Tuesday, May 29, 2012

कश्मीर को खोने की ख्वाहिश...


श्रीनगर स्थित कश्मीर विश्वविद्यालय का सभागार। एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के उद्घाटन सत्र के लिए देश-दुनिया से पधारे अर्थशास्त्री शिक्षाविद मौजूद हैं। विश्वविद्यालय के कुलाधिपति और जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एन.एन. वोहरा मंच पर हैं। मंच संचालक राष्ट्रगान के लिए सबको अपने स्थान पर उठ खड़े होने का अवाहन करते हैं। मंचस्थ कुलाधिपति और कुलपति समेत गणमान्य लोगों के साथ सभागार में बैठे अनेक लोग राष्ट्रगान के सम्मान में उठ खड़े होते हैं। मगर सभागार में बड़ी तादाद में ऐसे लोग भी हैं जो राष्ट्रगान के वक्त राज्यपाल की मौजूदगी में भी अपनी सीटों पर बैठे रह जाते हैं। बाद में राज्यपाल थोड़ी चेतावनी देते हैं और मामला रफा दफा हो जाता है।

जिस वक्त श्रीनगर के कश्मीर विश्वविद्यालय में यह घट रहा था करीब उसी समय दिल्ली में एक रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की तैयारी होती है. संयोग से यह यह रिपोर्ट भी कश्मीर से ही जुड़ी है. जम्मू कश्मीर पर केंद्र सरकार के वार्ताकारों की रिपोर्ट करीब सात महीने गृहमंत्रालय की अलमारियों में आराम फरमाने के बाद संसद का बजट सत्र समाप्त होते ही बीते सप्ताह मंत्रालय की वेबसाइट पर प्रकट हो गई. इधर रिपोर्ट आई और उधर कश्मीरियों ने अपने अपने कारणों से इसे नकारने में कोई देरी नहीं की. इस समिति ने जो सुझाव दिये हैं क्या वे कश्मीर की उस हकीकत को बदल देंगे जो वहां दिखाई दे रहा है या फिर रिपोर्ट के सुझावों पर अमल कर लेने पर कश्मीर में परिस्थितियां और भयावह और जटिल हो जाएंगी?

वैसे तो किसी भी भारतीय के लिए भी इस रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को पचा पाना संभव नहीं होगा। रिपोर्ट की शब्दावली और भाषा ही नहीं इसके कई तत्व भी भारतीय भारत के संविधान, संसद और देश की संप्रभुता पर चोट करने वाले है। बेहतर होता कि यह कहीं गृहमंत्रालय में ही पड़ी धूल फांकती रहती। देश और खासकर जम्मू कश्मीर को इस रिपोर्ट से एकमात्र लाभ यह मिल सकता है कि इसके बहाने भारत भर में जम्मू-कश्मीर बहस, चिंतन मंथन का विषय बन जाएगा।
पत्रकार दिलीप पडग़ांवकर की अध्यक्षता में शिक्षाविद राधा कुमार और पूर्व सूचना आयुक्त एमएम अंसारी पर आधारित वार्ताकार दल का गठन 2010 में हुआ था। मकसद था जम्मू कश्मीर की उलझी गुत्थी को कुछ सुलझाने का रास्ता तलाशना। मगर रिपोर्ट बताती है कि समाधान का रास्ता तलाशने वाले रास्ता भटक कर जाने कौन की पतित पटरी जा चढ़े? इस दल को क्या क्या अधिकार दिए गए थे, यह तो गृहमंत्रालय की फाइलों में दर्ज होगा। पर पी. चिदंबरम और उनके मंत्रालय ने उन्हें ऐसा कुछ करने या कहने के लिए तो कतई अधिकृत नहीं किया था जिससे कि देश की अखंडता संप्रभुता खतरे में पड़े। संविधान संसद की शक्तियों के दायरे से भारत के भाल कश्मीर को और दूर छिटकाने वाली बोली बोलने की भाषा बोलने का हक इन्हें नहीं था तो यह भी पड़ताल का विषय है कि इन्होंने यह कृत्य किसके इशारे पर किया?

