Monday, February 27, 2012

रहस्यमय हैं सोनिया गांधी...

रहस्यमय हैं सोनिया गांधीराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आरोप लगाया है कि संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी कांग्रेस की आपातकालीन मानसिकता, निरकुंश और अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं और इसी के तहत उन्होंने अलोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रीय सलाहाकार परिषद नाम से समानांतर सत्ता केंद्र खड़ा कर दिया है। उसने आरोप लगाया कि इसी मानसिकता के चलते वह देश की जनता से अपने धर्म, बीमारी और आयकर संबंधी जानकारी भी छिपाती आ रही हैं।


संघ के हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले मुखपत्रों ‘पांचजन्य’ तथा ‘ऑर्गेनाइजर’ के ताजा अंकों में सोनिया पर ये आरोप लगाए गए हैं। पांचजन्य के संपद्कीय में कहा गया है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद नामक समानांतर सत्ता केन्द्र के जरिए कि सोनिया साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक जैसे काले कानून का प्रारूप तैयार कराके विधायी प्रक्रिया में असंवैधानिक हस्तक्षेप करने जैसी हिमाकत कर रही हैं। इसमें सवाल किया गया है कि क्या देश कांग्रेस की जागीर है जो उसके राजनीतिक हितों, सत्ता स्वार्थों व मंसूबों के हिसाब से चलाया जाएगा?
उधर ऑर्गेनाइजर के लेख में कांग्रेस अध्यक्ष पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया गया है कि सोनिया अपने सार्वजनिक जीवन को लेकर बहुत अधिक रहस्यात्मक हैं। इसमें कहा गया है कि सोनिया गांधी ने पहले अपने धर्म को छिपाया, फिर संबंधियों को छिपाया और अब अपनी बीमारी को। वह लगातार इन सब जानकारियों को देश की जनता से छिपाती आ रही हैं।
लेख में कहा गया है कि इस छिपाने और गोपनीयता बरतने की कांग्रेस अध्यक्ष की आदत का सबसे ताजा उदाहरण पिछले दस साल की अपनी आय कर की जानकारी देने से इंकार करना है।
आर्गेनाइजर में दावा किया गया है कि सोनिया ने निजिता और सुरक्षा के नाम पर उनके द्वारा पिछले दस सालों में दिए गए आयकर की जानकारी देने से इंकार कर दिया। इसमें कहा गया है कि इससे पहले उन्होंने अपने धर्म की जानकारी देने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि यह उनका निजी मामला है जिसे वह सार्वजनिक नहीं करना चाहेंगी। इसमें कहा गया कि सभी सरकारी कागजातों और फार्मों में यह जानकारी देना अनिवार्य होने के बावजूद सोनिया इससे बचती आई। संघ ने दावा किया है कि कांगे्रेस अध्यक्ष ने अपनी शैक्षणिक योग्यता को भी  कि अति गोपनीय बना कर छिपाया हुआ है। हाल ही में उनकी बीमारी और विदेश में उपचार के संदर्भ में लेख में कहा गया है कि सोनिया जब अस्वस्थ हुई और कथित तौर पर सरकारी खर्चे पर उपचार के लिए विदेश गईं तो भी ‘निजता का सम्मान’ किए जाने के नाम पर उन्होंने बीमारी के बारे में देश को कुछ भी बताने से इंकार कर दिया।
इसमें कहा गया है कि अगर उनके उपचार पर सरकारी धन खर्च हुआ है तो देश की जनता को यह जानने का हक है कि इसमें कितना सार्वजनिक धन लगा और क्यों लगा। जनता को यह जानने का भी अधिकार है कि जिस भी बीमारी का उपचार कराने वह विदेश गई, क्या उसके इलाज की सुविधा देश में नहीं थी?

Wednesday, February 22, 2012

अंबरीश कुमार के वॉल पर दिलीप मंडल को अजीत अंजुम ने दौड़ाया


फेसबुक-ट्विटर-ब्लाग-वेब ने इतना तो कर दिया है कि संपादकों को उनके-उनके मीडिया माध्यमों और उनके प्रबंधन के भय से इतर एक जगह गपियाने, बोलने-बतियाने, बहसियाने और लड़ने का मौका दे दिया है. हालांकि बहुत सारे पत्रकार व संपादक अब भी चुप्पी साधे रहते हैं, जुबान बंद किए रहते हैं, शायद इस भय से कि कुछ ऐसा न निकल जाए, लिख जाए जिससे उनकी नौकरी पर बन आए. तो नौकरी करने वाले क्लर्क टाइप के पत्रकार-संपादक भले सोशल नेटवर्किंग साइट्स व न्यू मीडिया से दूरी बनाए रखें, लेकिन जिन लोगों ने यहां सक्रियता दिखाई है, उनके जरिए बहुत ढेर सारे पत्रकारों को बहुत कुछ सीखने समझने का मौका मिल रहा है. कहा भी जाता है कि पत्रकार-संपादक जहां होंगे वहां बहस होगी, बातें होंगी, चर्चाएं होंगी. फेसबुक ठीकठाक चौपाल बनता जा रहा है जहां खूब बातचीत पत्रकारों के बीच हो रही है.

ताजा प्रकरण अंबरीश कुमार के फेसबुकी अड्डे से जुड़ा है. अंबरीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं. जनसत्ता अखबार के यूपी ब्यूरो चीफ हैं. खरा बोलने और बेबाक लिखने के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने अपने वाल पर कुछ लिखा तो उस पर दिलीप मंडल ने ललकारते हुए कुछ कमेंट कर दिया. दिलीप मंडल का अब वो कमेंट उपलब्ध नहीं है क्योंकि उन्होंने अजीत अंजुम द्वारा दौड़ाए जाने के बाद अपनी कमेंट डिलीट कर गोल हो गए हैं. अजीत अंजुम ने दिलीप मंडल के हिप्पोक्रेसी की जमकर क्लास ली. खूब लिखा. लीजिए, पढ़िए...

Ambrish Kumar : अपने पुराने साथी आजतक के अमिताभ श्रीवास्तव जो सरोकार की राजनीति से भी जुड़े रहे, सोनी सोरी की पोस्ट पर जो लिखा, वह जस का तस पेश है. अजीत अंजुम का जबसे मैं सही नाम लिखने लगा हूँ, वे नजर भी नहीं डालते, खैर आगे पढ़े अमिताभ का कमेंट... Amitaabh Srivastava -पत्रकारिता में दिख रही ये जमात या तो ज़्यादातर उन कारखानों की देन है जिन्हें प्रोफेशनल जर्नलिज्म की सम्मानजनक शब्दावली में मीडिया स्कूल कहा जाता है और जहाँ सफलता के लिए विचारधारा विहीन होना ऑब्जेक्टिव होने की पहचान बना दिया गया है या फिर खाए पिए अघाए लोगों की मंडली जो बिल्डर, ब्रोकर और बैंकर की भाषा बोलती है और जिसने उदारवादी अर्थव्यवस्था का उदारता से फायदा उठाया है, जिसे अपने लाभ के अलावा किसी चीज़ से खास सरोकार नहीं है. इसमें समाज में बदलावों और पत्रकारिता के शिखर पुरुषों की भी महान भूमिका है. हमें बिलकुल हैरान नहीं होना चाहिए अगर ऐसी ही जमात से निकले कुछ लोग आगे चल कर प्रखर पत्रकारिता के लिए रामनाथ गोयनका अवार्ड जैसे पुरस्कारों से सम्मानित भी किये जाएँ.

        Ajit Anjum अरे भाई अंबरीश जी , मैं तो आपके लिखे का पुराना मुरीद हूं ...मैं तो कई बार लिख चुका हूं कि जनसत्ता में आपकी हर खबर कम से कम मैं जरुर पढ़ता हूं ...मैं आपके लिखे शब्दों को नजरअंदाज नहीं कर सकता भाई साहब
       
        Ambrish Kumar अजीत जी आपने दो एंकर की तारीफ़ की और मैंने बाकायदा उन्हें घंटे भर सुना मैंने तहलका की एक नई पत्रकार प्रियंका दुबे का लिखा पढने को कहा था ताकि प्रिंट की प्रतिभा को भी समझा जाए पर शायद आप पढ़ नहीं पाए .
         
        Ajit Anjum अंबरीश जी , प्रिंट से तो टीवी की तुलना ही नहीं की जा सकती . आज भी टीवी वाले बिना अखबार के किसी काम के नहीं है ...टीवी नहीं देखकर आपका काम चल सकता है , अखबार पढ़े बगैर नहीं .........प्रिंट में तो सैंकड़ों नहीं हजारों ऐसे पत्रकार हैं , जो टीवी की पूरी जमात पर भारी पड़ सकते हैं ...मुझे याद है साल में दो दिन ऐसे होते हैं , जब घर में अखबार नहीं आता , होली के अगले दिन और दिवाली के अगले दिन . दो दिन टीवी की खबरें विधवा की मांग की तरह हो जाती हैं क्योंकि उन्हें खबरों की खुराक ही नहीं मिलती .
       
        Ambrish Kumar किसी विधा पर मै नहीं जा रहा कंप्यूटर पर काम करते हुए भी बीच में खबरिया चैनल देखता रहता हूँ जिनमे पता चलता रहे प्रिंट का हाल बहुत अच्छा नहीं है तीन दशक बाद फिर एक नए प्रयोग की जरुरत प्रिंट में दिख रही है .
       
        Amitaabh Srivastava तो गोया टीवी वालों का सुहाग उधार के सिन्दूर से सलामत है. क्या बात है! प्रियंका का लेख सचमुच अच्छा है और उनकी समझ और संजीदगी का अंदाज़ा लगाने में मदद कर सकता है.
       
        Shailendra Jha अजित सर, मैं अमिताभ जी की बात से पूरी तरह सह्मत्र हूँ, प्रिंट के हिंदी के उन पत्रकारों की बात छोड़ दीजिये यदि जो आपलोगों की पीढ़ी के हैं, तो हमारी पीढ़ी के प्रिंट वाले भी वैसे ही हैं, विचारधारा विहीन पत्रकारिता, रोज़गार तो दिला सकती है पर पत्रकार नहीं बना सकती. सर मैं आपको एक उदहारण दूं मेरे यहाँ एक अनकर रखी गयी, एक दिन वीडियो लाइब्ररी में मैं कुछ फूटेज तलाश रहा था, तो मेरे पास आई और कहा '' सर कुड यु प्लीज़ टेल मी, व्हाट इस थिस मांगो मोर ? '' मैं सोचने लगा तभी मेरी नज़र उस वि टी आर की ओर गयी जिस पे वो मांगो मोर के फूटेज तलाश रही थी., मुझे वहां कहीं म्यांमार लिखा दिखा. मैंने पूछा '' आर यु टाकिंग अबाउट म्यांमार'' उसने बोला हाँ सर हाँ सर वही बोल रही थी. बताइए सर क्या होगा उस मुल्क का जहाँ म्यांमार और मेंगो मोर का फर्क नहीं जानने वाला खुद को पत्रकार कहे और उसे २०,००० रुपये दिए जा रहे हों. और बताऊँ मैं आपको एक बहुत सीनियर एंकर हैं - उन्होंने सुखराम को पूरे दिन सूखाराम पढ़ा , बाद में मुझे पता चला उन्हें सुखाराम वो अज्ञानता में कह रहे थे, उछारण दोष की वजह से नहीं
       
        Ambrish Kumar दिलीप मंडल और अमिताभ खुद ऎसी जगहों पर है जहाँ से काफी कुछ किया जा सकता है हालंकि अजित अंजुम का पहली पहले ही कहना है कि टीआरपी वाली पत्रकारिकता तलवार के धार पर चलने जैसी जोखम भरी है प्रिंट में इतना जोखम नहीं है पर प्रसार का दबाव भी कम नहीं होता .पर रास्ता बताए और दिशा तो दे नए लोगो को
       
        Shailendra Jha ‎.दिलीप जी ये सवाल पूछने के पहले एक सवाल का जवाब दे दें, जबसे आपने ,मुझे ब्लाक किया , आपसे ये सवाल पूछने का दिल था, पूछ नहीं प् रहा था, बड़े मौके से मिले हैं. आपको हिन्दू कोलेज का वो सभागार याद ही होगा जिसमे एक उत्साहित विद्यार्थी ने आपसे पूछा था क्या कोर्पोरेट मीडिया के अन्दर काम करते हुए, सिस्टम को ठीक नहीं किया जा सकता ? आपका जवाब था आपलोग हर बार क्रांति के लिए लाला के पैसे का मुंह क्यों देखते हैं ? क्या ह्जो गया दिलीप जी ? कोर्पोरेट मिडिया अब लाला मुक्त हो गया क्या ? और यदि नहीं हुआ तो उस बच्चे के जीवन का क्या जो आपकी बात को परमसत्य मानकर दिल्ली छोड़कर चला गया , क्रांति करने, भीख मांग रह है, अल्सर हो चुका है उसे और वो अपना इलाज़ नहीं करवा सकता ? करियर अलग ख़राब हो गया ? आप मौकापरस्त हैं ये बात भी बोलेंगे क्या किसी सभागार में ?
       
