Tuesday, August 28, 2012

मनमोहन सिंह के बारे में कुछ अनकहे अनसुने तथ्य.....!!!

मनमोहन सिंह

कुछ दिन पहले मनमोहन सिंह ने भारतीय सैनिको की आत्महत्या पर संसद में बयान दिया था कि '' ऐसे छोटे मोटे हादसों का जिक्र संसद में ना किया करे ''.

मनमोहन के उस बयान के बाद मेरे मन में सबाल उठा की आखिर देश के प्रधानमंत्री के पद पर बैठा इंसान अपने देश की सेनाओं के बारे में इतना संवेदनहीन कैसे हो सक्ता है ... इसके बाद ये विचार आया की इंसान संबेदनशील और खुश किसके प्रति होता है ... फिर ध्यान गया की इंसान कौन कौन सी गुलामी का शिकार हो सक्ता है .. तब विचार आया की गुलामी दो प्रकार की होती है ..एक . मानसिक गुलामी ...दूसरी अहसानो में दब कर की जाने बाली गुलामी .....!!!

घटनाक्रम है इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाए गए आपातकाल (Emergency ) का ..उस समय भारत की रिजर्व बैक का पदेन निदेशक था मनमोहन सिंह नाम का एक नौकरशाह ……..बर्ष 1977 जनतापार्टी की मोरारजी देसाई सरकार में एच ऍम पटेल देश के वित्तमंत्री थे और डाक्टर इन्द्रप्रसाद गोवर्धन भाई पटेल रिजर्ब बैंक आफ इण्डिया के गवर्नर .... उसी समय बैक आफ क्रेडिट एंड कामर्स इंटरनेशनल जिसका अध्यक्ष एक पाकिस्तानी था .. ने भारत में अपनी व्यावसायिक शाखा खोलने के लिये आवेदन दिया ....जब रिजर्व बैक आफ इण्डिया ने उसके आवेदन की जांच की तो पता चला की ये पाकिस्तानी बैंक काले धन को विदेशी बैंको में भेजने का काम करता है जिसे मनी लांड्रिंग कहते है इसलिए इसको अनुमति नहीं दी गयी ...........इस वीच रिजर्व बैक के गवर्नर आई जी पटेल को प्रलोभन मिला की अगर बो इस बैक को अनुमति देने में सहयोग करते है तो उनके ससुर और प्रख्यात अर्थशास्त्री ए.के.दासगुप्ता के सम्मान में एक अंतराष्ट्रीय स्तर की संस्था खोली जायेगी ..पर ईमानदार गवर्नर उस प्रलोभन में नहीं फंसे ...इस वीच आई जी पटेल की सेवानिवृत्ति का समय पास आ चुका था अंतिम दिनों में उनको पाकिस्तानी बैंक BCCI के मुम्बई प्रतिनिधि कार्यालय से एक फोन आया जिसमें उनसे निवेदन किया गया की बो BCCI के अध्यक्ष आगा हसन अबेदी से एक बार मुलाक़ात कर ले ... RBI के गवर्नर ने इसकी अनुमति दी लेकिन मुलाक़ात से एक दिन पहले उनके पास फोन आया की अब मुलाक़ात की कोई जरुरत नहीं है क्यों की जो काम मुंबई में होना था अब दो दिल्ली में हो चुका है .. साथ ही उनको बताया गया की बो जल्दी ही सेवानिवृत्त होने बाले है .....!
समय 23-06-1980 के बाद का इंदिरा गाँधी के पुत्र संजीव गाँधी उर्फ संजय गांधी की म्रत्यु से खाली हुए शक्ति केंद्र पर राजीव गाँधी की पत्नी का कब्ज़ा ... उस समूह में शामिल थे बी. के नेहरु जिन्हें पाकिस्तानी बैंक BCCI ने पहले से ही सम्मानित कर रक्खा था .............!!
काल खंड 15-09-1982... भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर आई जी पटेल सेवानिवृत ..एक दिन बाद मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने .....

