पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री
ममता बनर्जी द्वारा
बंगाल से मार्क्सवाद
ही नहीं मार्क्स
और लेनिन की
विदाई भी उनके
साहस का एक
और सबूत है।
वामपंथियों का मार्क्स,
लेनिन और अन्य
कम्युनिष्ट नेताओं के प्रति
कितना दुराग्रह है
इसकी झलक सन्
२०११ में त्रिपुरा
राज्य में देखने
को मिली। यहां
की कम्युनिष्ट सरकार
ने कक्षा पांच
के सिलेबस से
सत्य-अंहिसा के
पुजारी महात्मा गांधी की
जगह घोर कम्युनिस्ट,
फासीवादी, जनता पर
जबरन कानून लादने
वाले लेनिन (ब्लाडिमिर
इल्या उल्वानोव) को
शामिल किया है।
भारतीय संदर्भ में जहां-जहां वामपंथी
ताकत में रहे
शिक्षा का सत्यानाश
होता रहा। शिक्षा
व्यवस्था में सेंध
लगाकर ये भारतीयों
के मानस पर
कब्जा करने का
षड्यंत्र रचते रहे
हैं।
केरल के कई
उच्च शिक्षित नागरिकों
को विश्व शांति
का मंत्र देने
वाले महात्मा गांधी
और अयांकलि के
समाज सुधारक श्रीनारायण
गुरु सहित अन्य
स्वदेशी विचारकों के संदर्भ
में उचित जानकारी
नहीं होगी। क्योंकि
केरल की कम्युनिष्ट
पार्टी ने वहां
स्कूल-कॉलेज के
पाठ्यक्रमों में इन्हें
स्थान ही नहीं
दिया। बल्कि उन्होंने
जबकि मार्क्सवादी संघर्ष
से किताबों पन्ने
काले कर दिए।
केरल के ही
महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के
एमए राजनीति विज्ञान
के पाठ्यक्रम में
भारतीय राजनीतिक विचारधारा में
गांधीजी, वीर सावरकर
और श्री अरविन्दों
को हटाया गया,
इनकी जगह मार्क्सवादी
नेताओं को रखा
गया।
पत्रकार और सांसद
अरुण शौरी ने
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक
'एमिनेण्ट हिस्टोरियन्स' में 'शुद्धो-औशुद्धो' के संदर्भ
में पश्चिम बंगाल
के अध्यादेश का
उदाहरण दिया है।
यह अध्यादेश १९८९
को हायर सेकण्डरी
स्कूलों को जारी
किया गया था।
इसमें इतिहास की
पाठ्य पुस्तकों के
लेखकों और प्रकाशकों
कहा गया था
कि उनके द्वारा
प्रकाशित पुस्तक औशुद्ध (गलतियां)
हो तो वे
आगामी संस्करण में
उन्हें ठीक कर
लें। एक लम्बी
सूची भी दी
गई जिसमें बताया
गया कि क्या-क्या गलत
है और उसमें
क्या संसोधन करना
है। इस तरह
पश्चिम बंगाल ने कम्युनिष्टों
ने मनमाफिक भारत
के इतिहास में
फेरबदल किया। पश्चिम बंगाल
में लम्बे समय
तक कम्युनिष्ट सरकार
रही। इस दौरान
उन्होंने जबर्दस्त तरीके से
शिक्षा व्यवस्था में घुसपैठ
की। इसके चलते
पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, केरल
के प्राथमिक विद्यालयों
से लेकर विश्वविद्यालयों
तक के अधिकांश
शिक्षक, शिक्षक न होकर
माकपा के सक्रिय
कार्यकर्ता अधिक रहे
हैं। वामपंथियों की
मंशानुरूप ये शिक्षक
इतिहास, भूगोल, साहित्य सहित
अन्य विषयों को
तोड़-मड़ोरकर प्रस्तुत
करते रहे हैं।
वामपंथियों ने अपनी
थोथी राजनीति की
दुकान चलाने के
लिए शिक्षा व्यवस्था
को तो जार-जार किया
ही इसके माध्यम
से राष्ट्रीय भावना
को भी तार-तार किया।
ऐसे में शिक्षा
व्यवस्था में ममता
सरकार की ओर
से किए जा
रहे सार्थक प्रयासों
का स्वागत किया
जाना चाहिए।
वर्षों से कम्युनिष्टों
ने जो गड़बडिय़ां
की, उन्हें ठीक
किया ही जाना
चाहिए। पश्चिम बंगाल में
ममता बनर्जी की
सरकार ने कक्षा
११वी और १२वी
के इतिहास के
सिलेबस में बदलाव
करने का फैसला
लिया है। सिलेबस
बनाने वाली कमेटी
की ओर से
तैयार किए गए
नए प्रारूप में
पुराने अध्यायों को हटाया
गया है। हटाए
जाने वालों में
मार्क्स और लेनिन
के अध्याय भी
हैं। पाठ्यक्रम तैयार
करने वाली कमेटी
के चेयरमैन अभिक
मजूमदार ने बताया
कि इतिहास में
ऐसे कई अध्याय
हैं जिन्हें किताबों
में बेवजह शामिल
किया गया था,
जबकि इनकी कोई
जरूरत नहीं है।
इन्हें हटाने की सिफारिश
की गई है।
उन्होंने कहा कि
जब चीन का
इतिहास पाठ्क्रम में शामिल
है तो अलग
से मार्क्स और
लेनिन को पढऩे
की जरूरत क्या
है? नए प्रारूप
में महिला आंदोलन,
हरित क्रान्ति और
पर्यावरण से जुड़े