        Ambrish Kumar मंडल जी की इस बात के बाद सारी गलत फहमी दूर हो जानी चाहिए ,पर पत्रकारिता से भी कुछ तो किया ही जा सकता है अगर वह ढंग से हो जाए .दोस्तों निजी टिपण्णी न करे
     
        Shailendra Jha जी आप करने पर कहाँ कुछ करते हैं ? तर्क नहीं झेल पाने पर कर दिया था ब्लोक ? अच्छा तो आप इन दिनों दुनियावी ज़रूरतों के चलते आप रोज़ी रोज़गार में जुटे हैं और घर भरने के बाद फिर क्रांतिकारी की भूमिका में आयेंगे ? अच्छा मतलब आप क्चुह्ह समय क्रांतिकारी रहते हैं और फिर कुछ समय तक घर भरने वाले ? तो अब जब आपने खुद मान लिया है की आप इन दिनों घर भरने में लगे हैं तो क्यों न अ कुछ दिन के लिए क्रांति का चोला फेंक देते हैं ? फिर मौका देख कर पहन लीजियेगा
     
        Shailendra Jha अम्बरीश सर आप बड़े हैं, गलती हो तो माफ़ कर दीजियेगा बच्चा मानकर पर ये मैं बेहद ज़रूरी सवाल पूछ रहा हूँ . आप इनसे पूछ लीजिये कि इण्डिया तोड़े ज्वाइन करने के पहले जो इनका फेसबुक प्रोफाइल था वो इन्होने दिअक्तिवेत क्यों किया ? फिर भी यदि आप चुप रहने को कहते हैं तो मैं अब कुछ नहीं पूछुंगा
       
        Shailendra Jha सर जी असली मंडल मंदिर वाले तो आप हैं, मैं तो उस दौर में अंगूठा चूसता था, वो अप्क्मे दौर में हुआ था, मेरा दौर ये है इसमें ऐसा कुछ नहीं होगा, लिख कर दूं कहीं ?
       
        Shailendra Jha आप क्या हैं ये मैं कैसे कहूँ ?और मेरी नाराज़गी भी इसी चीज़ से है कि आप कभी कुछ कहते हैं कभी कुछ . किताब ज़रूर पढूंगा, नाम बताने के लिए शुक्रिया
       
        Ajit Anjum दिलीप जी , पिछले कई सालों से क्रांतिकारिता बघार रहे थे . बड़ी -बड़ी बातें कर रहे थे . लाला पत्रकारिता , दलाल पत्रकारिता , कॉरपोरेट पत्रकारिता .,,,आदि आदि ...और उसी कॉरपोरेट पत्रकारिता की गोद में जा बैठे ...मैं तो इंतजार कर रहा हूं कि कब दिलीप मंडल जी के संपादन में इंडिया टुडे का सेक्स सर्वे वाला विशेषांक निकलता है ...वैसे पिछले दिनों से प्रयोजित पन्नों से भरे कॉलेजों वाले विशेषांक निकले हैं ....देखकर अब तक नहीं लगा कि दिलीप जी जिन वजहों से मीडिया को गरियाते रहे हैं , वहां जाकर कोई क्रांति कर रहे हों .....हमें तो बहुत उम्मीद थी कि दिलीप मंडल जी अब पत्रकारिता को बदलने की दिशा में कुछ करेंगे ...कॉरपोरेट पत्रकारिता का जवाब देने के लिए सरोकारी पत्रकारिता करेंगे लेकिन पतली गली से वहां जाकर स्थापित हो गए .......
       
        Shailendra Jha फिर आ गए क्रन्तिकारी मुद्रा में ? आपने अभी कहा इन दिनों आप नौकरी कर रहे हैं?
       
        Ambrish Kumar मैंने भी पहले भी कहा था निजी टिपण्णी न करे जो किसी को आहत करे ऎसी एक टिप्पणी हटा दी गई है तर्कों पर बात करे गली गालौज के बिना भी कहा जा सकता है
       
        Shailendra Jha आपने याद कहाँ दिलाया ? पत्रकारिता का पहला लेसन भी जिसने पढ़ा है वो जानता है, पत्रकार निष्पक्ष होता है, जब तक पत्रकार होता है, आपतो लुम्पेनिज्म के स्टार पर जाकर एक्टिविज्म करने के लिए जाने जाते हैं
       
        Shailendra Jha ambrish sir maafi, ab aur nahi poochunga kuchh, kathor tip\[paniyon ke liye maaf kar dijiyega
       
        Shailendra Jha दिलीप जी मुझे आपको देखकर शंकराचार्य का '' शिशु मानव'' याद आता है वो तो आप अपने मन में सोच रहे होंगे कि कैसी कमेंट्स हैं
       
        Praveen Kumar Jha mera 8 sal ka beta jab kabhi mujhe nirottar karta hai to mai use jawab deta hu - beta tu abhi bachha hai ....
       
        Shailendra Jha saboot rahne dijiye dileep ji aap aaye aur apki itni lagi ye logon ko to dekhne dijiye, apki tippaniyan itni bekar hain ki 1 tarah se delted hi hain, to rahen dijiye unhe
       
        Ajit Anjum आपने पहले भी लाखों शब्दों का ज्ञान बांचकर खुद को कई सालों तक महान साबित करने की कोशिश की , कॉरपोरेट पत्रकारिता के खिलाफ स्वंयभू चैंपियन बनकर सेमिनारों में भाषण देते रहे ...देश भ्रमण करके मीडिया के अंडरवर्ल्ड के बारे में बांचते रहे और जब उस कॉरपोरेट घराने में एक अदद नौकरी मिली तो सब डिलीट कर दिया ....इसमें नया क्या है ....
       
        Ajit Anjum वैसे जाते जाते दिलीप जी बताते जाएं कि इंडिया टुडे का सेक्स सर्वे वाला विशेषांक निकलेगा या नहीं ....प्रायोजित पत्रकारिता वाले पन्ने भी तो आपके ही संपादन में तैयार होते होंगे न ...बड़े-बड़े सेठाधीशों के फोटो वाले विशेषांक का पन्ने भी आप के नेतृत्व में ही तैयार होते होंगे न....इंडिया टुडे में आपको तसल्ली तो मिल रही है न ... पिछले कुछ सालों से जिस किस्म की पत्रकारिता की बुनियाद आप फेसबुक ,सभा-सेमिनारों और ज्ञान मंडलियों में डाल रहे थे , वो वहां तो आपके नेतृत्व में फलफूल रहा है न ....
       
        Anant Kumar Jha ‎Ajit Anjum@
        लगता है मामला फंस गया है कहीं,
        बहस का रूप कुतर्कों मैं बदल रहा है.
       
        Praveen Kumar Jha mujhe dar hai log apna account de-activate na kar le.
       
        Anant Kumar Jha लेकिन सवाल यह कि लेकिन दिलीप मंडल ने अपने कमेन्ट डिलीट क्यों कर दिया?
       
        Anant Kumar Jha ‎Shailendra के इमोशन का असर है या Ajit Anjum के मामले में पड़ने के कारण ..
       
        Ajit Anjum अंबरीश जी , न चाहते हुए भी मैंने इतनी तल्ख और काफी हद तक व्यक्तिगत टिप्पणियां की हैं ...वो भी आपके वाल पर ...इसके लिए माफी चाहूंगा लेकिन ये जनाब पिछले तीन सालों से सरोकारी पत्रकारिता के चैंपियन बने थे और कभी सामने से तो कभी परदे के पीछे से छाया युद्ध लड़ रहे थे ......मेरा तो सिर्फ ये कहना है कि पहला पत्थर वो मारे जो पापी न हो .....ये नहीं हो सकता कि बेरोजगारी में क्रांतिकारी बन जाएं और जिस किस्म की पत्रकारिता के खिलाफ मुहिम चलाएं उसी में इंट्री के लिए जुगत लगाकर कुर्सी हासिल कर लें.....मुझे पता था कि दिलीप जी आज न कल यही करने वाले हैं .,...मोह भंग तो उनका हुआ होगा जो उन्हें महानता की तरफ अग्रसर एक नितांत सरोकारी पत्रकार मान रहे थे ....
       
        Praveen Kumar Jha aap bandhugan bura na mane parantu mujhe chinta ho rahi hai ...
       
        Sumant Bhattacharya अंबरीश भाई...जिन पत्रकार की बात चल रही है...उनसे पिछले दिनों फेसबुक मेरा एक ही निवेदन था...कृपया जातीय गौरव की बात करें..जातीय द्वेष नहीं....दूसरे इतिहास के स्थापित तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर और गलत तरीके से ना पेश करें...इतना करें तो पत्रकारिता नहीं मनुष्य जाति पर उपकार होगा....और ऐसा करते समय बाबा साहेब अंबेडकर की मेधा को लांघने की जुर्रत भी नहीं करेंगे...।।आमीन।।
       
        Ajit Anjum लगता है दिलीप जी चले गए ...लेकिन मेरे सवाल का जवाब नहीं मिला कि इंडिया टुडे हिन्दी में सेक्स सर्वे आएगा या दिलीप जी उस पर रोक लगा पाएंगे ...या फिर दिलीप जी कहेंगे कि इस तरह के सर्वे समाजिक उत्थान और सरोकारी पत्रकारिता के लिहाज से कितना जरुरी है ...मैं तो हिन्दी इंडिया टुडे पहले से देखता - पढ़ता और पलटता रहा हूं लेकिन दिलीप जी के संपादक बनने के बाद गौर से देखता हूं . वजह साफ है ...ये जानना चाहता हूं कि महानता की तरफ अग्रसर दिलीप जी जैसे लोगों के आने से कॉरपोरेट पत्रकारिता का शुद्धिकरण कैसे होता है ......उस दिन का भी इंतजार कर रहा हूं जब दिलीप भी फिर इस कॉरपोरेट पत्रकारिता के गटर से बाहर आकर सभा -सेमिनारों में अच्छी -अच्छी ...बड़ी - बड़ी बातें कहते नजर आएंगे .......
       
