Tuesday, August 28, 2012

मनमोहन सिंह के बारे में कुछ अनकहे अनसुने तथ्य.....!!!

मनमोहन सिंह

कुछ दिन पहले मनमोहन सिंह ने भारतीय सैनिको की आत्महत्या पर संसद में बयान दिया था कि '' ऐसे छोटे मोटे हादसों का जिक्र संसद में ना किया करे ''.

मनमोहन के उस बयान के बाद मेरे मन में सबाल उठा की आखिर देश के प्रधानमंत्री के पद पर बैठा इंसान अपने देश की सेनाओं के बारे में इतना संवेदनहीन कैसे हो सक्ता है ... इसके बाद ये विचार आया की इंसान संबेदनशील और खुश किसके प्रति होता है ... फिर ध्यान गया की इंसान कौन कौन सी गुलामी का शिकार हो सक्ता है .. तब विचार आया की गुलामी दो प्रकार की होती है ..एक . मानसिक गुलामी ...दूसरी अहसानो में दब कर की जाने बाली गुलामी .....!!!

घटनाक्रम है इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाए गए आपातकाल (Emergency ) का ..उस समय भारत की रिजर्व बैक का पदेन निदेशक था मनमोहन सिंह नाम का एक नौकरशाह ……..बर्ष 1977 जनतापार्टी की मोरारजी देसाई सरकार में एच ऍम पटेल देश के वित्तमंत्री थे और डाक्टर इन्द्रप्रसाद गोवर्धन भाई पटेल रिजर्ब बैंक आफ इण्डिया के गवर्नर .... उसी समय बैक आफ क्रेडिट एंड कामर्स इंटरनेशनल जिसका अध्यक्ष एक पाकिस्तानी था .. ने भारत में अपनी व्यावसायिक शाखा खोलने के लिये आवेदन दिया ....जब रिजर्व बैक आफ इण्डिया ने उसके आवेदन की जांच की तो पता चला की ये पाकिस्तानी बैंक काले धन को विदेशी बैंको में भेजने का काम करता है जिसे मनी लांड्रिंग कहते है इसलिए इसको अनुमति नहीं दी गयी ...........इस वीच रिजर्व बैक के गवर्नर आई जी पटेल को प्रलोभन मिला की अगर बो इस बैक को अनुमति देने में सहयोग करते है तो उनके ससुर और प्रख्यात अर्थशास्त्री ए.के.दासगुप्ता के सम्मान में एक अंतराष्ट्रीय स्तर की संस्था खोली जायेगी ..पर ईमानदार गवर्नर उस प्रलोभन में नहीं फंसे ...इस वीच आई जी पटेल की सेवानिवृत्ति का समय पास आ चुका था अंतिम दिनों में उनको पाकिस्तानी बैंक BCCI के मुम्बई प्रतिनिधि कार्यालय से एक फोन आया जिसमें उनसे निवेदन किया गया की बो BCCI के अध्यक्ष आगा हसन अबेदी से एक बार मुलाक़ात कर ले ... RBI के गवर्नर ने इसकी अनुमति दी लेकिन मुलाक़ात से एक दिन पहले उनके पास फोन आया की अब मुलाक़ात की कोई जरुरत नहीं है क्यों की जो काम मुंबई में होना था अब दो दिल्ली में हो चुका है .. साथ ही उनको बताया गया की बो जल्दी ही सेवानिवृत्त होने बाले है .....!
समय 23-06-1980 के बाद का इंदिरा गाँधी के पुत्र संजीव गाँधी उर्फ संजय गांधी की म्रत्यु से खाली हुए शक्ति केंद्र पर राजीव गाँधी की पत्नी का कब्ज़ा ... उस समूह में शामिल थे बी. के नेहरु जिन्हें पाकिस्तानी बैंक BCCI ने पहले से ही सम्मानित कर रक्खा था .............!!
काल खंड 15-09-1982... भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर आई जी पटेल सेवानिवृत ..एक दिन बाद मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने .....

काल खंड 14-01-1980 इंदिरा गाँधी फिर से देश की प्रधानमंत्री बनी केंद्रीय सत्ता के अज्ञात और अनाम समूह ने पाकिस्तानी बैंक BCCI के अध्यक्ष आगा हसन अबेदी को विश्वास दिलाया की मनमोहन सिंह ही भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बनेगे शायद इसीलिये अध्यक्ष आगा हसन अबेदी ने आई जी पटेल से मुम्बई में अपनी मुलाक़ात केंसिल की थी ....!
कालखंड सन 1983 .....भारतीय गुप्तचर एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस बिंग के बिरोध के बाबजूद पाकिस्तानी बैंक BCCI को मुम्बई में पूर्ण व्यावसायिक शाखा खोलने की अनुमति मिली जिसका मुख्यालय लंदन में .............! पाकिस्तानी मूल के नागरिक आगा हसन अबेदी की भारत के बित्त मंत्रालय में घुसपैठ का अंदाज इस बात से लगाए की उसको पहले ही सूचना मिल गयी की मनमोहन ही भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर होगे ... इस वीच मनमोहन की बेटी की बिदेश में पढ़ाई के लिये छात्रवृत्ति की व्यवस्था .........!

