमाइंदगी क्यूं नहीं देते? तुम लगातार भारत सरकार को कोसते रहते हो कि वह मुसलमानों की तादाद के मुताबिक उन्हें नुमाइंदगी न दे कर उनके साथ नाइंसाफी करती है, उनकी तरक्की में रुकावट डालती है. लेकिन जहां तुम पॉवर में हो वहां भारत सरकार से भी बड़े वाले हुक्मरां बन जाते हो. तब तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि मुसलमान औरतें आबादी का आधा हिस्सा हैं? अपने जलसों में जब तुम पूरी कौम के मामलात तय करते हो तो देहली की वजीर-ए-आला शीला दीक्षित और कांग्रेस सदर सोनिया गांधी को तो मंच के बीचोबीच जगह देते हो, लेकिन इसी जलसे में एक भी मुसलमान औरत तुम्हें नहीं मिलती शामिल रखने के लिए?
 लेकिन मौलाना उस ऊपरवाले का सितम देखो कि जब कौम पर मुश्किल आती है तो कोई तीस्ता सीतलवाड़, कोई मनीषा सेठी, कोई जमरूदा, कोई सीमा, कोई सहबा, कोई नंदिता, कोई अरुंधती ही सड़कों से ले कर मीडिया तक पर उतरती है अपने हमवतनों को बचाने के लिए. तब तुम चुप्पी साधे ताकते रहते हो औरतों के इस अहसान को. तब बरसों से जमा किया गया तुम्हारा इक्तेदार, सरकारों के साथ तुम्हारी वोट वाली सांठ-गांठ, या तुम्हारा 'खास इल्म' किसी काम नहीं आता कौम के. तुम लाखों की रैलियां करके जिन सियासी दलों को यह जताते हो कि देखो हमारे पास इतना बड़ा वोट-बैंक है लिहाजा हमसे सौदा करो, वे सियासी पार्टियां तुम्हें बस
एक बार भुनाने लायक बैंक-चेक से ज्यादा कुछ समझती नहीं.
किस्सा-कोताह यह कि तुम्हारे होने से कौम को राहत तो कोई मिलती नहीं, इसकी इज्जत और हिफाजत में तो कोई इजाफा होता नहीं, इसकी छवि एक सहनशील और इंसाफ-पसंद कौम की बनती नहीं, तुम्हारी अपनी औरतें और कमजोर और पसमांदा खुद तुमसे खुश नहीं, तुम्हारे जरिये चलाए जा रहे इदारों, मदरसों, स्कूलों से समाज के काम के इंसान तो निकलते नहीं. तो फिर तुम हो किस काम के? कोई ऐसी सामाजिक बुराई जो तुम्हारे होने से मिट गई हो उसका नाम बताओ, मौलाना? तुम उन खाप पंचायतों से किस तरह अलग हो जो जुल्म की शिकार औरतों पर ही उस जुल्म की जिम्मेदारी थोप देती हैं? दहेज घरेलू हिंसा, बेटियों-बहनों को जायदाद में हक, जात-बिरादरी की ऊंच-नीच जैसे मामलों पर तो कभी तुम्हारी आवाज बुलंद होते सुनी नहीं. वक्फ की जायदादों पर नाग की तरह कुंडली मारे बैठो हो जो  बेवाओं-यतीमों-तलाकशुदा औरतों का हक था.
अगर किसी तरह का कोई अच्छा काम तुमसे हो ही नहीं सकता तो हमें तुम्हारी जरूरत क्या? सिर्फ मर्दाने मदरसे चलाओ और बंद करो अपनी ये सामाजिक दुकानें, मौलाना !   
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शीबा असलम फ़हमी (तहलका मे प्रकाशित )


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