वार्ताकारों की तिकड़ी ने 176 पन्ने का जो दस्तावेज सौंपा है, वह भारत के हितों पर सीधा कुठाराघात करता है। इन्होंने जम्मू कश्मीर का भारत में विलय होने और उसी दौरान राज्य के एक बड़े हिस्से पर पाकिस्तान के अवैध कब्जे के बाद पहली बार किसी भारतीय दस्तावेज में राज्य के मामले में पाकिस्तान और भारत को एक जैसी स्थिति में लाकर खड़ा करने का प्रयास किया गया है। पाकिस्तान या दुनिया के अन्य देश पाक के कब्जे वाले क्षेत्र को चाहे जो कह कर पुकारते रहे हों, भारत ने आज तक उसे पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर ही कहा है। यह नामकरण महज भावनात्मक मामला होकर कानूनी लिहाज से भी इतना ही दुरूस्त है। कौन इस बात को झुठला सकता है कि स्वाधीनता के बाद जम्मू कश्मीर की रियासत के महाराजा हरि सिंह ने ठीक वैसे विलय प़त्र पर दस्तखत किए थे जैसे कि अन्य सैंकड़ों राजाओं ने ? इस के स्वीकार होने के साथ ही वैधानिक रूप से उनकी समूची रियासत भारत का हिस्सा बन गई थी। इसी बीच पाकिस्तान कबाइलियों की मदद से हमारे इस क्षेत्र में घुस आया था और आज तक बैठा हुआ है। भारत ने कभी इस पाकिस्तानी कब्जे को वैध नहीं माना। इसीलिए एक क्षण के लिए भी हमने अपने मानचित्र से राज्य के बिछुड़े हुए हिस्सों को अलग नहीं किया। स्वाधीनता के बाद जो भी सरकारें दिल्ली में बनीं, सबने यह संकल्प किसी किसी रूप में व्यक्त किया ही कि पाक अधिकृत कश्मीर हमें वापस लेना है।  भारत के इस संकल्प और भावना का इससे बड़ा प्रकटीकरण क्या होगा कि 1994 में संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दुनिया को फिर से याद करवाया था कि समूचा जम्मू कश्मीर हमारा है और हमलावर पाकिस्तान को हमारी भूमि खाली करनी होगी।

हैरत की बात यह है कि इस रिपोर्ट में जम्मू कश्मीर के पाक अधिकृत हिस्से के लिए पाक-शासित जम्मू कश्मीर शब्द का प्रयोग करने का दुस्साहसपूर्ण कार्य किया गया है। यह दुस्साहस न होकर किसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा भी हो सकता है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान को भारत के समकक्ष खड़ा करने सरीखी यह शब्दावली कमोबेश अलगाववादियों की बोली से मेल खाती है।

वार्ताकारों ने 1952 के बाद जम्मू कश्मीर में लागू हुए केंद्रीय कानूनों की समीक्षा की बात कह कर संविधान और संसद की गरिमा और अधिकार क्षेत्र पर ही सवाल उठा दिए हैं। इनकी मान ली गई तो संसद कुछेक विषयों को छोडक़र अधिकांश मामलों में जम्मू कश्मीर के लिए कानून बनाने के अधिकार से वंचित हो जाएगी। जिन्हें जम्मू कश्मीर को दिल्ली के करीब लाने का काम सौंपा गया था वे कैसे राज्य के मामलों में संसद और संविधान को पंगु बनाकर दिल्ली के हाथ-पांव बांधने की दलील दे रहे हैं? इस मामले में तो रिपोर्ट की भाषा ही दोगली है। एक तरफ वार्ताकार कहते हैं कि घड़ी की सुइयों का उलटा घुमाकर बीते दौर को लौटाना संभव नहीं है। दूसरी ही सांस में एक संवैधानिक समिति बनाकर केंद्रीय कानूनों की समीक्षा करने की बात कहते सुनाई देते है। इस प्रक्रिया में क्या घड़ी की सुइयां उलटी घुमानी नहीं पडेगी? सच पूछिए तो यह गुपचुप सन तिरेपन से पूर्व की स्थिति को बहाल करने की ही सिफारिश है। ऐसा प्रतीत होता है कि वार्ताकारों की तिकड़ी पर यह सिफारिश करते वक्त कहीं कहीं मौजूदा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के स्व. दादा शेख अब्दुल्ला की आत्मा हावी हो गई होगी।