अध्याय शामिल हैं। मजूमदार
ने बताया कि
हमने किसी विषय
को जबरन थोपने
की कोशिश नहीं
की है।
चालाक कम्युनिष्टों ने भारत
में मार्क्स, लेनिन
व अन्य वामपंथी
विचारकों को पढ़ाने
में भी ईमानदारी
नहीं दिखाई। वामपंथ
का पूरा सच
भारत के कम्युनिष्टों
ने कभी नहीं
पढ़ाया। वामपंथ का साफ-सुथरा और लोक-लुभावन चेहरा ही
प्रस्तुत किया गया।
कम्युनिष्ट माक्र्सवाद के पीछे
छिपा अवैज्ञानिकवाद, फासीवाद,
अधिनायकवाद, हिंसक चेहरा कभी
सामने लेकर नहीं
आए। इससे वे
हमेशा कन्नी काटते
नजर आए। कम्युनिष्टों
ने कभी नहीं
पढ़ाया या स्वीकार
किया कि रूस
में लेनिन और
स्टालिन, रूमानिया में चासेस्क्यू,
पोलैंड में जारू
जेलोस्की, हंगरी में ग्रांज,
पूर्वी जर्मनी में होनेकर,
चेकोस्लोवाकिया में ह्मूसांक,
बुल्गारिया में जिकोव
और चीन में
माओ-त्से-तुंग
ने किस तरह
नरसंहार मचाया। इन अधिनायकों
ने सैनिक शक्ति,
यातना-शिविरों और
असंख्य व्यक्तियों को देश-निर्वासन करके भारी
आतंक का राज
स्थापित किया। मार्क्सवादी रूढि़वादिता
ने कंबोडिया में
पोल पॉट के
द्वारा वहां की
संस्कृति के विद्वानों
मौत के घाट
उतार दिया गया।
जंगलों और खेतों
में उन्हें मार
गिराया गया। रूस
और मध्य एशिया
के गणराज्यों में
भी हजारों गिरजाघरों
और मस्जिदों को
बंद कर दिया
गया। स्टालिन के
कारनामों से माक्र्सवाद
का खूनी चेहरा
जग-जाहिर हुआ।
हालांकि इन फासीवादी
ताकतों को धूल
में मिलाने में
जनता ने अधिक
समय नहीं लगाया।
जल्द ही उक्त
देशों से कम्युनिज्म
उखाड़ फेंका गया।
रूस में तो
लेनिन और स्टालिन
के शवों को
बुरी तरह पीटा
गया। इतना ही
नहीं वहां कि
जनता ने उन
सब चीजों को
बदलने का प्रयास
किया जिन पर
कम्युनिज्म ने अपना
ठप्पा लगा दिया
था। इतिहास की
पुस्तकों से वे
पन्ने निकाल दिए
गए, जो कम्युनिष्ट
के काले रंग
से रंगे थे।
सेंट पीटर्सबर्ग नगर
कम्युनिष्टों के शासनकाल
में 'लेनिनग्राड' हो
गया था। कम्युनिज्म
के ध्वस्त होते
ही लेनिनग्राड वापिस
सेंट पीटर्सबर्ग हो
गया। भारत में
भी समय-समय
पर अपना रंग
दिखाया है। महात्मा
गांधी के आंदोलन
भारत छोड़ो के
खिलाफ षड्यंत्र किए,
अंग्रेजों का साथ
दिया, कम्युनिष्टों ने
सुभाषचंद्र बोस और
आजाद हिन्द फौज
के खिलाफ दुष्प्रचार
किया, पाकिस्तान बनाने
की मांग को
वैध करने और
भारत में अनेक
स्वायत्त राष्ट्र बनाने का
समर्थन किया। १९६२ के
युद्ध में चीन
की तरफदारी की,
क्योंकि वहां कम्युनिष्ट
सरकार थी। कम्युनिष्टों
के लिए सदैव
राष्ट्रहित से बढक़र
स्वहित रहे हैं।
कम्युनिष्टों ने भारत
की संस्कृति, राष्ट्रीय
चरित्रों, राष्ट्रीय आदर्शों और
परम्पराओं से नफरत
करना सिखाया। मार्क्स,
लेनिन, माओ, फिदेल
कास्त्रो, चे ग्वारा सबके
सब उनके लिए
आदर्श बने रहे,
स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द,
महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस,
डॉ. हेडगेवार सभी
बुर्जुआ, पुनरुत्थानवादी कहे जाते
रहे। कितनी बेशर्मी
से कम्युनिष्ट इस
देश में रहकर
ही इस देश
के महापुरुषों को
दरकिनार करते रहे
और विदेश से
प्रेरणा लेते रहे।
ऐसे कम्युनिज्म को
तो इस देश
से खुरच-खुरच
कर बाहर फेंक
देना चाहिए।
जिस कम्युनिज्म की अर्थी
उसके जन्म स्थान
से ही उठ
गई, उसे भारत
में दुल्हन की
तरह रखा गया।
रूस में मार्क्सवाद
का प्रारंभ भीषण
नरसंहार, नागरिकों की हत्याओं,
दमन और सैनिक
गतिविधियों से हुआ।
१९९१ में इसका
अंत व्यापक भ्रष्टाचार,
आर्थिक कठिनाइयों और देशव्यापी
भुखमरी के रूप
में हुआ। ऐसे
कम्युनिज्म का भारत
में बने रहने
का कोई मतलब
नहीं है। ममता
बनर्जी की तरह
औरों को भी
आगे आना होगा।
साथ ही इस
तरह के सुधारों
का स्वागत किया
जाना चाहिए। इतना
ही नहीं अगर
किसी भी स्तर
पर वामपंथियों की
ओर से विरोध
जताया जाता है
तो उसका सबको
मिलकर मुकाबला करना
चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)