15-09-1982 मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने ..इस पद पर उनको तीन साल का कार्यकाल पूरा करना था लेकिन इस वीच बोफोर्स कांड सामने आया और मनमोहन ने अज्ञात कारणों से समय से पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद छोड़ अपनी पोस्टिंग योजना आयोग में करवाई ...! 
काल खंड बोफोर्स दलाली कांड के खुलासे के बाद का .... लोकसभा चुनाव के बाद बी.पी. सिंह देश के प्रधानमंत्री बने .. लेकिन इससे पहले ही मनमोहन सिंह नाम के नौकरशाह ने भारत छोड़ जिनेवा की राह पकड़ी और सेक्रेटरी जनरल एंड कमिश्नर साऊथ कमीशन जिनेवा में पद ग्रहण किया ............!

काल खंड 10-11-1990........ कांग्रेस के समर्थन/ बैशाखियों से चंद्रशेखर भारत के प्रधानमंत्री बने ... इसी दौर में फिर से मनमोहन सिंह ने जिनेवा की नौकरी छोड़ भारत की ओर रुख किया और राजीव गाँधी के समर्थन से बनी चंद्रशेखर सरकार में प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार का पद ग्रहण किया .इसी वीच देश में भुगतान संकट की स्थिति पैदा हुई और मनमोहन की सलाह पर भारत का कई टन सोना इंग्लैण्ड की बैंको में गिरवी रखना पड़ा .. जिसकी बदनामी आई प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के हिस्से में ...........!
कालखण्ड नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के समय का ..............कांग्रेस की अल्पमत सरकार ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के पांच सदस्यों सहित कई सांसदों को खरीद कर अपनी सरकार बचाई .. सरकार बचाने के इस रिश्वती खेल को नाम मिला ‘’झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रिश्बत कांड’’ जिसका केस भारत की अदालत में भी चला और कुछ सांसदों को जेल जाना पड़ा ...........इसी सरकार में मनमोहन सिंह नाम का नौकरशाह भारत का बित्त मंत्री बना....!

बाद के घटनाक्रम में कभी देश के बित्त मंत्री रहे प्रणव मुखर्जी के सचिब के रूप में प्रणब मुखर्जी के आधीन काम करने बाले इस नौकरशाह की ताकत और तिकडमो का अंदाज तो लगाईये की उन्ही प्रणब मुखर्जी को इस नौकरशाह की प्रधानमंत्रित्व के नीचे वित्त मंत्री के रूप में काम करना पड़ा ......... इनके खाते में शेयर बाजार का सबसे बड़ा घोटाला भी दर्ज है जिसे हर्सद मेहता कांड के नाम से जाना जाता है जिसमे देश की जनता को खरबो रुपये का चूना लगा था उस समय मनमोहन देश के वित्त मंत्री हुआ करते थे ... बाद के समय 2009 में इनकी सरकार बचाने के लिये एक बार फिर एक कांड हुआ जिसे देश .. कैश फार वोट ‘.. नाम के घोटाले के रूप में जनता है ..... इन सब बातो के बाबजूद अगर देश के जादातर नेता समाजसेवी .. बुद्धिजीवी और अन्ना जैसे अनशनकारी इनको व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होने का सार्टिफिकेट देते है और भारत का मीडिया भी इनको मिस्टर क्लीन की उपाधि देता है ... तो इसे भारत का दुर्भाग्य कहा जाए या बिडंबना इसका निर्णय आप स्वयं करे ......! 

साभार ... रमेश लक्ष्मण तांबे की पुस्तक .. भ्रष्ट नौकरशाह का सफर , बी सी .आई से डी सी . सी आई तक

इस्लाम के शुरू से ही शिया और सुन्नियों में है विवाद

सीरिया का गृहयुद्ध मुसलमानों के शिया और सुन्नी संप्रदाय के युद्ध में बदलता जा रहा है, जिसे सउदी अरब और ईरान का समर्थन मिल रहा है. दोनों समुदायों की आपसी लड़ाई की जड़ें इस्लाम के शुरुआती दिनों में हैं