        Ambrish Kumar दिलीप मंडल का अपना कमेंट डिलीट करना बहुत अच्छा संकेत मै नहीं मानता उनसे मेरे भी बहुत मुद्दों पर मतभेद रहे है और वे मेरे अख़बार के भी सहयोगी रहे है .हमें लगता है दूसरों की बात सुनने की सहनशीलता भी जरुरी है दूसरे किसी को भी जो तर्कों पर चल रहा है बहस छोड़कर नहीं जाना चाहिए था मैंने पाहले ही एक टिपण्णी हटा दी थी और सवर्ण सामंती और जातिवादी धारा का खुद मै भी विरोधी हूँ .
       
        Praveen Kumar Jha swasthanam gachhami !
       
        Ajit Anjum दिलीप जी से दिव्य ज्ञान प्राप्त करके क्रांतिकारी बन गए कितने बच्चे उन्हें खोज रहे हैं और कह रहे हैं ..हे महाप्रभु, हमें क्रांतिकारिता का पाठ पढ़ाते - पढ़ाते और कहां समा गए ...हमें बीच मझधार में क्यों छोड़ गए ....लोग इंडिया टुडे के पन्ने पलटते हैं दिलीप मंडल फैक्टर की तलाश करते हैं तब उन्हें लगता है कि दिलीप जो कह रहे थे और जो कर रहे हैं , उसमें कितना फर्क है .....
     
        Sumant Bhattacharya मुझे लगता है कि बड़ा मुद्दा ये नहीं है कि हिंदी पत्रकारिता किधर जा रही है..भले बात टीवी की हो या फिर प्रिंट की। मुझे एक कमी बेहद खलती है कि भाषाई पत्रकारिता में, खासतौर पर में हिंदी पत्रकारिता में नीतियों की बेहद कम समझ है...या कहूं तो ना के बराबर। यदि आप पॉलिसी स्टोरी की बात करने वाले पत्रकार की बात करें तो शायद ही नाम गिनवा पाएं या स्टोरी का जिक्र कर पाएं। मुझे लगता है कि यही वजह की हिंदी पत्रकारिता अपनी जगह से आगे नहीं बढ़ पा रही है...और यही वह दिशा है जिस पर हिंदी पत्रकारिता को नई ज़मीन तलाशनी होगी, आज नहीं तो कल.....।।आमीन।।।

        Satyendra Pratap Singh बहुत बड़ी बात लिख दी आपने.

        Sumant Bhattacharya सत्येंद्र भाई..क्या कोई गुस्ताखी हो गई क्या..
 
        Ajit Anjum अंबरीश जी , दिलीप जी ने ये कहकर अपने कमेंट्स डिलीट किए कि वो पॉलिटिक्स नें नहीं हैं ...लेकिन मुझे लगता है कि पिछले तीन सालों से वो खालिस राजनीति कर रहे थे ...नेताओं की तरह अपनी constituency को address कर रहे थे ...इसका जो फल उन्हें मिलना था , वो उन्हें मिल गया . अब वो फलाहारी बाबा बन कर संपादक की कुर्सी की गरमाहट के मजे ले रहे हैं ...आपको और हमको क्या पता कि तीन सालों की चैंपियनशिप से उन्हें क्या - क्या मिल गया ....
   
        Satyendra Pratap Singh वाह... बहुत अच्छी बहस है. काश दिलीप जी का पक्ष रखने वाला भी कोई होता:)
   
        Satyendra Pratap Singh Sumant Bhattacharya जी, मै तो नीरा जी की बड़ी इज्जत करता हूँ:)
     
        Sumant Bhattacharya हर व्यक्ति को इस व्यवस्था में अपनी तरह से राह बनाने का हक है...बस तरीका या कदम संविधान विरोधी नहीं होना चाहिेए...जातीय गौरव की राजनीति करना संविधान सम्मत है और इसे व्यक्तिगत नहीं माना जा सकता। आदि इतिहास में इसके बीज हैं और साथ खड़ा है एक मजबूत नैतिक आधार...।एतराज वहीं पर हो सकता है जब बात सूक्ष्म आरक्षण की की जाए और संविधान और लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के विरुद्ध हों...दिलीप मंडल ने यदि ऐसा करके अपनी जगह बनाई है तो सिर्फ जातीय द्वेष पर उसका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। प्रतिवाद और विरोध के ऐसे आधार वगैर शक संविधान और लोकतंत्र की मर्यादा के खिलाफ हैं।।।।आमीन।।।
     
        Ajit Anjum दिलीप जी , अब इंडिया टुडे की नौकरी करते हुए इस बहस में हिस्सा नहीं ले सकते क्योंकि उनके लिखे हजारो शब्द ही उनकी कथनी और करनी के फर्क की चुगली कर देंगे ....अब या तो वो एम जे अकबर और अरुण पुरी पर दबाव बनाकर इंडिया टुडे को बदल दें या फिर जैसा चल रहा है , उसमें चलते हुए मोटी तनख्वाह पर मौज करते रहें ...
     
        Satyendra Pratap Singh ‎#नीरा राडिया.
       
        Satyendra Pratap Singh पहले कोई "योग्य " व्यक्ति प्रधानमंत्री बने, फिर सब योग्य हो जाएँ!
       
        Satyendra Pratap Singh वर्ग संघर्ष... हमेशा चलता रहता है.
       
        Ajit Anjum दिलीप जी , अब बुर्जुआ हो गए हैं ...
       
        Satyendra Pratap Singh मुझे तो अरुंधती याद आ रही हैं. उनमे हमेशा "निम्न मध्य वर्ग" जिंदा रहेगा, भले ही किसी स्तर पर समझौता कर जिंदगी काटनी पड़े! वो भारत में हमेशा सर्वहारा रहेंगे!
   
        Satyendra Pratap Singh चार पैसे में क्रांति तहखाने में चली जाती है, ये तो सर्वहारा का हमेशा से संकट रहा है:)
     
        Sumant Bhattacharya Satyendra Pratap Singh ,भाई, लेकिन नीरा के बारे में तो मैंने कुछ भी नहीं लिखा
     
        Akhilesh Pratap Singh Dilip Mandal जी पत्रकारिता जगत में कॉरपोरेट की निर्लज्ज घुसपैठ को गरियाते रहे और फिर एक ऐसी मैगजीन में चले गए जो तकरीबन उन्हीं उसूलों पर चलती है, जिनकी मुखालफत दिलीप जी करते रहे हैं. . ..... तो मान लिया जाए कि एक आदमी जो कबीर बन सकता था, आखिरकार बिहारियों की जमात में चला गया..... . . लेकिन ऐसा कहते हुए उन पर भी नजर डालें जो तमाम मजबूरियों के चलते ही सही पहले ही बिहारियों की जमात में तो हैं, लेकिन जिन्हें अपनी हालत से कोई शिकायत भी नहीं है. ..... . मुझे नहीं मालूम दिलीप जी ने अपने कमेंट्‌स किस वजह से हटाए हैं, वह ऐसा नहीं करते तो अच्छा लगता. . .
     
        Tahira Hasan Ambrish ji don,t you think print and electronic media is now controls by corporate even journalists also so naturally do not expect any ethics from them they are following shamelessly corporate loot sell every thing for profit.......virtual world is constructed in media and that has become more real than the real world
       
        Sumant Bhattacharya फ्रांसिसी क्रांति का एक नायक हुआ है मिराबो...जो आखिर तक कहता रहा कि मेरे व्यक्तिगत और निजी जीवन से क्रांति को क्या मतलब....मैं जो व्यवस्था के बारे में कह रहा हूं...उसके निहितार्थ को समझो...लेकिन प्रति क्रांतिकारियों ने मिराबो को गिलोटिन पर चढ़ा दिया। लेकिन उसके निहितार्थ बाद में लोकतंत्र के आधार बने और उसके कई निहितार्थ भारतीय संविधान में भी निहित हैं..., जरूरी नहीं कि व्यवस्था से भिड़ने वाले को रास्ते में उतरना ही हो...यदि ऐसा है तो गांधी को एक बार नहीं,,,सैकड़ों बार खारिज करना होगा....ये सारी बातें मित्र दिलीप मंडल पर लगाए जा रहे एकतरफा आक्षेपों पर कह रहा हूं...सविनम्रता और शालीनता के साथ...।।आमीन।।
       
        Satyendra Pratap Singh Sumant Bhattacharya भाई, अब सोने निकलता हूँ, नहीं तो तमाम लोग मुझे फेसबुक फ्रेंड लिस्ट में से भी निकाल देंगे. बड़े लोगों की बात में नाहक नाक नहीं घुसेड़नी चाहिए:) शुभरात्रि.
       
        Ajit Anjum अंबरीश जी , अब आप चाहें तो मेरे कमेंट्स को भी डिलीट कर सकते हैं क्योंकि नक्कारखाने में तूती की आवाज का कोई फायदा नहीं .....या कहें तो मैं डिलीट कर दूं
       
        Sumant Bhattacharya अंबरीश भाई...आप एक बहुत कुशल कैंपेन मैनेजर के साथ, इस कला के भी कुशल खिलाड़ी हैं कि कैसे मुद्दा उछाला जाता है...बहस गरमाई जाती है और फिर खुद कोने में बैठकर मजा लिया जाता है। आज काफी दिनों बाद आपकी यही अदा एक बार फिर देख रहा हूं...मुबारक हो।।।आमीन।।
       
        Satyendra Pratap Singh Ajit Anjum बॉस, अम्बरीश जी ऐसे नहीं हैं. वो दुर्लभ/विलुप्तप्राय लोगों में से हैं, जो सब कुछ सुनने और उस पर विचार करने के आदी हैं:)
       
        Ajit Anjum सत्येन्द्र जी , मैं अंबरीश जी को कम से कम 22 सालों से जानता हूं और बेहद करीब से ...कई सालों तक हम पड़ोसी भी रहे हैं ....
       
        Satyendra Pratap Singh Ajit Anjum बॉस. मै बहुत कम सालों से जानता हूँ, लेकिन दावा ये है कि मेरी भी समझ कमजोर नहीं है, जिसके चलते मैंने ऐसा लिख मारा. हो सकता है कि गलत होऊं. अगर गलत होऊंगा तो ये गाकर काम चला लूँगा कि एक चहरे में कई चेहरे छुपा लेते हैं लोग:)
       
        Ajit Anjum अब आप पूरी तरह से सही हैं ...............और बॉस नहीं कहेंगे तो भी काम चल जाएगा......
       
        Rajendra Tiwari दिलीप जी पहले राघव बहल के सीएनबीसी में भी रह चुके हैं दलाल स्ट्रीट की महानता बखारते हुए, इस बात को मत भूलिये अजीत जी, जब भी रही भावना जैसी, दिलीप जी ने प्रभु मूर्ति देखी तब तैसी!!!
       