काल खंड 14-01-1980 इंदिरा गाँधी फिर से देश की प्रधानमंत्री बनी केंद्रीय सत्ता के अज्ञात और अनाम समूह ने पाकिस्तानी बैंक BCCI के अध्यक्ष आगा हसन अबेदी को विश्वास दिलाया की मनमोहन सिंह ही भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बनेगे शायद इसीलिये अध्यक्ष आगा हसन अबेदी ने आई जी पटेल से मुम्बई में अपनी मुलाक़ात केंसिल की थी ....!
कालखंड सन 1983 .....भारतीय गुप्तचर एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस बिंग के बिरोध के बाबजूद पाकिस्तानी बैंक BCCI को मुम्बई में पूर्ण व्यावसायिक शाखा खोलने की अनुमति मिली जिसका मुख्यालय लंदन में .............! पाकिस्तानी मूल के नागरिक आगा हसन अबेदी की भारत के बित्त मंत्रालय में घुसपैठ का अंदाज इस बात से लगाए की उसको पहले ही सूचना मिल गयी की मनमोहन ही भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर होगे ... इस वीच मनमोहन की बेटी की बिदेश में पढ़ाई के लिये छात्रवृत्ति की व्यवस्था .........!

15-09-1982 मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने ..इस पद पर उनको तीन साल का कार्यकाल पूरा करना था लेकिन इस वीच बोफोर्स कांड सामने आया और मनमोहन ने अज्ञात कारणों से समय से पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद छोड़ अपनी पोस्टिंग योजना आयोग में करवाई ...! 
काल खंड बोफोर्स दलाली कांड के खुलासे के बाद का .... लोकसभा चुनाव के बाद बी.पी. सिंह देश के प्रधानमंत्री बने .. लेकिन इससे पहले ही मनमोहन सिंह नाम के नौकरशाह ने भारत छोड़ जिनेवा की राह पकड़ी और सेक्रेटरी जनरल एंड कमिश्नर साऊथ कमीशन जिनेवा में पद ग्रहण किया ............!

काल खंड 10-11-1990........ कांग्रेस के समर्थन/ बैशाखियों से चंद्रशेखर भारत के प्रधानमंत्री बने ... इसी दौर में फिर से मनमोहन सिंह ने जिनेवा की नौकरी छोड़ भारत की ओर रुख किया और राजीव गाँधी के समर्थन से बनी चंद्रशेखर सरकार में प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार का पद ग्रहण किया .इसी वीच देश में भुगतान संकट की स्थिति पैदा हुई और मनमोहन की सलाह पर भारत का कई टन सोना इंग्लैण्ड की बैंको में गिरवी रखना पड़ा .. जिसकी बदनामी आई प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के हिस्से में ...........!
कालखण्ड नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के समय का ..............कांग्रेस की अल्पमत सरकार ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के पांच सदस्यों सहित कई सांसदों को खरीद कर अपनी सरकार बचाई .. सरकार बचाने के इस रिश्वती खेल को नाम मिला ‘’झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रिश्बत कांड’’ जिसका केस भारत की अदालत में भी चला और कुछ सांसदों को जेल जाना पड़ा ...........इसी सरकार में मनमोहन सिंह नाम का नौकरशाह भारत का बित्त मंत्री बना....!