पैगंबर मोहम्मद ने यदि 632 साल में अपनी मौत से पहले अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया होता, तो आज स्थिति कुछ और होती. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और युवा इस्लामी समुदाय पैगंबर की मौत के तीस साल बाद ही बिखर गया. इनमें बहुमत उन लोगों का था जिन्होंने बाद में अपने आपको सुन्नी कहा. दूसरा दल पैगंबर के दामाद अली इब्न अबी तालिब के समर्थकों का था. शियात अली यानि अली का दल बाद में शिया संप्रदाय बना. शिया अभी भी अल्पसंख्यक हैं और मुसलमानों की 1.6 अरब की आबादी में उनका हिस्सा करीब 15 फीसदी है. 
झगड़े की शुरुआत पैगंबर के उत्तराधिकार को लेकर हुई, कहना है कील विश्वविद्यालय के इस्लाम विशेषज्ञ लुत्स बैर्गर का. "शुरू में राजनीतिक विवाद था, जिसकी जड़ में उत्तराधिकारी चुनने का सवाल और दलीय हित थे. उसके बाद राजनीतिक विवाद धार्मिक विवाद में बदल गया."
शुरुआती सत्ता संघर्ष
पैगंबर के वैध उत्तराधिकारी को लेकर छिड़ी बहस के शुरू में चार खलीफा थे, जिन पर बहुमत से सहमति हुई थी. साल 660 में उमैय्या खानदान ने सत्ता संभाली. खलीफों के चुनाव में बहुमत के लिए इस बात का खास महत्व था कि वह मुहम्मद के कबीले कुरैश का हो. इसके विपरीत अली के समर्थकों का मानना था कि पैगंबर का उत्तराधिकारी मुहम्मद के परिवार का हो. उनकी दलील यह थी कि खुदा ने अली को उत्तराधिकारी चुना है और मुहम्मद ने अपने मरने से पहले इसे लिखित रूप में तय कर दिया था. सुन्नियों ने इसे कुरान से निकलवा दिया. इसके साथ कुरान के साथ छेडछाड़ का आरोप लगा, जिसे आज तक वापस नहीं लिया गया है.
बैर्गर का कहना है कि महात्वाकांक्षी अली को यह बात परेशान करती रही कि वे पैगंबर का उत्तराधिकारी बनने में विफल रहे. आखिरकार उन्हें 656 में चौथा और अंतिम वैध खलीफा चुना गया. उनका शासन सिर्फ पांच साल चला. एक जानलेवा हमले में उनकी मौत हो गई. इस्लामी सत्ता के नए केंद्र दमिश्क में उमैय्या समर्थकों का बोलबाला था. अली के समर्थकों ने सीमाई प्रांत पर अपना दबदबा बनाए रखा जो आजकल इराक है. साल 680 में अली के सबसे छोटे बेटे हुसैन को खलीफा चुना गया. लेकिन उमैय्या समर्थकों ने उसी साल उनकी हत्या कर दी. उन्हें करबला में दफनाया गया. इसके साथ सुन्नी और शिया संप्रदाय के स्थायी विभाजन और शिया संप्रदाय में शहीदी संस्कृति की नींव डली.
शुरुआती दुश्मनी
इस्लाम विशेषज्ञ बैर्गर का कहना है कि शिया एक तरह से इतिहास के हारे हैं. अली और उनके उत्तराधिकारियों को पूरे इस्लामी समुदाय से अपने को मनवाने में सफलता नहीं मिली. इसी का नतीजा दुनिया को देखने का उनका नकारात्मक नजरिया है. और शायद शिया विचारधारा भी जिसपर कुर्बानी की तकलीफ और निर्वाण के उम्मीद की छाप है. शिया नजरिये से इमाम खुदा के चुने बंदे हैं. कयामत के दिन मुक्तिदाता आएगा और न्याय के दैविक साम्राज्य की नींव रखेगा. इमाम में भरोसा सुन्नी के मुकाबले एक अहम अंतर है.
शिया लोगों के लिए इमाम खुदा और बंदे के बीच मध्यस्थ है. सिर्फ उसे कुरान का छुपा अर्थ पता है, जिसे लोगों को बताना उसकी जिम्मेदारी है. उसके फैसले कभी गलत नहीं होते, उसकी बातों का वही मोल है जो कुरान का है. बहुत से सुन्नियों के लिए यह पाखंड है. बैर्गर कहते हैं, "शिया संप्रदाय पर लोगों को भगवान बनाने के आरोप हैं, यानि पैगंबर के दामाद अली और उनके उत्तराधिकारियों को दैविक चरित्र के रूप में देखना और इसके साथ इस्लाम के मूल सिद्धांत से पीछे हटना कि सिर्फ एक खुदा है और इंसान की पूजा नहीं होनी चाहिए."
स्थायी असर
सत्ता में हिस्सेदारी न मिलने के कारण शिया अपने को पराजित मझते रहे तो सुन्नी शुरू से ही सफल रहे. इस्लाम विशेषज्ञ बैर्गर का कहना है कि वे अली को अपने इतिहास में जगह देने में कामयाब रहे. उन्होंने शुरुआती झगड़ों को कम कर आंका और तख्त पर शिया दावे को उपद्रवी प्रयास के रूप में देखा. बैर्गर के अनुसार भले ही शिया और सुन्नी एक दूसरे को नकारते रहे हों, इतिहास में ऐसी मिसालें हैं जिनमें धार्मिक झगड़ों के बावजूद वे शांति में जीते रहे हैं.
इस्लामी दुनिया में आज के राजनीतिक विवादों की ज्यादातर वजह धार्मिक है और एक हद तक शिया और सुन्नी की परंपरागत विभाजन रेखा बनी हुई है. चाहे सीरिया हो, इराक हो या सउदी अरब और ईरान का लंबे समय से चला आ रहा विवाद. ईरान अकेला मुल्क है जहां शिया राष्ट्रीय धर्म है. इसके अलावा इराक और बहरीन में शिया बहुमत में हैं. उत्तरी अफ्रीका के देशों में बहुमत आबादी सुन्नियों की है. सउदी अरब, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी. सीरिया और फलस्तीनी इलाकों में भी बहुमत सुन्नी हैं.