        Sumant Bhattacharya आखिर में एक बात...मीडिया इंडस्ट्री में यदि कोई पत्रकार खुद को सार्थवाह होने का मुगालता पाले हुए है तो पाले रहे। मैं तो एक ही रिश्ता मानता हूं..नौकर और मालिक का। जिसके पास पूंजी है वो मालिक है और जो महीने की दिहाड़ी पर है वो सिर्फ नौकर है। ये दीगर है कि कितने पत्रकार इस फख्र से नौकरी करते हैं कि यदि मालिक को अपनी पूंजी पर गुमान है तो हम नौकरों को अपनी मेहनत औ मेधा का गुरूर है।।।आमीन ।।
       
        Ajit Anjum राजेन्द्र जी , सही कह रहे हैं आफ
       
        Satyendra Pratap Singh Ajit Anjum बॉस, आपकी दाढ़ी सफ़ेद हो गई है और मेरी अभी नहीं :)
       
        Satyendra Pratap Singh Rajendra Tiwari जी, अजीत अंजुम जी ने पहले भी कई बहसों में तमाम सवाल उठाए हैं दिलीप जी की बहसों पर. अंतर सिर्फ इतना है कि अब दिलीप जी जवाब नहीं देते. शायद तब भी नहीं देते थे. कुछ ऐसे सवाल होते हैं, जिनका मास में जवाब देना संभव नहीं होता होगा. सब कारोबार का मामला है और मजदूर की एक सीमा होती है :(
       
        Dilip C Mandal ओह, आप लोग अभी भी वहीं खड़े हैं........ Anant Kumar Jhaजी, Shailendra Jha जी, Praveen Kumar Jha जी, Sumant Bhattacharya जी, Rajendra Tiwari जी, Ajit Anjum जी, Satyendra Pratap Singhजी, और भी तमाम माननीय लोगों.... आप सब का आभार, आप लोगों ने इतनी अच्छी-अच्छी बातें कीं. अंबरीश जी, माफी चाहूंगा. मैं इस सुख के संसार में व्यवधान डालने की मंशा नहीं रखता. अपने कमेंट इसीलिए हटाए थे.
       
        Harishankar Shahi यहाँ बहुत बड़े लोगों के बीच हम तो एकदम नाबालिक हैं और नाबलिकों के गुनाह भी कम होते हैं तो हम कहना चाहेंगे कि जितने भी बड़े धड़े हैं यहाँ उन्होंने कभी किसी को भी मौका दिया है कि वह पत्रकारिता में आगे आये वह भी बिना "अपनी तरह" से ठोक बजाकर देखने के, यह ठोक बजाना भी पत्रकारिता से अलग होता है यह कई जगह दिखा. कम से कम हमारे अपने अनुभव यही हैं, यह भी तो क्रांतिकारिता ही है जहाँ किसी को "जाति औरजेब में पाती" नहीं उसके काम के आधार पर मौका मिलता हो. खैर बड़े लोग तो बड़े हैं इनकी बहस में नहीं पड़ना चाहिए, बड़ों की संख्या ज्यादा है. अब "जाति में जाति" का कोटा बनाने भी बहुत है.
       
        Ambrish Kumar सुखी संसार में जमकर व्यवधान डाल सकते है ,सामाजिक बदलाव की ताकतों का विपरीत परिस्थितियों में हम लोगों ने भी साथ दिया है .पत्रकारिता में बहुत से ऐसे लोग ही जिन्होंने समाज में तनकर खड़े होने का साहस भी दिखाया है चाहिए मंडल का आंदोलन हो या मंदिर का .हर पत्रकार 'कारसेवक 'नहीं बन गया था .
       
        Ambrish Kumar भाई लोगो वह कमेन्ट ही डीलिट किया था जिसमे जानवरों से तुलना करने का प्रयास किया गया था शब्दों की कमी तो है नहीं फिर जंगल क्यों जा रहे है .अजीत जी जबरन कोई कमेन्ट क्यों डीलिट करा जाएगा बहस है तो ठीक से चले और जातीय श्रेष्ठता का आभास न हो .
       
        Satyendra Pratap Singh Dilip C Mandal बॉस, मेरे साथ तो बड़ा अत्याचार हुआ. आपके कमेन्ट पढ़ ही नहीं पाया :(
       
        Rishi Kumar Singh अजीत जी@ पत्रकारिता पर खुली बहस करते हैं। एक बार आईआईएससी में सुनने का मौका मिला था। पत्रकारिता के ताने-बाने में गलत-सही पर बात चल रही थी। हालांकि उनके पूरे व्याख्यान से माफी मांगने के शब्द ज्यादा समझ में आये थे। मुझे लगा कि जैसे वे कह रहे हों कि - मेरा जो तरीका है,बेशक गलत है। लेकिन यहां सब मैनेज करना (साधना) पड़ता है। ......चूंकि अंजुम जी स्वीकार करके शामिल हैं और दिलीप जी विरोध करके....इसीलिए नूराकुश्ती का आयोजन है।

Tuesday, February 21, 2012

आखिर सोनिया हैं कौन?