बाद के घटनाक्रम में कभी देश के बित्त मंत्री रहे प्रणव मुखर्जी के सचिब के रूप में प्रणब मुखर्जी के आधीन काम करने बाले इस नौकरशाह की ताकत और तिकडमो का अंदाज तो लगाईये की उन्ही प्रणब मुखर्जी को इस नौकरशाह की प्रधानमंत्रित्व के नीचे वित्त मंत्री के रूप में काम करना पड़ा ......... इनके खाते में शेयर बाजार का सबसे बड़ा घोटाला भी दर्ज है जिसे हर्सद मेहता कांड के नाम से जाना जाता है जिसमे देश की जनता को खरबो रुपये का चूना लगा था उस समय मनमोहन देश के वित्त मंत्री हुआ करते थे ... बाद के समय 2009 में इनकी सरकार बचाने के लिये एक बार फिर एक कांड हुआ जिसे देश .. कैश फार वोट ‘.. नाम के घोटाले के रूप में जनता है ..... इन सब बातो के बाबजूद अगर देश के जादातर नेता समाजसेवी .. बुद्धिजीवी और अन्ना जैसे अनशनकारी इनको व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होने का सार्टिफिकेट देते है और भारत का मीडिया भी इनको मिस्टर क्लीन की उपाधि देता है ... तो इसे भारत का दुर्भाग्य कहा जाए या बिडंबना इसका निर्णय आप स्वयं करे ......! 

साभार ... रमेश लक्ष्मण तांबे की पुस्तक .. भ्रष्ट नौकरशाह का सफर , बी सी .आई से डी सी . सी आई तक

इस्लाम के शुरू से ही शिया और सुन्नियों में है विवाद

सीरिया का गृहयुद्ध मुसलमानों के शिया और सुन्नी संप्रदाय के युद्ध में बदलता जा रहा है, जिसे सउदी अरब और ईरान का समर्थन मिल रहा है. दोनों समुदायों की आपसी लड़ाई की जड़ें इस्लाम के शुरुआती दिनों में हैं