रिपोर्ट: सबीने हार्टर्ट-मोजदेही/एमजे
संपादन: आभा मोंढे

Monday, August 27, 2012

सुंदर संयोग के संग मैलोरंग...



सुंदर संयोग के पहिल मंचन मैलोरंग केलक, ई नाटक 1905 इसवी मे जीवन झा जी के द्वारा ई नाटक लिखल गेल छल, हम प्रकाश झा जी के आभार व्यक्त का रहल छी जे ई सुन्दर नाटक के हमरा सब के समक्च अन्लाह और ‘महेंद्र मलंगिया’ सर के द्वारा हमरा सब के ई नाटक के सुन्दर रूप के दरसन भेल.. सब कलाकार बहुत सुन्दर से अपन अपन कार्य केलाह, हमरा सब से सुन्दर काज प्रवीण झा जी के लागल, अद्भुत कार्य केलाह हुनका हमरा तरफ से ढेर सारा बधाई और ई बधाई मैलोरंग के सेहो.. बाकी डिटेल हम अपन ब्लॉग पर लिख का देब...

सुंदर संयोग नाटक ग्रामीण व समाज के पुरुष रूप के प्रभावी जका अयी नाटक के मंचन कईल गेल | जीवन झा जी के द्वारा ई नाटक लिखल गेल छल जाकर महेद्र मलंगिया जी के द्वारा दोबारा लिखल ई नाटक सुन्दर और प्रभावी छल | मिथिला पर ई आधारित नाटक मिथिला के सब रंग से जुरल छल | नाटक के कहानी नव कनिया और वर के समछ छल| अपना सब के ऐथान विवाह के बाद चतुर्थी मे कनिया के दरसन होई छे और ओकरा बादे वर कनिया के देख और गप का सके छे मुदा कनिया के बीमार के समाचार सुनैईत सुंदर अपन ससुरारी से रातो रात चेएल गेला बिना ककरो कीच कहिने | कनी दिन बाद जकहन सरला (कनिया) बैधनाथ धाम गेली और अपन पंडा से जतव गप करे चलाह ओते सरला के मामा मामी सरला के वर के चिन्ह गैलैएन और ओकरा बाद सरला के मामा वर से तबक तक किछु नए कहलखिन जाबे तक हुनका पूरा विस्वास नए भा गेलेइएन... शाली (ज्योति झा) सरला और मिसर के मिलबी मे बहुत योगदान केलक.. ओकरे ई फल जे सरला और मिसर के मिलेबाक मे बहुत योगदान केलक जाही से दुनो दम्पति एक दोसर के चिन्ह के प्रमाण के साथ एक दोसर के भा गेलखिन आयाह छल सुंदर संयोग...


आई नाटक मे सब कलाकार के काज तारीफ के काबिल आएछ, खाश का के प्रवीण झा और अमर जी रॉय के जतेक तारीफ़ काईल जाए वो कम हैत.. नाटक मे म्यूजिक सेहो सुन्दर छल बहुत निक जका राजीव रंजन झा (रोंकस्टार झा) ओये म्यूजिक के सजेने चलाह, मुदा कनिक और सुन्दर भा सके छालाईन, ढोलक के आवाज कखनो काल के कान मे चुभे छल मुदा पूरा देखल जाए तक बहुत सुन्दर प्रस्तुति छल... .नट क भूमिका मे मंच पर संतोष जी के रूप और प्रस्तुति देखि के पूरा श्रीराम सेंटर हंसी के टहका से गुज उठल...

नाटक के बीच मे संवाद मे कखनो काल कनी दिकत बूजाईल जे अभ्‍यास क कमी भा सकेत अईछ.. किछु काल नाटक अपन रास्ता से हैट गेल रहा मुदा प्रकाश झा जी के कुशल नेतृत्व मे ओय बेसी नए ख़राब लागल और नाटक पुनः अपन रास्ता पर आएब गेल..

प्रकाश झा जी और मैलोरंग के टीम के ई मंचन के लेल ढेर सारा बधाई और आशा करे छी जे अहू से सुन्दर सुन्दर नाटक हमरा सब के सामने अन्ता और हमरा सब के अपन मैथिल मैट पैन से अहिना अबगत कर्बिएत रहताह...

अरबिंद झा 

Wednesday, August 22, 2012

आखिर ये दंगे होते ही क्यों हैं..