(ये लेख सबकी खबर डॉट कॉम से लिया गया है.)
"आप सोनिया को कितना जानते हैं", अंग्रेजी में इसके मूल लेखक हैं एस.गुरुमूर्ति और यह लेख दिनांक १७ अप्रैल २००४ को "द न्यू इंडियन एक्सप्रेस" में - अनमास्किंग सोनिया गाँधी- शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। 
" भारत की खुफ़िया एजेंसी "रॉ", जिसका गठन सन १९६८ में हुआ, ने विभिन्न देशों की गुप्तचर एजेंसियों जैसे अमेरिका की सीआईए, रूस की केजीबी, इसराईल की मोस्साद और फ़्रांस तथा जर्मनी में अपने पेशेगत संपर्क बढाये और एक नेटवर्क खडा़ किया। इन खुफ़िया एजेंसियों के अपने-अपने सूत्र थे और वे आतंकवाद, घुसपैठ और चीन के खतरे के बारे में सूचनायें आदान-प्रदान करने में सक्षम थीं । लेकिन "रॉ" ने इटली की खुफ़िया एजेंसियों से इस प्रकार का कोई सहयोग या गठजोड़ नहीं किया था, क्योंकि "रॉ" के वरिष्ठ जासूसों का मानना था कि इटालियन खुफ़िया एजेंसियाँ भरोसे के काबिल नहीं हैं और उनकी सूचनायें देने की क्षमता पर भी उन्हें संदेह था। 
 सक्रिय राजनीति में राजीव गाँधी का प्रवेश हुआ १९८० में संजय की मौत के बाद । "रॉ" की नियमित "ब्रीफ़िंग" में राजीव गाँधी भी भाग लेने लगे थे ("ब्रीफ़िंग" कहते हैं उस संक्षिप्त बैठक को जिसमें रॉ या सीबीआई या पुलिस या कोई और सरकारी संस्था प्रधानमन्त्री या गृहमंत्री को अपनी रिपोर्ट देती है), जबकि राजीव गाँधी सरकार में किसी पद पर नहीं थे, तब वे सिर्फ़ काँग्रेस महासचिव थे । राजीव गाँधी चाहते थे कि अरुण नेहरू और अरुण सिंह भी रॉ की इन बैठकों में शामिल हों । रॉ के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने दबी जुबान में इस बात का विरोध किया था चूँकि राजीव गाँधी किसी अधिकृत पद पर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गाँधी ने रॉ से उन्हें इसकी अनुमति देने को कह दिया था, फ़िर भी रॉ ने इंदिरा जी को स्पष्ट कर दिया था कि इन लोगों के नाम इस ब्रीफ़िंग के रिकॉर्ड में नहीं आएंगे । उन बैठकों के दौरान राजीव गाँधी सतत रॉ पर दबाव डालते रहते कि वे इटालियन खुफ़िया एजेंसियों से भी गठजोड़ करें, राजीव गाँधी ऐसा क्यों चाहते थे ? या क्या वे इतने अनुभवी थे कि उन्हें इटालियन एजेंसियों के महत्व का पता भी चल गया था ? ऐसा कुछ नहीं था, इसके पीछे एकमात्र कारण थी सोनिया। राजीव गाँधी ने सोनिया से सन १९६८ में विवाह किया था, और हालांकि रॉ मानती थी कि इटली की एजेंसी से गठजोड़ सिवाय पैसे और समय की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है, राजीव लगातार दबाव बनाये रहे। अन्ततः दस वर्षों से भी अधिक समय के पश्चात रॉ ने इटली की खुफ़िया संस्था से गठजोड़ कर लिया। क्या आप जानते हैं कि रॉ और इटली के जासूसों की पहली आधिकारिक मीटिंग की व्यवस्था किसने की ? जी हाँ, सोनिया ने। सीधी सी बात यह है कि वह इटली के जासूसों के निरन्तर सम्पर्क में थीं। एक मासूम गृहिणी, जो राजनैतिक और प्रशासनिक मामलों से अलिप्त हो और उसके इटालियन खुफ़िया एजेन्सियों के गहरे सम्बन्ध हों यह सोचने वाली बात है, वह भी तब जबकि उन्होंने भारत की नागरिकता नहीं ली थी (वह उन्होंने बहुत बाद में ली)। प्रधानमंत्री के घर में रहते हुए, जबकि उस समय राजीव खुद सरकार में नहीं थे। हो सकता है कि रॉ इसी कारण से इटली की खुफ़िया एजेंसी से गठजोड़ करने में कतरा रहा हो, क्योंकि ऐसे किसी भी सहयोग के बाद उन जासूसों की पहुँच सिर्फ़ रॉ तक न रहकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक हो सकती थी । 
जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तब सुरक्षा अधिकारियों ने इंदिरा गाँधी को बुलेटप्रूफ़ कार में चलने की सलाह दी, इंदिरा गाँधी ने अम्बेसेडर कारों को बुलेटप्रूफ़ बनवाने के लिये कहा, उस वक्त भारत में बुलेटप्रूफ़ कारें नहीं बनती थीं इसलिये एक जर्मन कम्पनी को कारों को बुलेटप्रूफ़ बनाने का ठेका दिया गया। जानना चाहते हैं उस ठेके का बिचौलिया कौन था, वाल्टर विंसी, सोनिया की बहन अनुष्का का पति ! रॉ को हमेशा यह शक था कि उसे इसमें कमीशन मिला था, लेकिन कमीशन से भी गंभीर बात यह थी कि इतना महत्वपूर्ण सुरक्षा सम्बन्धी कार्य उसके मार्फ़त दिया गया। इटली का प्रभाव सोनिया दिल्ली तक लाने में कामयाब रही थीं, जबकि इंदिरा गाँधी जीवित थीं। दो साल बाद १९८६ में ये वही वाल्टर विंसी महाशय थे जिन्हें एसपीजी को इटालियन सुरक्षा एजेंसियों द्वारा प्रशिक्षण दिये जाने का ठेका मिला, और आश्चर्य की बात यह कि इस सौदे के लिये उन्होंने नगद भुगतान की मांग की और वह सरकारी तौर पर किया भी गया। यह नगद भुगतान पहले एक रॉ अधिकारी के हाथों जिनेवा (स्विटजरलैण्ड) पहुँचाया गया लेकिन वाल्टर विंसी ने जिनेवा में पैसा लेने से मना कर दिया और रॉ के अधिकारी से कहा कि वह ये पैसा मिलान (इटली) में चाहता है, विंसी ने उस अधिकारी को कहा कि वह स्विस और इटली के कस्टम से उन्हें आराम से निकलवा देगा और यह "कैश" चेक नहीं किया जायेगा । रॉ के उस अधिकारी ने उसकी बात नहीं मानी और अंततः वह भुगतान इटली में भारतीय दूतावास के जरिये किया गया। इस नगद भुगतान के बारे में तत्कालीन कैबिनेट सचिव बीजी. देशमुख ने अपनी हालिया किताब में उल्लेख किया है, हालांकि वह तथाकथित ट्रेनिंग घोर असफ़ल रही और सारा पैसा लगभग व्यर्थ चला गया। इटली के जो सुरक्षा अधिकारी भारतीय एसपीजी कमांडो को प्रशिक्षण देने आये थे उनका रवैया जवानों के प्रति बेहद रूखा था, एक जवान को तो उस दौरान थप्पड़ भी मारा गया। रॉ अधिकारियों ने यह बात राजीव गाँधी को बताई और कहा कि इस व्यवहार से सुरक्षा बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और उनकी खुद की सुरक्षा व्यवस्था भी ऐसे में खतरे में पड़ सकती है, घबराये हुए राजीव ने तत्काल वह ट्रेनिंग रुकवा दी, लेकिन वह ट्रेनिंग का ठेका लेने वाले विंसी को तब तक भुगतान किया जा चुका था। 
राजीव गाँधी की हत्या के बाद तो सोनिया पूरी तरह से इटालियन और पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों पर भरोसा करने लगीं, खासकर उस वक्त जब राहुल और प्रियंका यूरोप घूमने जाते थे। सन १९८५ में जब राजीव सपरिवार फ़्रांस गये थे तब रॉ का एक अधिकारी जो फ़्रेंच बोलना जानता था, उनके साथ भेजा गया था, ताकि फ़्रेंच सुरक्षा अधिकारियों से तालमेल बनाया जा सके। लियोन (फ़्रांस) में उस वक्त एसपीजी अधिकारियों में हड़कम्प मच गया जब पता चला कि राहुल और प्रियंका गुम हो गये हैं। भारतीय सुरक्षा अधिकारियों को विंसी ने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है, दोनों बच्चे जोस वाल्डेमारो के साथ हैं जो कि सोनिया की एक और बहन नादिया के पति हैं। विंसी ने उन्हें यह भी कहा कि वे वाल्डेमारो के साथ स्पेन चले जायेंगे जहाँ स्पेनिश अधिकारी उनकी सुरक्षा संभाल लेंगे। भारतीय सुरक्षा अधिकारी यह जानकर अचंभित रह गये कि न केवल स्पेनिश बल्कि इटालियन सुरक्षा अधिकारी उनके स्पेन जाने के कार्यक्रम के बारे में जानते थे। जाहिर है कि एक तो सोनिया तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के अहसानों के तले दबना नहीं चाहती थीं, और वे भारतीय सुरक्षा एजेंसियों पर विश्वास नहीं करती थीं। इसका एक और सबूत इससे भी मिलता है कि एक बार सन १९८६ में जिनेवा स्थित रॉ के अधिकारी को वहाँ के पुलिस कमिश्नर जैक कुन्जी़ ने बताया कि जिनेवा से दो वीआईपी बच्चे इटली सुरक्षित पहुँच चुके हैं, खिसियाये हुए रॉ अधिकारी को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं था। जिनेवा का पुलिस कमिश्नर उस रॉ अधिकारी का मित्र था, लेकिन यह अलग से बताने की जरूरत नहीं थी कि वे वीआईपी बच्चे कौन थे। वे कार से वाल्टर विंसी के साथ जिनेवा आये थे और स्विस पुलिस तथा इटालियन अधिकारी निरन्तर सम्पर्क में थे जबकि रॉ अधिकारी को सिरे से कोई सूचना ही नहीं थी, है ना हास्यास्पद लेकिन चिंताजनक... उस स्विस पुलिस कमिश्नर ने ताना मारते हुए कहा कि "तुम्हारे प्रधानमंत्री की पत्नी तुम पर विश्वास नहीं करती और उनके बच्चों की सुरक्षा के लिये इटालियन एजेंसी से सहयोग करती है"। बुरी तरह से अपमानित रॉ के अधिकारी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इसकी शिकायत की, लेकिन कुछ नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय खुफ़िया एजेंसियों के गुट में तेजी से यह बात फ़ैल गई थी कि सोनिया भारतीय अधिकारियों, भारतीय सुरक्षा और भारतीय दूतावासों पर बिलकुल भरोसा नहीं करती हैं, और यह निश्चित ही भारत की छवि खराब करने वाली बात थी। राजीव की हत्या के बाद तो उनके विदेश प्रवास के बारे में विदेशी सुरक्षा एजेंसियाँ, एसपीजी से अधिक सूचनायें पा जाती थी और भारतीय पुलिस और रॉ उनका मुँह देखते रहते थे। 
(ओट्टावियो क्वात्रोची के बार-बार मक्खन की तरह हाथ से फ़िसल जाने का कारण समझ में आया ?) उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज सीधे पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों के सम्पर्क में रहते थे, रॉ अधिकारियों ने इसकी शिकायत नरसिम्हा राव से की थी, लेकिन जैसी की उनकी आदत(?) थी वे मौन साध कर बैठ गये। 
संक्षेप में तात्पर्य यह कि, जब एक गृहिणी होते हुए भी वे गंभीर सुरक्षा मामलों में अपने परिवार वालों को ठेका दिलवा सकती हैं, राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के जीवित रहते रॉ को इटालियन जासूसों से सहयोग करने को कह सकती हैं, सत्ता में ना रहते हुए भी भारतीय सुरक्षा अधिकारियों पर अविश्वास दिखा सकती हैं, तो अब जबकि सारी सत्ता और ताकत उनके हाथों में है, वे क्या-क्या कर सकती हैं, बल्कि क्या नहीं कर सकती। हालांकि "मैं भारत की बहू हूँ" और "मेरे खून की अंतिम बूँद भी भारत के काम आयेगी" आदि वे यदा-कदा बोलती रहती हैं, लेकिन यह असली सोनिया नहीं है । समूचा पश्चिमी जगत, जो कि जरूरी नहीं कि भारत का मित्र ही हो, उनके बारे में सब कुछ जानता है, लेकिन हम भारतीय लोग सोनिया के बारे में कितना जानते हैं ? (भारत भूमि पर जन्म लेने वाला व्यक्ति चाहे कितने ही वर्ष विदेश में रह ले, स्थाई तौर पर बस जाये लेकिन उसका दिल हमेशा भारत के लिये धड़कता है, और इटली में जन्म लेने वाले व्यक्ति का....)
सोनिया भारत की प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं या नहीं, इस प्रश्न का "धर्मनिरपेक्षता", या "हिन्दू राष्ट्रवाद" या "भारत की बहुलवादी संस्कृति" से कोई लेना-देना नहीं है। इसका पूरी तरह से नाता इस बात से है कि उनका जन्म इटली में हुआ, लेकिन यही एक बात नहीं है, सबसे पहली बात तो यह कि देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन कराने के लिये कैसे उन पर भरोसा किया जाये। सन १९९८ में एक रैली में उन्होंने कहा था कि "अपनी आखिरी साँस तक मैं भारतीय हूँ", बहुत ही उच्च विचार है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह बेहद खोखला ठहरता है। अब चूँकि वे देश के एक खास परिवार से हैं और प्रधानमंत्री पद के लिये बेहद आतुर हैं (जी हाँ) तब वे एक सामाजिक व्यक्तित्व बन जाती हैं और उनके बारे में जानने का हक सभी को है (१४ मई २००४ तक वे प्रधानमंत्री बनने के लिये जी-तोड़ कोशिश करती रहीं, यहाँ तक कि एक बार तो पूर्ण समर्थन ना होने के बावजूद वे दावा पेश करने चल पडी़ थीं, लेकिन १४ मई २००४ को राष्ट्रपति कलाम साहब द्वारा कुछ "असुविधाजनक" प्रश्न पूछ लिये जाने के बाद यकायक १७ मई आते-आते उनमें वैराग्य भावना जागृत हो गई और वे खामख्वाह "त्याग" और "बलिदान" (?) की प्रतिमूर्ति बना दी गईं - कलाम साहब को दूसरा कार्यकाल न मिलने के पीछे यह एक बडी़ वजह है, ठीक वैसे ही जैसे सोनिया ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति इसलिए नहीं बनवाया, क्योंकि इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद राजीव के प्रधानमंत्री बनने का उन्होंने विरोध किया था... और अब एक तरफ़ कठपुतली प्रधानमंत्री और जी-हुजूर राष्ट्रपति दूसरी तरफ़ होने के बाद सोनिया को प्रधानमंत्री बनने की क्‍या जरूरत रह जाती है। बहरहाल... सोनिया उर्फ़ माइनो भले ही आखिरी साँस तक भारतीय होने का दावा करती रहें, भारत की भोली-भाली (?) जनता को इन्दिरा स्टाइल में, सिर पर पल्ला ओढ़ कर "नामास्खार" आदि दो चार हिन्दी शब्द बोल लें, लेकिन यह सच्चाई है कि सन १९८४ तक उन्होंने इटली की नागरिकता और पासपोर्ट नहीं छोडा़ था (शायद कभी जरूरत पड़ जाये) । राजीव और सोनिया का विवाह हुआ था सन १९६८ में, भारत के नागरिकता कानूनों के मुताबिक (जो कानून भाजपा या कम्युनिस्टों ने नहीं बल्कि कांग्रेसियों ने ही सन १९५० में बनाये) सोनिया को पाँच वर्ष के भीतर भारत की नागरिकता ग्रहण कर लेना चाहिये था अर्थात सन १९७४ तक, लेकिन यह काम उन्होंने किया दस साल बाद...यह कोई नजरअंदाज कर दिए जाने वाली बात नहीं है। इन पन्द्रह वर्षों में दो मौके ऐसे आये जब सोनिया अपने आप को भारतीय(!) साबित कर सकती थीं। पहला मौका आया था सन १९७१ में जब पाकिस्तान से युद्ध हुआ (बांग्लादेश को तभी मुक्त करवाया गया था), उस वक्त आपातकालीन आदेशों के तहत इंडियन एयरलाइंस के सभी पायलटों की छुट्टियाँ रद कर दी गईं थीं, ताकि आवश्यकता पड़ने पर सेना को किसी भी तरह की रसद आदि पहुँचाई जा सके। सिर्फ़ एक पायलट को इससे छूट दी गई थी, जी हाँ राजीव गाँधी, जो उस वक्त भी एक पूर्णकालिक पायलट थे। जब सारे भारतीय पायलट अपनी मातृभूमि की सेवा में लगे थे, तब सोनिया अपने पति और दोनों बच्चों के साथ इटली की सुरम्य वादियों में थीं, वे वहाँ से तभी लौटीं, जब जनरल नियाजी ने समर्पण के कागजों पर दस्तखत कर दिये। दूसरा मौका आया सन १९७७ में जब यह खबर आई कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार गईं हैं और शायद जनता पार्टी सरकार उनको गिरफ़्तार करे और उन्हें परेशान करे। "माईनो" मैडम ने तत्काल अपना सामान बाँधा और अपने दोनों बच्चों सहित दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित इटालियन दूतावास में जा छिपीं। इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी और एक और बहू मेनका के संयुक्त प्रयासों और मान-मनौव्वल के बाद वे घर वापस लौटीं। १९८४ में भी भारतीय नागरिकता ग्रहण करना उनकी मजबूरी इसलिये थी कि राजीव गाँधी के लिये यह बडी़ शर्म और असुविधा की स्थिति होती कि एक भारतीय प्रधानमंत्री की पत्नी इटली की नागरिक है ? भारत की नागरिकता लेने की तिथि भारतीय जनता से बडी़ ही सफ़ाई से छिपाई गई। भारत का कानून अमेरिका, जर्मनी, फ़िनलैंड, थाईलैंड या सिंगापुर आदि देशों जैसा नहीं है जिसमें वहाँ पैदा हुआ व्यक्ति ही उच्च पदों पर बैठ सकता है। भारत के संविधान में यह प्रावधान इसलिये नहीं है कि इसे बनाने वाले "धर्मनिरपेक्ष नेताओं" ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आजादी के साठ वर्ष के भीतर ही कोई विदेशी मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जायेगा। लेकिन कलाम साहब ने आसानी से धोखा नहीं खाया और उनसे सवाल कर लिये (प्रतिभा ताई कितने सवाल कर पाती हैं यह देखना बाकी है)। संविधान के मुताबिक सोनिया प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन सकती हैं, जैसे कि मैं या कोई और। लेकिन भारत के नागरिकता कानून के मुताबिक व्यक्ति तीन तरीकों से भारत का नागरिक हो सकता है, पहला जन्म से, दूसरा रजिस्ट्रेशन से, और तीसरा प्राकृतिक कारणों (भारतीय से विवाह के बाद पाँच वर्ष तक लगातार भारत में रहने पर) । इस प्रकार मैं और सोनिया गाँधी,दोनों भारतीय नागरिक हैं, लेकिन मैं जन्म से भारत का नागरिक हूँ और मुझसे यह कोई नहीं छीन सकता, जबकि सोनिया के मामले में उनका रजिस्ट्रेशन रद्द किया जा सकता है। वे भले ही लाख दावा करें कि वे भारतीय बहू हैं, लेकिन उनका नागरिकता रजिस्ट्रेशन भारत के नागरिकता कानून की धारा १० के तहत तीन उपधाराओं के कारण रद किया जा सकता है (अ) उन्होंने नागरिकता का रजिस्ट्रेशन धोखाधडी़ या कोई तथ्य छुपाकर हासिल किया हो, (ब) वह नागरिक भारत के संविधान के प्रति बेईमान हो, या (स) रजिस्टर्ड नागरिक युद्धकाल के दौरान दुश्मन देश के साथ किसी भी प्रकार के सम्पर्क में रहा हो । (इन मुद्दों पर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी काफ़ी काम कर चुके हैं और अपनी पुस्तक में उन्होंने इसका उल्लेख भी किया है)। 
राष्ट्रपति कलाम साहब के दिमाग में एक और बात निश्चित ही चल रही होगी, वह यह कि इटली के कानूनों के मुताबिक वहाँ का कोई भी नागरिक दोहरी नागरिकता रख सकता है, भारत के कानून में ऐसा नहीं है, और अब तक यह बात सार्वजनिक नहीं हुई है कि सोनिया ने अपना इटली वाला पासपोर्ट और नागरिकता कब छोडी़ ? ऐसे में वह भारत की प्रधानमंत्री बनने के साथ-साथ इटली की भी प्रधानमंत्री बनने की दावेदार हो सकती हैं। अन्त में एक और मुद्दा, अमेरिका के संविधान के अनुसार सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति को अंग्रेजी आना चाहिये, अमेरिका के प्रति वफ़ादार हो तथा अमेरिकी संविधान और शासन व्यवस्था का जानकार हो। भारत का संविधान भी लगभग मिलता-जुलता ही है, लेकिन सोनिया किसी भी भारतीय भाषा में निपुण नहीं हैं (अंग्रेजी में भी), उनकी भारत के प्रति वफ़ादारी भी मात्र बाईस-तेईस साल पुरानी ही है, और उन्हें भारतीय संविधान और इतिहास की कितनी जानकारी है यह तो सभी जानते हैं। जब कोई नया प्रधानमंत्री बनता है तो भारत सरकार का पत्र सूचना ब्यूरो (पीआईबी) उनका बायो-डाटा और अन्य जानकारियाँ एक पैम्फ़लेट में जारी करता है। आज तक उस पैम्फ़लेट को किसी ने भी ध्यान से नहीं पढा़, क्योंकि जो भी प्रधानमंत्री बना उसके बारे में जनता, प्रेस और यहाँ तक कि छुटभैये नेता तक नख-शिख जानते हैं। यदि (भगवान न करे) सोनिया प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुईं तो पीआईबी के उस विस्तृत पैम्फ़लेट को पढ़ना बेहद दिलचस्प होगा। आखिर भारतीयों को यह जानना ही होगा कि सोनिया का जन्म दरअसल कहाँ हुआ? उनके माता-पिता का नाम क्या है और उनका इतिहास क्या है? वे किस स्कूल में पढीं? किस भाषा में वे अपने को सहज पाती हैं? उनका मनपसन्द खाना कौन सा है? हिन्दी फ़िल्मों का कौन सा गायक उन्हें अच्छा लगता है? किस भारतीय कवि की कवितायें उन्हें लुभाती हैं? क्या भारत के प्रधानमंत्री के बारे में इतना भी नहीं जानना चाहिये! 
(प्रस्तुत लेख सुश्री कंचन गुप्ता द्वारा दिनांक २३ अप्रैल १९९९ को रेडिफ़.कॉम पर लिखा गया है) मित्रों जनजागरण का यह महाअभियान जारी रहे, अंग्रेजी में लिखा हुआ अधिकतर आम लोगों ने नहीं पढा़ होगा इसलिये सभी का यह कर्तव्य बनता है कि महाजाल पर स्थित यह सामग्री हिन्दी पाठकों को भी सुलभ हो !