अलगावराग अलापते हुए वार्ताकार कहते हैं कि जम्मू कश्मीर के राज्यपाल की नियुक्ति के लिए वहां की विधानसभा एक पैनल भेजेगी, जिसमें से राष्ट्रपति किसी को राज्यपाल नियुक्त करेंगे। किसी भी अन्य विधानसभा को यह अधिकार नहीं है। फि जम्मू कश्मीर को भला यह हक क्यों मिले ? देश चाहता है कि राष्ट्रीय एकता की धुन इस ढंग से बजे कि जम्मू कश्मीर भी सारे देश के साथ सुर मे सुर मिलाकर गाए। मगर वार्ताकार उसके अढाई चावल अलहदा पकाने का इंतजाम करने पर आमादा हैं।
किसी जमाने में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल को सदरे रियासत कहा जाता था और मुख्यमंत्री को वजीरे आजम। उर्दू के यह दो शब्द प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पर्यायवाची हैं। यह भी देश की मुख्यधारा की धुन से अलग राग था। जब भारत एक राष्ट्र है तो उसके अभिन्न अंग जम्मू कश्मीर का अलग राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री भला कैसे हो सकता है? इस प्रश्न पर जोरदार जनांदोलन के बाद यह शब्दप्रयोग बंद हुआ था। वार्ताकारों ने चीफ मिनिस्टर और गर्वनर के लिए उर्दू के समकक्ष शब्दों के प्रयोग की सिफारिश कर इस मामले में भी अलगाव को बढ़ावा देने वालों के सुर में सुर मिलाए हैं।
खैर, बात इतने पर भी नहीं रूकी। देश के अन्य राज्यों में आईएएस और आईपीएस में राज्य सेवाओं के अधिकारियों का कोटा तैंतीस फीसदी होता है। जम्मू कश्मीर में यह पहले से ही पचास फसदी है। वार्ताकारों को इतने पर संतोष नहीं है। कहते हैं कि यह आंकड़ा और अधिक होना चाहिए। यह देश से जोडऩे वाला काम होगा कि अलगाव वाला, यह बात समझना किसी के लिए कठिन नहीं होगा।
जम्मू कश्मीर का नाम आते ही आम भारतीय के जेहन में धारा तीन सौ सत्तर भी उभर आती है। संविधान की यह धारा जम्मू कश्मीर के भारतवर्ष के साथ एकाकार होने में सबसे बड़ी बाधा रही है। इस धारा का अस्थायी कह कर संविधान में जोड़ा गया था। इसे समाप्त कर जम्मू कश्मीर को भी भारत के अन्य राज्यों की बिरादरी में समान पटल पर ला खड़ा करने की वकालत होती रही है। स्वयं पंडित नेहरू ने संसद में कहा था कि इसे समय के साथ निष्प्रभ कर दिया जाएगा। वार्ताकार देशहित में सोचते तो इस धारा से होने वाले नुकसान पर भी अपनी रिपोर्ट में चर्चा करते। मगर नहीं। उन्होंने अन्य मामलों की भांति इस सवाल पर भी उलटे पहाड़े पढऩे में कसर नहीं छोड़ी। इनकी मान ली जाए तो धारा के साथ जुड़ा अस्थायी शब्द हटाकर इसे स्थायी बना देना चाहिए। ऐसे में यह क्यों कहा जाए कि जम्मू कश्मीर को देश की मुख्यधारा से जोडऩे के घोषित एजेंडे के साथ बनाई गई वार्ताकारत्रयी का शायद कोई हिड्डन एजेंडा रहा होगा? वरना उनकी अनेक सिफारिशें राज्य को मुख्यधारा से अलग करने वाली भला कैसे होती? रिपोर्ट पढ़कर यह समझना मुश्किल है कि वार्ताकारों का यह दल कश्मीर समस्या सुलझाने के लिए बना था या फिर उलझाने के लिए
तय मानिए इस दल को नियुक्त भले ही दिल्ली ने किया हो, इसका एजेंडा कहीं कहीं पाकिस्तानी एजेंट गुलाम नबी फई और उसके दोस्तों के भारत विरोधी कश्मीर सम्मेलनों में तैयार हुआ होगा। याद रहे कि दिलीप पडग़ांवकर और राधा कुमार पर ऐसे विदेशी सम्मेलनों में शिरकत और देशविरोधियों की मेहमाननवाजी स्वीकारने के आरोप और किसी ने नहीं खुद उनके सहयोगी और तीसरे वार्ताकार एमएम अंसारी ने सार्वजनिक रूप से लगए थे।  

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