UPA Government, assam riots, bodo, bangladeshi, Bodo linguistic ethnic group, HUJI, IM, ISI, Muslim vote bank1948 के बाद भारत में पहला सांप्रदायिक दंगा 1961 में मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में हुआ। उसके बाद से अब तक सांप्रदायिक दंगो की झड़ी सी लग गयी। बात चाहे 1969 में गुजरात के दंगो की हो, 1984 में सिख विरोधी हिंसा की हो, 1987 में मेरठ के दंगे हो जो लगभग दो महीने तक चला था और कई लोगो ने अपनी जान गंवाई थी, 1989 में हुए भागलपुर-दंगे की बात हो, 1992-93 में बाबरी काण्ड के बाद मुंबई में भड़की हिंसा की हो, 2002 में गुजरात-दंगो की हो, 2008 में कंधमाल की हिंसा की हो या फिर अभी पिछले दिनों ही उत्तर प्रदेश के बरेली में फ़ैली सांप्रदायिक हिंसा की हो अथवा इस समय सांप्रदायिक हिंसा की आग में सुलगते हुए असम की हो जिसमे अब तक पिछले सात दिनों से जारी हिंसा में करीब दो लाख लोगों ने अपना घर छोड़ा दिया तथा इनमें से कइयो के घर जला दिए गए और ज्यादातर लोग सरकार द्वारा बनाए गए 125 राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। यह एक कटु सत्य है कि विभिन्न समुदायों के बीच शांति एवं सौहार्द स्थापित करने की राह में सांप्रदायिक दंगे एक बहुत बड़ा रोड़ा बन कर उभरते है और साथ ही मानवता पर ऐसा गहरा घाव छोड़ जाते है जिससे उबरने में मानव को कई-कई वर्ष तक लग जाते है। ऐसे में समुदायों के बीच उत्पन्न तनावग्रस्त स्थिति में किसी भी देश की प्रगति संभव ही नहीं है। साम्यवादी चिन्तक काल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा देते हुए कहा था कि धर्म लोगों में नसेड़ी की अफीक की तरह विद्यमान होता है, जो हर हाल में नशा नहीं त्यागना चाहता है, भले ही वह अन्दर से खोखला क्यों ना हो जाय। समाज की इसी कमजोरी को राजनेताओ ने सत्ता की लोलुपता में सत्ता हथियाने हथियार बनाया, भले ही इसकी बेदी पर सैकड़ों मासूमों के खून बह जाय।

धर्मनिरपेक्षता और संविधान : भारतीय संविधान के तहत भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां कई मतों को मानने वाले लोग एक साथ रहते है। ध्यान देने योग्य है कि धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान के 1976 में हुए 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। यह संशोधन सभी धर्मों की समानता और धार्मिक सहिष्णुता सुनिश्चित करता है। चूंकि भारत का कोई अपना आधिकारिक धर्म नहीं है अतः यहाँ ना तो किसी धर्म को बढावा दिया जाता है और ना ही किसी से धार्मिक-भेदभाव किया जाता है। भारत में सभी धर्मों का सम्मान किया जाता है और सभी मतानुयायो के साथ एक समान व्यवहार किया जाता है। भारत में हर व्यक्ति को अपने पसन्द के किसी भी धर्म की उपासना, पालन और प्रचार का अधिकार है। सभी नागरिकों, चाहे उनकी धार्मिक मान्यता कुछ भी हो कानून की नजर में बराबर है। साथ ही सरकारी या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों में कोई धार्मिक अनुदेश लागू भी नहीं होता।

सांप्रदायिक हिंसा के कारण : अगर हम बड़े-बड़े साम्प्रदायिक दंगो को छोड़ दे तो भी देश में गत वर्ष हुई सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के मूल में किसी भी समुदाय की धार्मिक भावनाओ का आहत होना, सहनशीलता और धैर्य की कमी के साथ-साथ और क्रिया का प्रतीकारात्मक उत्तर देना ही शामिल है। अभी हाल ही में पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश के बरेली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के पीछे पुलिस के मुताबिक मूल वजह यह थी कि शहर के शाहाबाद इलाके में कांवड़ियों द्वारा रात को साउंड सिस्टम बजाने दूसरे समुदाय के लोगो की भावनाए आहत हो गयी थी। बात चाहे अप्रैल 2011 को मेरठ में सांप्रदायिक हिंसा की हो अथवा सितंबर 2011 को राजस्थान के भरतपुर के गोपालगढ़ में साम्प्रदायिक हिंसा या फिर सितम्बर 2011 में मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में दौलतगंज चौराहे पर गणेश-प्रतिमा की स्थापना को लेकर सांप्रदायिक हिंसा की हो शुरुआत हमेशा छोटे-छोटे दंगो से ही होती है जो कि पूर्वनियोजित नहीं होते।