Wednesday, February 15, 2012

इस की खूबसूरती पर मर-मिटते थे हजारों जिंदगियां!

आम्रपाली

अपने सौंदर्य की ताकत से कई साम्राज्य को मिटा देने वाली आम्रपाली के रूप की चर्चा जगत प्रसिद्ध है। उस समय उसकी एक झलक पाने के लिए सुदूर देशों के अनेक राजकुमार उसके महल के चारों ओर अपनी छावनी डाले रहते थे। आम्रपाली नगरवधु थी। इसे गणिका भी कहा जाता था। उस समय गणिका का मुख्य काम होता था गणों का मनोरंजन करना उन्हें सुख पहुंचाना। इसलिए आम्रपाली को नर्तकी और वेश्या दोनों ही रूपों में याद किया जाता है।

अपने जमाने में मशहूर वैशाली की नगरवधू दो प्रसिद्ध गणिकाएं थीं। आम्रपाली औऱ वसंतसेना। आम्रपाली वैशाली की और बसंतसेना उज्जैन की थी। तब उपयोग इनका जासूसी कार्यों में भी किया जाता था। जब जासूसी करती थीं तो विषकन्याएं कहलाई जाती थीं। ये दो तरह के जासूसी कार्यों में प्रयुक्त की जाती थीं। स्थिर औऱ संचारक यानि एक जगह रहकर जासूसी करने वाली औऱ घूमघूमकर जासूसी करने वाली।

वैशाली का जन्म करीब 25 सौ वर्ष पूर्व आम्रकुंज में हुआ था। वह महनामन नामक एक सामंत को मिली थी। सामंत राजसेवा से त्याग पत्र देकर आम्रपाली को पुरातात्विक वैशाली के निकट अंबारा गांव चला आया। जब आम्रपाली की उम्र करीब 11 वर्ष हुई तो सामंत उसे लेकर फिर वैशाली लौट आया।

चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग द्वारा लिखित दस्तावेजों के मुताबिक, आम्रपाली सौंदर्य की मूर्ति थी। वैशाली गणतंत्र के कानून के अनुसार हजारों सुंदरियों में आम्रपाली का चुनाव कर उसे सर्वश्रेष्ठ सुंदरी घोषित कर जनपद कल्याणी की पदवी दी गई थी।

आम्रपाली को देखकर बुद्ध को अपने शिष्यों से कहना पड़ा कि तुम लोग अपनी आँखें बंद कर लो। वह जानते थे कि आम्रपाली के सौंदर्य को देखकर उनके शिष्यों के लिए संतुलन रखना कठिन हो जाएगा।

पहली मुलाकात में दिल दे बैठा शहंशाह

मगध सम्राट बिंबसार ने आम्रपाली को पाने के लिए वैशाली पर जब आक्रमण किया तब संयोगवश उसकी पहली मुलाकात आम्रपाली से ही हुई। आम्रपाली के रूप-सौंदर्य पर मुग्ध होकर बिंबसार पहली ही नजर में अपना दिल दे बैठा। माना जाता है कि आम्रपाली से प्रेरित होकर बिंबसार ने अपने राजदरबार में राजनर्तकी के प्रथा की शुरुआत की थी। बिंबसार को आम्रपाली से एक पुत्र भी हुआ जो बाद में बौद्ध भिक्षु बना।

Monday, February 13, 2012

सोनी सोरी का पत्र और उसके नौ सवाल...

सोनी सोरी
सोनी सोरी 
(सोनी सोरी ने तीन फरवरी को एक खुला पत्र लिखकर अपनी आपबीती और दर्द को लोगों के सामने रखा है. सोनी सोरी के इस स्वहस्ताक्षरित पत्र को हम यहाँ आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं. इस पत्र में सोनी सोरी के उत्पीड़न की दास्तां देहलाती भी है .)


आप सब सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवी संगठन, मानवाधिकार महिला आयोग, देशवासियों से एक आदिवासी पीड़ित लाचार महिला अपने ऊपर हुए अत्याचारों का जवाब मांग रही है और जानना चाहती है कि –
(1) मुझे करंट शार्ट देने, मुझे कपड़े उतारकर नंगा करने या मेरे गुप्तांगों में बेदर्दी के साथ कंकड-गिट्टी डालने से क्या नक्सलवाद की समस्या खत्म हो जायेगी. हम औरतों के साथ ऐसा अत्याचार क्यों, आप सब देशवासियों से जानना है.
(2) जब मेरे कपड़े उतारे जा रहे थे उस वक्त ऐसा लग रहा था कोई आये और मुझे बचा ले, पर ऐसा नहीं हुआ. महाभारत में द्रौपदी ने अपने चीर हरण के वक्त कृष्णजी को पुकारकर अपनी लज्जा को बचा ली. मैं किसे पुकारती, मुझे तो कोर्ट-न्यायालय द्वारा इनके हाथो में सौंपा गया था. ये नहीं कहूँगी कि मेरी लज्जा को बचा लो, अब मेरे पास बचा ही क्या है? हाँ, आप सबसे जानना चाहूंगी कि मुझे ऐसी प्रताडना क्यों दी गयी.
(3) पुलिस आफिसर अंकित गर्ग एसपी मुझे नंगा करके ये कहता है कि 'तुम रंडी औरत हो, मादर सोद गोंड इस शरीर का सौदा नक्सली लीडरों से करती हो. वे तुम्हारे घर में रात-दिन आते हैं, हमें सब पता है. तुम एक अच्छी शिक्षिका होने का दावा करती हो, दिल्ली जाकर भी ये सब कर्म करती हो. तुम्हारी औकात ही क्या है, तुम एक मामूली सी औरत जिसका साथ इतने बड़े-बड़े लोग देंगे.'
आखिर पुलिस प्रशासन के आफिसर ने ऐसा क्यों कहा. इतिहास गवाह है कि देश की लड़ाई हो या कोई भी संकट, नारियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी तो क्या उन्होंने खुद का सौदा किया था. इंदिरा गांधी ने देश की प्रधानमंत्री बनकर देश को चलाया तो क्या उन्होंने खुद का सौदा किया. आज जो महिलाएं हर कार्य क्षेत्र में आगे होकर कार्य कर रही हैं क्या वो भी अपना सौदा कर रही हैं. हमारे देशवासी तो एक दूसरे की मदद-एकता से जुड़े हैं, फिर हमारी मदद कोई क्यों नहीं कर सकता. आप सभी से इस बात का जवाब जानना चाहती हूँ.
(4) संसार की श्रृष्टि किसने की. बलशाली, बुद्धिमान योधाओं का जन्म किसने दिया है. यदि औरत जाति न होती तो क्या देश की आजादी संभव थी. मैं भी तो एक औरत ही हूँ, फिर मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया.
(5) मेरी शिक्षा को भी गाली दी गयी. मैंने एक गांधीवादी स्कूल माता रुक्मणि कन्या आश्रम डिमरापाल में शिक्षा प्राप्त की है. मुझे अपनी शिक्षा की ताकत पर पूरा विश्वास है, जिससे नक्सली क्षेत्र हो या कोई और समस्या फिर भी शिक्षा की ताकत से सामना कर सकती हूँ. मैंने हमेशा शिक्षा को वर्दी और कलम को हथियार माना है. फिर भी नक्सली समर्थक कहकर मुझे जेल में डाल रखा है. बापूजी के भी तो ये ही दो हथियार थे. आज महात्मा गांधी जीवित होते तो क्या उन्हें भी नक्सल समर्थक कहकर जेल में डाल दिया जाता. आप सभी से इसका जवाब चाहिए.
(6) ग्रामीण आदिवासियों को ही नक्सल समर्थक कहकर फर्जी केस बनाकर जेलों में क्यों डाला जा रहा है. और लोग भी तो नक्सल समर्थक हो सकते हैं. क्या इसलिए क्योंकि ये लोग अशिक्षित हैं, सीधे-सादे जंगलों में झोपडियां बनाकर रहते हैं या इनके पास धन नहीं है या फिरअत्याचार सहने की क्षमता है. आखिर क्यों?
(7) हम आदिवासियों को अनेक तरह की यातनाएं देकर, नक्सल समर्थक, फर्जी केस बनाकर, एक-दो केसों के लिये भी ५-6 वर्ष से जेलों में रखा जा रहा है. न कोई फ़ैसला, न कोई जमानत, न ही रिहाई. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है. क्या हम आदिवासियों के पास सरकार से लड़ने की क्षमता नहीं है या सरकार आदिवासियों के साथ नहीं है. या फिर ये लोग बड़े नेताओं के बेटा-बेटी, रिश्तेदार नहीं हैं इसलिए. कब तक आदिवासियों का शोषण होता रहेगा, आखिर कब तक. मैं आप सभी देशवासियों से पूछ रही हूँ, जवाब दीजिये.
(8) जगदलपुर, दंतेवाड़ा जेलों में 16 वर्ष की उम्र में युवक-युवतियों को लाया गया, वो अब लगभग २०-21 वर्ष के हो रहे हैं. फिर भी इन लोगों की कोई सुनवाई नहीं हो रही है. यदि कुछ वर्ष बाद इनकी सुनवाई भी होती है तो इनका भविष्य कैसा होगा. हम आदिवासियों के साथ ऐसा जुल्म क्यों? आप सब सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी संगठन और देशवासी सोचियेगा.
(9) नक्सलियों ने मेरे पिता के घर को लूट लिया और मेरे पिता के पैर में गोली मारकर उन्हें विकलांग बना दिया. पुलिस मुखबिर के नाम पर उनके साथ ऐसा किया गया. मेरे पिता के गांव बड़े बेडमा से लगभग 20-25 लोगों को नक्सली समर्थक कहकर जेल में डाला गया है, जिसकी सजा नक्सलियों ने मेरे पिता को दी. मुझे आप सबसे जानना है कि इसका जिम्मेदार कौन है? सरकार, पुलिस प्रशासन या मेरे पिता. आज तक मेरे पिता को किसी तरह का कोई सहारा नहीं दिया गया, न ही उनकी मदद की गयी. उल्टा उनकी बेटी को पुलिस प्रशासन अपराधी बनाने की कोशिश कर रही है. मेरे पीती नेता होते तो शायद उन्हें मदद मिलती, वे ग्रामीण और एक आदिवासी हैं. फिर सरकार आदिवासियों के लिये क्यों कुछ करेगी.
छत्तीसगढ़ मे नारी प्रताड़ना से जूझती 
स्व हस्ताक्षरित 
श्रीमती सोनी सोरी (सोढी)