पैगंबर मोहम्मद ने यदि 632 साल में अपनी मौत से पहले अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया होता, तो आज स्थिति कुछ और होती. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और युवा इस्लामी समुदाय पैगंबर की मौत के तीस साल बाद ही बिखर गया. इनमें बहुमत उन लोगों का था जिन्होंने बाद में अपने आपको सुन्नी कहा. दूसरा दल पैगंबर के दामाद अली इब्न अबी तालिब के समर्थकों का था. शियात अली यानि अली का दल बाद में शिया संप्रदाय बना. शिया अभी भी अल्पसंख्यक हैं और मुसलमानों की 1.6 अरब की आबादी में उनका हिस्सा करीब 15 फीसदी है. 
झगड़े की शुरुआत पैगंबर के उत्तराधिकार को लेकर हुई, कहना है कील विश्वविद्यालय के इस्लाम विशेषज्ञ लुत्स बैर्गर का. "शुरू में राजनीतिक विवाद था, जिसकी जड़ में उत्तराधिकारी चुनने का सवाल और दलीय हित थे. उसके बाद राजनीतिक विवाद धार्मिक विवाद में बदल गया."
शुरुआती सत्ता संघर्ष
पैगंबर के वैध उत्तराधिकारी को लेकर छिड़ी बहस के शुरू में चार खलीफा थे, जिन पर बहुमत से सहमति हुई थी. साल 660 में उमैय्या खानदान ने सत्ता संभाली. खलीफों के चुनाव में बहुमत के लिए इस बात का खास महत्व था कि वह मुहम्मद के कबीले कुरैश का हो. इसके विपरीत अली के समर्थकों का मानना था कि पैगंबर का उत्तराधिकारी मुहम्मद के परिवार का हो. उनकी दलील यह थी कि खुदा ने अली को उत्तराधिकारी चुना है और मुहम्मद ने अपने मरने से पहले इसे लिखित रूप में तय कर दिया था. सुन्नियों ने इसे कुरान से निकलवा दिया. इसके साथ कुरान के साथ छेडछाड़ का आरोप लगा, जिसे आज तक वापस नहीं लिया गया है.
बैर्गर का कहना है कि महात्वाकांक्षी अली को यह बात परेशान करती रही कि वे पैगंबर का उत्तराधिकारी बनने में विफल रहे. आखिरकार उन्हें 656 में चौथा और अंतिम वैध खलीफा चुना गया. उनका शासन सिर्फ पांच साल चला. एक जानलेवा हमले में उनकी मौत हो गई. इस्लामी सत्ता के नए केंद्र दमिश्क में उमैय्या समर्थकों का बोलबाला था. अली के समर्थकों ने सीमाई प्रांत पर अपना दबदबा बनाए रखा जो आजकल इराक है. साल 680 में अली के सबसे छोटे बेटे हुसैन को खलीफा चुना गया. लेकिन उमैय्या समर्थकों ने उसी साल उनकी हत्या कर दी. उन्हें करबला में दफनाया गया. इसके साथ सुन्नी और शिया संप्रदाय के स्थायी विभाजन और शिया संप्रदाय में शहीदी संस्कृति की नींव डली.
शुरुआती दुश्मनी
इस्लाम विशेषज्ञ बैर्गर का कहना है कि शिया एक तरह से इतिहास के हारे हैं. अली और उनके उत्तराधिकारियों को पूरे इस्लामी समुदाय से अपने को मनवाने में सफलता नहीं मिली. इसी का नतीजा दुनिया को देखने का उनका नकारात्मक नजरिया है. और शायद शिया विचारधारा भी जिसपर कुर्बानी की तकलीफ और निर्वाण के उम्मीद की छाप है. शिया नजरिये से इमाम खुदा के चुने बंदे हैं. कयामत के दिन मुक्तिदाता आएगा और न्याय के दैविक साम्राज्य की नींव रखेगा. इमाम में भरोसा सुन्नी के मुकाबले एक अहम अंतर है.
शिया लोगों के लिए इमाम खुदा और बंदे के बीच मध्यस्थ है. सिर्फ उसे कुरान का छुपा अर्थ पता है, जिसे लोगों को बताना उसकी जिम्मेदारी है. उसके फैसले कभी गलत नहीं होते, उसकी बातों का वही मोल है जो कुरान का है. बहुत से सुन्नियों के लिए यह पाखंड है. बैर्गर कहते हैं, "शिया संप्रदाय पर लोगों को भगवान बनाने के आरोप हैं, यानि पैगंबर के दामाद अली और उनके उत्तराधिकारियों को दैविक चरित्र के रूप में देखना और इसके साथ इस्लाम के मूल सिद्धांत से पीछे हटना कि सिर्फ एक खुदा है और इंसान की पूजा नहीं होनी चाहिए."
स्थायी असर
सत्ता में हिस्सेदारी न मिलने के कारण शिया अपने को पराजित मझते रहे तो सुन्नी शुरू से ही सफल रहे. इस्लाम विशेषज्ञ बैर्गर का कहना है कि वे अली को अपने इतिहास में जगह देने में कामयाब रहे. उन्होंने शुरुआती झगड़ों को कम कर आंका और तख्त पर शिया दावे को उपद्रवी प्रयास के रूप में देखा. बैर्गर के अनुसार भले ही शिया और सुन्नी एक दूसरे को नकारते रहे हों, इतिहास में ऐसी मिसालें हैं जिनमें धार्मिक झगड़ों के बावजूद वे शांति में जीते रहे हैं.
इस्लामी दुनिया में आज के राजनीतिक विवादों की ज्यादातर वजह धार्मिक है और एक हद तक शिया और सुन्नी की परंपरागत विभाजन रेखा बनी हुई है. चाहे सीरिया हो, इराक हो या सउदी अरब और ईरान का लंबे समय से चला आ रहा विवाद. ईरान अकेला मुल्क है जहां शिया राष्ट्रीय धर्म है. इसके अलावा इराक और बहरीन में शिया बहुमत में हैं. उत्तरी अफ्रीका के देशों में बहुमत आबादी सुन्नियों की है. सउदी अरब, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी. सीरिया और फलस्तीनी इलाकों में भी बहुमत सुन्नी हैं.

रिपोर्ट: सबीने हार्टर्ट-मोजदेही/एमजे
संपादन: आभा मोंढे

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