आखिर ये बिभिन्न समुदाय के लोग एक- दूसरे की धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात करते ही क्यों है यह एक हम सबके सम्मुख विचारणीय प्रश्न मुह बाए खड़ा है। इन दिनों असम सांप्रदायिक हिंसा की भेट चढ़ा हुआ है जिसमे लाखो लोग बेघर हो गए है और कई लोग अपनी जान गँवा चुके है तो कई लोग घायल है। ऐसी ही साम्प्रदायिक हिंसा अगस्त 2008 में उत्तरी असम के उदलगुड़ी और बरांग जिलों में भी हुई थी परन्तु लगता है कि उन दंगों से तरुण गोगोई और उनके मंत्रिमंडल ने कोई सबक नहीं लिया। असम को आज भी एक गरीब और पिछड़ा राज्य माना जाता है। योजना आयोग के आकड़ों के मुताबिक 2010 तक असम के 37.9 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे थे। असम में गरीबी के आकड़े बढ़े हैं। 2004-05 में 34.4 फीसदी लोग ही वहा गरीबी रेखा से नीचे रहते थे।

क्या कहते है आंकड़े : गृहमंत्रालय के अनुसार द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबित देश भर में पिछले चार सालो में सांप्रदायिक हिंसा के लगभग 2,420 से अधिक छोटी-बड़ी घटनाएं हुई जिसमें कई लोगो को अपनी जान से हाथ ढोना पड़ा। इन आंकड़ों का अगर हम औसत देंखे तो देश में किसी न किसी हिस्से में हर दिन कोई न कोई सांप्रदायिक हिंसा की घटना हो ही जाती है जिसमे कई बेगुनाह लोग मारे जाते है और कई घायल हो जाते है। गृहमंत्रालय का भी मानना है कि देश के लिए सांप्रदायिक हिंसा प्रमुख चिंता का विषय बन गया है। क्योंकि सरकारी तंत्र यह मानता है कि सांप्रदायिक हिंसा का समाज पर दूरगामी प्रभाव छोड़ता है जिससे समाज में कटुता का ग्राफ सदैव बढ़ता है। परन्तु अगर ऐसा माना जाय कि सरकार का नेतृत्व थामने वाले जनता के प्रतिनिधि ही किसी न किसी रूप में सांप्रदायिकता की आड़ में अपनी राजनैतिक रोटिया सकते है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, इसका ताज़ा उदाहरण देश की राजधानी दिल्ली ने सुभाष पार्क के स्थानीय विधायक को देखा परन्तु जनता की सहनशीलता एवं धैर्य से कोई बड़ी अनहोनी होते-होते बच गयी।

परन्तु जब यह सहनशीलता जनता नहीं दिखाती तो देश साम्प्रदायिक दंगो की भेट चढ़ जाता है। अगर हम हाल ही के पिछले कुछ वर्षो के आकड़ो पर नजर डाले तो आकडे इस बात की पुष्टि कर देते है कि जनता ने जहा सहनशीलता नहीं दिखाई वहा सांप्रदायिक दंगे हुए है। एक आकंड़ो के अनुसार वर्ष 2010 में सांप्रदायिक हिंसा की 651 घटनाओं में जहा एक तरफ 114 लोगों को अपनी जान से हाथ ढोना पडा था तो दूसरी तरफ 2,115 व्यक्ति घायल हो गए थे। वर्ष 2009 में सांप्रदायिक हिंसा की 773 घटनाओं में लगभग 123 लोगों की मौत हो गई थी जबकि 2,417 लोग घायल हुए थे। वर्ष 2008 में सांप्रदायिक हिंसा की 656 घटनाओं में 123 लोगों की जान गयी थी और 2,270 लोग घायल हुए थे।

सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए उपाय : भारत सरकार को चाहिए कि साफ़ नियति से बिना देरी किये हुए इसी मॉनसून सत्र में सभी दलों के सहयोग एवं सहमति से संसद में कानून बनाकर इस नासूर रूपी समस्या पर नियंत्रण करे। ध्यान देने योग्य है कि सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण विधेयक-2011 का एक प्रारूप सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया था परन्तु इस प्रारूप से सरकार की नियति पर सवालिया निशान खड़े हो गए थे। सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं अक्सर त्योहारों के नजदीक ही होती है अतः सरकार को त्योहारों के समीप चौकस हो जाना चाहिए और ऐसे क्षेत्र को संवेदनशील घोषित कर कुछ हद तक ऐसी सांप्रदायिक घटनाओ को कम किया जा सकता है। ध्यान देने योग्य है कि अक्टूबर 2011 को सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ती घटनाओं के चलते केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने मुख्यमंत्रियों को सचेत रहने को कहा था। और साथ ही सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भेजे पत्र में चिदंबरम ने सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील स्थानों की पहचान कर उन पर विशेष नजर रखने को कहा था।