Friday, February 10, 2012

गांधी परिवार का मीडिया परिवार

प्रियंका का मीडिया परिवार
जब से प्रियंका गांधी वाड्रा उतरीं हैं मैदान में,तब से लग रहा है कि यूपी में बाकी नेता प्रचार ही नहीं कर रहे हैं। वैसे प्रियंका ने सिर्फ रायबरेली और अमेठी का जिम्मा संभाला है फिर भी ऐसे बताया जा रहा है जैसे वो पूरे उत्तर प्रदेश में प्रचार कर रही हैं। दिन भर कैमरे पीछा करते है,लाइव दिखाते हैं,फोकस में प्रियंका ही रहती हैं। एक भी कैमरा पैन होकर,लेफ्ट-राइट होकर अमेठी या रायबरेली नहीं दिखाता।
उनकी हर बात बल्कि वही बात बार बार दिखाई जा रही है। अब प्रियंका गांधी ने तो नहीं कहा होगा कि आइये हमारे पीछे-पीछे चलिये। मीडिया खुद ही दरी बिछाकर लेटने के लिए तैयार है तो क्या किया जा सकता है। प्रियंका की राजनीतिक अहमियत तो समझ आती है मगर रॉबर्ट वाड्रा को भी कवरेज की कमी महसूस नहीं हुई होगी। राबर्ट वाड्रा पर मीडिया टूट और टूटा पड़ा रहा।

राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के बीच प्रियंका गांधी एक ख़बर ज़रूर हैं। लेकिन जब यह ज़रूरत निष्ठा में घुलने मिलने लगती है तब समस्या होती है। समस्या उन चिरकुट पत्रकारों को ही होती है जो सत्ता के साथ चुपचाप तालमेल बिठाकर नहीं रहना जानते। अगर आप टीवी पर कवरेज का प्रतिशत निकालें तो प्रियंका के आने के बाद से यह संतुलन गांधी परिवार के पक्ष में ही बैठता है। जितना राहुल को दिखाया जाता है उतना अखिलेश या मायावती को नहीं। मुलायम तो शायद ही कभी-कभी। अजित सिंह भी नज़र नहीं आते। अब इसके लिए गांधी परिवार को क्यों दोष दें? उन्होंने कोई सर्कुलर तो जारी नहीं किया होगा कि अरे भाई आओ,हमीं को दिखाओ। मीडिया सचमुच इस परिवार की सत्ता को सह्रदय स्वीकार करता है। इसलिए नहीं कि बाइट या इंटरव्यू मिलेगा। वो भी किसी को नहीं मिला है। एक्सक्लूसिव तो किसी को नहीं मिला। प्रियंका ने तो झुंड के बीच एकाध बाइट दे भी दिये हैं मगर राहुल गांधी तो हमेशा लांग शाट में ही नज़र आते हैं। इन दोनों में राबर्ट वाड्रा ही मीडिया चतुर निकले। कैमरे और माइक के बीच सहज नज़र आए। आराम से बात करते रहे। उन्हें राजनीति का यह रूट शायद पसंद हो। मगर राहुल गांधी तो बिल्कुल कैमरे वाला रूट पसंद नहीं करते। उन्हें मालूम है कि ये पीछे पीछे आयेंगे ही तो क्यों बुलायें। राहुल बुलाते भी हैं तो एक कमरे में मीडिया को बिठाकर बात करते हैं। खुलकर बात करते हैं। मगर यह भी कह देते हैं कि आपके लिए है,रिपोर्ट करने के लिए नहीं। वहां कैमरे और रिकार्डर नहीं होते हैं। यह अपने आप में मीडिया पर गंभीर टिप्पणी है। राहुल को भरोसा नहीं कि इस तरह की बातचीत को भाई लोग ज़रूरत से अधिक निष्ठा में कुछ का कुछ न बना कर परोस दें। बहुत अजीब लगता है कि जब किसी तिराहे पर ओबी वैन लगे हों और मीडिया प्रियंका के आने का इंतज़ार कर रही हो। वो वहां पांच सौ हज़ार लोगों से मिलकर चली जाती हैं। कैमरा दूसरे लोकेशन पर पहुंचने के लिए सामान समेटने लगता है।

मीडिया के लिए राहुल या प्रियंका को फॉलो करना ग़लत नहीं है। राजनीति के विद्यार्थी और पत्रकार के नाते मैं भी यही करता। लेकिन क्या सारा कैमरा इन पर ही रहेगा? जबकि खुद प्रियंका कह रही हैं कि रायबरेली और अमेठी का चुने हुए विधायकों ने विकास नहीं किया। तब भी कैमरे और रिपोर्टर इसे स्टोरी नहीं समझते। वो एक सस्ता काम करते हैं। दावे के साथ कह सकता हूं एक राजनेता के तौर पर राहुल गांधी जितनी मेहनत करते हैं वो खुद समझ जाते होंगे ऐसी मीडिया को देखकर। सवाल राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा गांधी के कवरेज में संतुलन का है। बाकी नेताओं के साथ ग़ैर गांधी परिवार या ग़ैर करिश्माई व्यवहार नहीं होना चाहिए। ऐसा करने वाले पत्रकार राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले कम चाटुकारिता की तलाश वाले ज्यादा लगते हैं।

एक दिन यही राहुल गांधी कह देंगे कि मीडिया अपना काम ठीक से नहीं करता। उसे नेता की नहीं जनता की रिपोर्टिंग करनी चाहिए। देश की हालत दिखानी चाहिए। मीडिया नहीं दिखाता इसलिए उन्हें लोगों के घरों में जाना पड़ता है। क्यों नहीं मीडिया को अखिलेश,मायावती,अजित सिंह में करिश्मा नज़र आता है? क्या ये तीनों बिना करिश्मा के ही राजनीति में डटे हुए हैं? पत्रकारों से समझदार तो राहुल गांधी निकले जो मायावती और कांशीराम की तारीफ कर दी। शायद राहुल गांधी ने कांशीराम से ही सीखा हो कि गंभीर राजनीति करनी है तो ऐसी हल्की और बेपेंदी की मीडिया के भरोसे मत रहो। ज़मीन पर जाओ। धक्के खाओ। इंटरव्यू के चक्कर में मत पड़ो। चार संपादकों के चक्कर में पड़े रहने से अच्छा राहुल को लगता होगा कि बनारस के किसी रेस्त्रां या चाय की दुकान में चाय पी ली जाए। कम से कम उसके आस पास के लोग बात तो करेंगे कि यहां नेता जी आए थे। रही बात मीडिया की तो उन्हें मोबाइल में रिकार्ड कर फुटेज दे दो। एक्सक्लूसिव बनाकर दिखा देंगे। इतना वक्त और संसाधन लगाने के बाद भी एक भी जगह पर राहुल या प्रियंका गांधी वाड्रा की राजनीति की बारीकियों को समझाने वाली रिपोर्ट नहीं दिखी। वो भी शाम को टीवी खोल कर बंद कर देते होंगे कि इतना घूमा मगर ये भाई लोग सिर्फ हमारे आकर्षण में ही खोए रहे।

इसीलिए टीवी के ज़रिये आपको चुनावों की समझ कभी नहीं मिलेगी। आपको कई चैनल और अखबार ढूंढने होंगे तब जाकर पांच से दस प्रतिशत की ही जानकारी मिलेगी। बाकी जो हो रहा है वो कैमरों के बाहर हो रहा है। प्रधानमंत्री कब बनेंगे और राजनीति में कब आयेंगे, पूछने के लिए यही दो सवाल हैं इनके पास। हद है। क्या प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीति में नहीं है? नहीं होतीं तो वो पिछले कई बार से चुनाव प्रचार का काम क्यों संभाल रही होतीं? क्या राहुल गांधी बता देंगे कि जी मैं परसों प्रधानमंत्री बनूंगा? वो लालू यादव नहीं हैं कि यह कह दें कि मैं बनना चाहता हूं। अफसोस यही है कि ये सारे चाटुकारिता करके भी राहुल गांधी के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। मीडिया के लिए राहुल गांधी बाइट प्रवक्ता बन कर रह गए हैं। रिपोर्टिंग की लाश पड़ी है। हम सब कुचल कर चले जा रहे हैं।...रवीश कुमार