अक्टूबर 2008 को राष्ट्रीय एकता परिषद का उद्घाटन समारोह में सांप्रदायिक ताकतों पर प्रहार करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उड़ीसा, कर्नाटक और असम की सांप्रदायिक हिंसा का हवाला देते हुए कहा था कि यह खतरनाक होने के साथ ही भारत की मिली जुली संस्कृति पर हमला हैं और इनसे कड़ाई से निपटने की जरूरत है। किसी भी देश के विकास के लिए परस्पर सांप्रदायिक सौहार्द का होना नितांत आवश्यक है। अतः आम-जन को भी देश की एकता-अखंडता और पारस्परिक सौहार्द बनाये रखने के लिए ऐसी सभी देशद्रोही ताकतों को बढ़ावा न देकर अपनी सहनशीलता और धैर्य का परिचय देश के विकास में अपना सहयोग करना चाहिए। आज समुदायों के बीच गलत विभाजन रेखा विकसित की जा रही है। विदेशी ताकतों की रूचि के कारण स्थिति और बिगड़ती जा रही है जो भारत की एकता को बनाये रखने में बाधक है। अतः अब समय आ गया है देश भविष्य में ऐसी सांप्रदायिक घटनाये न घटे इसके लिए प्रतिबद्ध हो...

राजीव गुप्ता

Saturday, August 11, 2012

आरक्षण पर संविधान - संशोधन ही विकल्प

आरक्षण
आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश के बाद अल्पसंख्यको के नाम पर राजनीति करने वाली यू.पी.ए-2 की अगुआई वाले सबसे प्रमुख घटक दल कांग्रेस पार्टी की नियत पर अब सवाल उठने लगने लगे है। ऐसा लगता है कि उसकी धर्माधारित राजनीति पर अब ग्रहण लग गया है। ध्यान देने योग्य है कि अभी हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के चलते केंद्र सरकार ने ओबीसी के 27 प्रतिशत
 आरक्षण के कोटे से 4.5 प्रतिशत आरक्षण अल्पसंख्यक समुदाय को देने की घोषणा की थी। सरकार की चुनावों के दौरान इस प्रकार की लोकलुभावनी घोषणा को मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने का चुनावी पैतरा मानकर चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनावों तक इसके अमल में रोक लगा दी थी परन्तु केंद्र सरकार ने विधानसभा चुनावों के परिणाम आते ही अपने फैसले को लागू कर दिया।

परन्तु आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश से सरकार बुरी तरह बौखला गयी और आनन्-फानन में कानून और अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने मंगलवार को सरकार के हुए डैमेज को कंट्रोल करने की कोशिश करते हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर यह कहा कि केंद्र सरकार ओबीसी आरक्षण कोटा के भीतर अल्पसंख्यकों को 4.5 प्रतिशत कोटा की व्यवस्था को रद्द करने के आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चल रहे अवकाश के चलते स्पेशल लीव पिटिशन (एसएलपी) के तहत सुप्रीम कोर्ट जाने का मन बनाया है। अटर्नी जनरल के भारत लौटने के बाद उनसे सलाह-मशविरा करने के बाद सरकार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटायेगी । परन्तु पत्रकारों सवाल से बौखलाते हुए केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने यहाँ तक कह दिया कि यह "प्रेस-कांफ्रेस मेरी है जो कह रहा हूँ उसे सुनो "। अल्पसंख्यक कोटा पर यदि सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी सरकार के खिलाफ गया तो केंद्र सरकार की बहुत किरकिरी होगी। इसके बाद सरकार संविधान पीठ के समक्ष मामले को ले जा सकती है और अगर वहा भी हार का मुह देखना पड़ा तो सरकार के पास संविधान सशोधन के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं होगा। परन्तु संविधान-संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है जो गठबंधन से चल रही सरकार के लिए आसान नहीं होगा।

केंद्रीय मंत्री ने के अनुसार इससे पहले भी आंध्र प्रदेश में आरक्षण के कोटे पर वहां की हाई कोर्ट रोक लगाती रही है। पिछली बार पांच जजों के एक पैनल ने आरक्षण के कोटे के विरुद्ध निर्णय दिया था जिस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। उन्होंने कहा कि सरकार पूरी कोशिश करेगी कि जितनी जल्दी हो इस मामले पर तमाम उलझनें दूर हो जाए क्योंकि कोर्ट के इस फैसले से कई छात्रो का भविष्य अधर में लटक गया है। ध्यान देने योग्य है कि आरक्षण के अमल में आने के बाद आईआईटी में करीब 400 छात्रों का चयन हो गया है परन्तु कोर्ट के इस फैसले से आईआईटी के दाखिलों पर असर पड़ सकता है। फिर कोई राजीव गोस्वामी न बने इसलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी हरकत में आ गया है। ध्यान देने योग्य है कि वी.पी. सिंह की सरकार द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिसो को लागू करने के विरोध में राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया था।

हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा हाई कि सिर्फ धर्म आधारित आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं जा सकती, इसपर सलमान खुर्शीद ने कहा कि यह सही है कि संविधान में केवल धर्म आधारित आरक्षण का प्रावधान नहीं है लेकिन यह पिछड़े वर्गों के कोटे पर दिया गया कोटा था और सरकार ने मंडल कमिशन की रिपोर्ट के आधार पर ही इस कोटे का प्रावधान किया था। परन्तु अदालत ने पाया कि पहले मसौदे (ओएम) में कहा गया है कि एक बार राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून की धारा 2(सी) में परिभाषित अल्पसंख्यकों से संबंध रखने वाले शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों के लिए 4.5 प्रतिशत का आरक्षण तय किया जाता है और दूसरे ओएम के जरिए अल्पसंख्यकों के लिए कोटे में कोटा बना दिया जाता है। इस पर आँध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मदन बी लॉकर तथा न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार की खंडपीठ ने कहा कि सहायक सॉलीसिटर जनरल ने ऐसा कोई सबूत पेश नहीं कर पाए जो अल्पसंख्यकों के सजातीय समूह वाले पिछड़े वर्ग के तौर पर किए गए वर्गीकरण को सही ठहराता हो परिणामतः हम यह मानते हैं कि मुस्लिम, इसाई, बौद्ध और पारसी एक सरीखे समूह नहीं हैं। पीठ ने यह भी ध्यान दिलाया कि पूरे मसौदे में इस्तेमाल किए गए अल्पसंख्यकों से संबंध रखने वाले या अल्पसंख्यकों के लिए जैसे शब्दों से संकेत मिलता है कि 4.5 प्रतिशत कोटा केवल मजहब के आधार पर ही बनाया गया है। लिहाजा, हमारे पास 4.5 प्रतिशत आरक्षण को खारिज करने के अलावा कोई दूसरा बेहतर विकल्प नहीं है।

यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इससे पहले केंद्र सरकार ने अपने फैसले का बचाव करते हुए यह दलील दी थी कि उसने सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की ओर कदम बढाया है और यही संस्तुति कांग्रेस पार्टी के 2009 के घोषणापत्र में भी थी अतः इसे मात्र मुस्लिम हितों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। अल्पसंख्यकों को उनके पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दिया गया, न कि मजहब के आधार पर। परन्तु सरकार का तर्क है धरा का धरा रह गया। दरअसल सरकार ने बड़ी चतुराई से उस समय हो रहे पांच राज्यों में चुनाव के दौरान अल्पसंख्यक आरक्षण का एक चुनावी शिगूफा छोड़ा था क्योंकि उसने अपने इस चुनावी पैतरे से एक साथ तीन राज्यों में पंजाब, गोवा और उत्तर प्रदेश में निशाना साधा। मसलन पंजाब में सिख समुदाय पर आरक्षण का लाभ मिलने का वादा किया गया तो उत्तरप्रदेश में मुसलमानों पर और गोवा में ईसाईयों पर दांव लगाया।

देश में पड़ रही भयंकर गर्मी के इस मौसम में आये हाई कोर्ट के इस फैसले ने राजनीति गलियारों में उबाल ला दिया है। अल्पसंख्यक-आरक्षण के इस मुद्दे पर बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि एक तरफ जहा कांग्रेस इस मामले में राजनीति कर रही है वही दूसरी तरफ यूपीए मुसलमानों को आरक्षण के मामले में गंभीर नहीं है। बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी इस मसले पर यूपीए सरकार को निशाने पर लेते हुए कहा कि सरकार द्वारा की गयी गलतियों को ठीक करने का काम अदालतों को करना पड़ रहा है। एक तरफ टीडीपी (तेलगू देशम पार्टी) के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू ने केंद्र सरकार द्वारा कोटे के अंदर कोटा देने की बजाय संविधान में संशोधन करके मुसलमानों के लिए अलग से कोटे की व्यवस्था करने की वकालत की तो दूसरी तरफ लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामबिलास पासवान ने रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट के अनुसार मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कही। गौरतलब है कि रंगनाथ मिश्र आयोग ने अल्पसंख्यको को शिक्षा , सरकारी नौकरी एवं समाज कल्याण योजनाओं में 15 प्रतिशत पिछड़े वर्ग के कोटे के अंतर्गत आरक्षण देने की संस्तुति की थी। इस 15 प्रतिशत आरक्षण में 10 प्रतिशत आरक्षण मुस्लिम समुदाय के लिए और बाकी 5 प्रतिशत आरक्षण अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए प्रावधान है।

आरक्षण की इस बिसात पर ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो समय के गर्भ में है परन्तु यूपीए सरकार की नियत की कलई अब खुल गयी है। अब समय आ गया है कि आरक्षण के नाम पर सरकार राजनैतिक रोटियां सेकना बंद करे और समाज-उत्थान को ध्यान में रखकर फैसले करे ताकि किसी भी तबके को ये ना लगे कि उनसे उन हक छीना गया है और किसी को ये ना लगे कि आजादी के इतने वर्ष बाद भी उन्हें मुख्य धारा में जगह नहीं मिली है। तब वास्तव में आरक्षण का लाभ सही व्यक्ति को मिल पायेगा जिसके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी।

--राजीव गुप्ता

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