Thursday, February 9, 2012

भ्रष्टाचार घोटालों के मामले में यू.पी.ए. का रिकार्ड नं.1 है


माचारों के कवरेज के अनुसारबहुसंस्करण वाले अधिकतर दैनिक क्षेत्रीय समाचारपत्र बनते जा रहे हैं। चेन्नई से प्रकाशित होने वाला दि हिन्दू ऐसा समाचारपत्र है जिसके बारे में मेरा मानना है कि देश के किसी भी क्षेत्र की महत्वपूर्ण घटनाएं उसमें पढ़ने को मिलेजरूरी नहीं है। अत: उसका कवरेज‘ वास्तव में राष्ट्रव्यापी है।

मुझे स्मरण है कि स्वतंत्रता के पूर्व जब मैंने पहली बार इस समाचारपत्र को देखा तो मुझे यह एक अनोखा दैनिक प्रतीत हुआ,जिसके मुखपृष्ठ पर कोई समाचार नहीं थेसिर्फ विज्ञापन थे। अंदर के पृष्ठों पर भी बैनर शीर्षक वर्जित माना जाता था।

मेरे एक सहयोगी ने इस तथ्य की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया कि हाल में हिन्दुस्तान टाइम्स का पहला पृष्ठ भी ऐसा ही बन रहा है। लेकिन जबकि हिन्दू के विज्ञापन वर्गीकृत विज्ञापनों की भांति पुरानी शैली के अनुरूप एक कॉलम में होते थे और हिन्दुस्तान टाइम्स के विज्ञापन इन दिनों इतने व्यापक और काफी अधिक राजस्व देने वाले हैं। उदाहरण के लिए गत् शनिवार के अंक में (4 फरवरी, 2012) को पहले और दूसरे पृष्ठ पर ‘7 अपरियल लेमन जूस और 7 अप नेचुरल लेमन फ्लेवर‘ के विज्ञापन प्रकाशित हुए हैं।

हांलाकि मैं जिस संदर्भ में यह विशेष ब्लॉग लिख रहा हूं वह है उसी संस्करण के पहले पृष्ठ पर प्रकाशित दो स्तम्भ का समाचार । समाचार को विज्ञापन‘ के रूप में वर्णित किया गया हैऔर 5 पंक्तियों में कैप्शन इस प्रकार प्रकाशित हुई है:

      फर्स्ट विक्ट्री (First victory)
      डाऊन अण्डर (Down under)
      इण्डिया बीट आस्ट्रेलिया ( India Beat Australia)
      बाय 8 विकेट्स (by 8 wickets)
      इन सेकण्ड T20 (In second T20)

उस दिन लखनऊ में जब मीडिया ने मुझसे स्वामी के केस में सीबीआई ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय के बारे में पूछा तो मैंने कहा यदि इंग्लैण्ड और आस्ट्रेलिया के टेस्ट मैचों और एक दिवसीय मैचों में दर्जनों बदनामी वाली पराजयों के बावजूद यदिT-20 की एकमात्र विजय से क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड इतना अति आनंदित हो सकता है कि उसने पेड न्यूज‘ के रूप में समाचार प्रकाशित कराया है तो क्यों नहीं भारत सरकार भी क्रिकेट बोर्ड के उदाहरण को अपनाते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स के मुख पृष्ठ पर पी. चिदम्बरम को मिली उल्लेखनीय राहत को विज्ञापन के रूप में प्रकाशित करवातीजोकि भारत सरकार को सर्वोच्च न्यायालय और अनेक उच्च न्यायालयों से न्यायिक आलोचनाओं और भर्त्सना के बाद मिली है।

यदि क्रिकेट के घटनाक्रम को ही आगे बढ़ाया जाएऔर यदि 2G स्पेक्ट्रम घोटाले की श्रृंखला को मैच श्रृंखला माना जाए तो स्पष्ट रूप से जुझारू सुब्रमण्यम स्वामी को मैन ऑफ दि सीरिज‘ माना जाएगा।
***
sub2G स्पेक्ट्रम के संदर्भ मेंसर्वोच्च न्यायालय के उल्लेखनीय निर्णय का मुख्य भाग यह है कि: पूर्व संचार मंत्री ए. राजा द्वारा जारी किए गए 122 लाइसेंस निरस्त किए गए; सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें गैरकानूनी और असंवैधानिक माना है।

सुब्रमण्यम स्वामी ने घोषित किया है कि वे ट्रायल कोर्ट के फैसले के विरूध्द अपील करेंगे। न्यायपालिका को अब इस मुख्य सवाल का फैसला करना है कि: क्या पूर्व संचार मंत्री ए. राजा शांति के एकमात्र खलनायक हैं और इन धोखाधड़ी भरे सौदों के लिए अकेले जिम्मेदार व्यक्ति हैं?

यदि स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार के घोटालों का सम्पूर्ण इतिहास लिखा जाए तो मुझे कोई संदेह नहीं है कि इन घोटालों की संख्या और उनके वित्तीय आयामों और या उनकी गंभीरता को लेकर पहले की कोई भी सरकारयूपीए सरकार के संड़ाधभरे रिकार्ड को तोड़ नहीं पाएगी।

औपचारिक रूप से इस सरकार के मुखिया डा0 मनमोहन सिंह हैं लेकिन अब निस्संदेह सभी को यह पता है कि वास्तव में सरकार और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को यूपीए अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी चला रही हैं!

नीचे ऐसे दस कुख्यात मुद्दों की तालिका दी जा रही है जो दिमाग में उभरते हैं:

1-     कैश फॉर वोट घोटाला‘ जिसने भारत के लोकतंत्र को शर्मसार किया।
2-    2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला केस
3-    राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला
4-    क्वातरोची केस
5-    आदर्श हाऊसिंग केस
6-    मुख्य सतर्कता आयुक्त पद पर पी.जे. थॉमस की नियुक्ति
7-    भारत से चुराकर स्विस बैंकों या अन्य टैक्स हेवन्स में ले जाए गए भारत के काले धन को वापस लाने में सरकार की घोर असफलता। काले धन के विरूध्द संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के तहत न केवल अमेरिकाजर्मनी और फ्रांस जैसे बड़े देश अपितु पेरू और नाइजीरिया जैसे छोटे देशों को भी अपना धन वापस लाने में सफलता मिली है।
8-    आईएमडीटी एक्ट के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना के बावजूद बंगलादेश से असम और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में व्यापक पैमाने पर अवैध घुसपैठ
9-    तेलगी स्टाम्प-पेपर केस
10-पुणे के स्टड-फार्म के मालिक हसन अली वाला काण्ड
***

टेलपीस

इन दिनों पाकिस्तान में एक चुटकला प्रचलन में है: भारत मेंसेना प्रमुख की उम्र सरकार तय करती है।  हमारे देश में सेना प्रमुख सरकार की आयु तय करता है।

लालकृष्ण आडवाणी
नई दिल्ली
8 फरवरी, 2012

Thursday, February 2, 2012

गाँधी परिवार का परिचय...

 फिरोज जहाँगीर गांधी
पारसी मत में एक उपनाम गैंदी भी है जो रोमन लिपि में पढ़े जाने पर गाँधी जैसा ही लगता है। ================== गाँधी परिवार का परिचय जब भी किसी कांग्रेसी अथवा मीडिया द्वारा देशवासियों को दिया गया है अथवा दिया जाता है,तब वह फिरोज गाँधी तक जाकर ही यकायक रुक सा जाता है फिर बड़ी सफाई के साथ अचानक उस परिचय का हैंडिल एक विपरीत रास्ते की और घुमाकर नेहरु वंश की और मोड़ दिया जाता है। फिरोज गाँधी भी अंततः किसी के पुत्र तो होंगे ही। उनके पिता कौन थे ? यह बतलाना आवश्यक नहीं समझा जाता। फिरोज गाँधी का परिचय पितृ पक्ष से काट कर क्यों ननिहाल के परिवार से बार-बार जोड़ा जाता रहा है, यह एक ऐसा रहस्य है जिसे नेहरु परिवार के आभा-मंडल से ढक कर एक गहरे गढे में मानो सदैव के लिए ही दफ़न कर दिया गया है। यह कैसा आश्चर्य है की पंथ निरपेक्षता(मुस्लिम प्रेम) की अलअम्बरदार कांग्रेस के द्वारा भी आखिर यह गर्वपूर्वक क्यों नहीं बतलाया जाता की फिरोज गाँधी एक पारसी युवक नहीं अपितु एक मुस्लिम पिता के पुत्र थे। और फिरोज गाँधी का मूल नाम फिरोज गाँधी नहीं फिरोज खान था जिसको एक सोची समझी कूटनीति के अर्न्तगत फिरोज गाँधी करा दिया गया था। फिरोज गाँधी मुसलमान थे और जीवन पर्यन्त मुसलमान ही बने रहे। उनके पिता का नाम नवाब खान था जो इलाहबाद में मोती महल (इशरत महल) के निकट ही एक किराने की दूकान चलाते थे । इसी सिलसिले में (रसोई की सामग्री पहुंचाने के सिलसिले में) उनका मोती महल में आना जाना लगातार रहता था। फिरोज खान भी अपने पिता के साथ ही प्रायः मोती महल में जाते रहते थे। वहीँ पर अपनी समवयस्क इन्द्रा प्रियदर्शनी से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे जब यह परिचय गूढ़ प्रेम में परिणत हुआ तब फिरोज खान ने लन्दन की एक मस्जिद में इन्द्रा को मैमूदा बेगम बनाकर उनके साथ निकाह पढ़ लिया। गाँधी और नेहरु के अत्यधिक विरोध किये जाने के फलस्वरूप भी जब यह निकाह संपन्न हो ही गया तब समस्या 'खान' उपनाम को लेकर आ खड़ी हुई। अंततः इस समस्या का हल नेहरु के जनरल सोलिसिटर श्री सप्रू के द्वारा निकाला गया। मिस्टर सप्रू ने एक याचिका और एक शपथ पत्र न्यायालय में प्रस्तुत करा कर 'खान' उपनाम को 'गाँधी' उपनाम में परिवर्तित करा दिया।इस सत्य को केवल पंडित नेहरु ने ही नहीं अपितु सत्य के उस महान उपासक तथाकथित माहत्मा कहे जाने वाले मोहन दास करम चाँद गाँधी ने भी इसे राष्ट्र से छिपा कर सत्य के साथ ही एक बड़ा विश्वासघात कर डाला। गाँधी उपनाम ही क्यों - वास्तव में फिरोज खान के पिता नवाब खान की पत्नी जन्म से एक पारसी महिला थी जिन्हें इस्लाम में लाकर उनके पिता ने भी उनसे निकाह पढ़ लिया था। बस फिरोज खान की माँ के इसी जन्मजात पारसी शब्द का पल्ला पकड़ लिया गया। पारसी मत में एक उपनाम गैंदी भी है जो रोमन लिपि में पढ़े जाने पर गाँधी जैसा ही लगता है। और फिर इसी गैंदी उपनाम के आधार पर फिरोज के साथ गाँधी उपनाम को जोड़ कर कांग्रेसियों ने उस मुस्लिम युवक फिरोज खान का परिचय एक पारसी युवक के रूप में बढे ही ढोल-नगाढे के साथ प्रचारित कर दिया। और जो आज भी लगातार बड़ी बेशर्मी के साथ यूँ ही प्रचारित किया जा रहा है।...........ये मेरे अपने विचार है...अरबिंद झा 

प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पर पार्टी और वरिष्ठ नेताओं की छवि धूमिल करने के गंभीर आरोप

प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पर प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पार्टी और वरिष्ठ नेताओं की छवि धूमिल करने के गंभीर आरोप बीते 20 साल से सत्ता का बनवा...