Wednesday, February 9, 2011

जब 'बहनजी' की जूतियां चमकाने लगे पुलिस ऑफिसर

नई दिल्ली ।। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के राज में चमचागिरी किस हद तक पहुंच चुकी है , इसका अंदाजा उस समय हुआ जब ओरैया में उनकी सुरक्षा में तैनात अधिकारी सार्वजनिक रूप से उनके जूते साफ करने लगे। 

हमारे सहयोगी समाचार चैनल ' टाइम्स नाउ ' ने इस बारे में खबर दी है। मुख्यमंत्री हेलिकॉप्टर से ओरैया पहुंचीं तो वहां उतरने के बाद उनके जूतों पर धूल की परतें जम गई थीं। यह देखकर उनके मुख्य सुरक्षा अधिकारी पद्म सिंह ने जेब से रूमाल निकाला और लगे मुख्यमंत्री की जूतियों की सफाई करने। टीवी कैमरों ने इस दृश्य को कैद कर लिया , लेकिन न पद्म सिंह को कोई फर्क पड़ा और न मुख्यमंत्री मायावती को। 

पद्म सिंह डीएसपी हैं। वह 1996 से मायावती की सुरक्षा में तैनात हैं। उन्हें उत्कृष्ट सेवा मेडल भी मिल चुका है

ये महाघोटालों का मौसम है


Source: वेद प्रताप वैदिक   |   Last Updated 00:23(09/02/11)
 
 
 
 
 
 
अब तक राजा था, अब महाराजा है। ए राजा ने अपनी चहेती कंपनियों को लाइसेंस दिए और देश के पौने दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान किया, लेकिन सरकारी संगठन ‘इसरो’ ने देवास मल्टीमीडिया को एस-बेंड की लीज दी और पूरे दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान कर दिया। राजा ने अपनी रेवड़ियां दर्जनों कंपनियों को बांटीं, जबकि ‘इसरो’ ने अकेली एक ही कंपनी को निहाल कर दिया। वह थी सौ सुनार की और यह है एक लुहार की!

इतना बड़ा घोटाला हुआ कैसे? ‘द हिंदू’ द्वारा किए गए रहस्योद्घाटन से पता चला है कि इस घोटाले के सूत्रधार हमारे नौकरशाह हैं। ‘इसरो’ यानी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन। बेंगलुरू स्थित इस संगठन के एक पूर्व सचिव डॉ चंद्रशेखर ने 2004 में एक कंपनी बनाई, देवास मल्टीमीडिया और उसने ‘इसरो’ से एक समझौते के तहत अंतरिक्ष में दो उपग्रह छोड़ने का समझौता किया। 2005 में हुए समझौते के अनुसार ‘देवास’ को एस-बेंड स्पेक्ट्रम की 70 मेगाहट्र्ज तरंगों के इस्तेमाल का अधिकार अपने आप मिल गया। यह ‘लीज’ 20 वर्ष के लिए थी। इसके बदले ‘देवास’ ने ‘इसरो’ को 1000 करोड़ रुपए देना तय किया।

अब जरा हम यह देखें कि ‘देवास’ जैसी निजी कंपनी के मुकाबले सरकारी कंपनियों - बीएसएनएल और एमटीएनएल - को ये ही तरंगें किस भाव बेची गई हैं। उन्हें सिर्फ 20 मेगाहट्र्ज के लिए 12,487 करोड़ रुपए देने होंगे। पिछले साल सरकार ने इन्हीं तरंगों की नीलामी की तो सिर्फ 15 मेगाहट्र्ज पर उसे 67,719 करोड़ रुपए मिले। यदि यह नीलामी 70 मेगाहट्र्ज की होती तो उसे कितने करोड़ मिलते? ढाई-तीन लाख करोड़ से कम क्या मिलते यानी ‘इसरो’ और ‘देवास’ ने मिलकर देश को दो लाख करोड़ से भी ज्यादा का चूना लगा दिया। इतना ही नहीं, ‘इसरो’ के पूर्व सचिव और देवास के वर्तमान चेयरमैन चंद्रशेखर ने समझौता कुछ इस ढंग से लिखवाया कि वह 20 साल की ‘लीज’ कभी खत्म ही न होने पाए। यानी भारत के संसाधनों की लूट अनंत काल तक चलती रहे।

राजा ने 2जी स्पेक्ट्रम की जो तरंगें बांटी थीं, उसके मुकाबले ए-बेंड की ये तरंगें कहीं अधिक शक्तिशाली हैं। अंतरिक्ष विज्ञान में आगे बढ़े हुए दुनिया के प्रगत राष्ट्र अपने इंटरनेट, मोबाइल फोनों तथा अन्य दूरसंचार सुविधाओं के लिए इन्हीं तरंगों का इस्तेमाल करते हैं। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत काफी आगे बढ़ चुका है। यदि अपनी इस तरंग-क्षमता को वह विविध जरूरतमंद देशों को बेचने लगे तो अरबों रुपए कमा सकता है, लेकिन यदि हमारे अपने नागरिक अपनी ही संस्थाओं को लूटने में लग जाएं तो देश का अल्लाह ही मालिक है।

डॉ चंद्रशेखर का कहना है कि 2005 में उन्होंने जब यह समझौता किया तो ठेकों की नीलामी की प्रथा थी ही नहीं। उनके अलावा किसी ने एस-बेंड के लिए आवेदन किया ही नहीं। इसीलिए यदि उन्हें यह ठेका मिल गया तो इसमें गलत क्या है? मोटे तौर पर चंद्रशेखर की बात ठीक मालूम पड़ती है, लेकिन क्या यह सत्य नहीं है कि उन्होंने ‘इसरो’ के अंदरूनी आदमी होने का लाभ उठाया? यदि वे ‘इसरो’ के वैज्ञानिक सचिव नहीं रहे होते तो क्या उन्हें पता होता कि एस-बेंड के फायदे क्या-क्या हो सकते हैं और उन्हें 2005 में ही कैसे भुनाया जा सकता है? यदि वे ‘इसरो’ के उच्च पद पर नहीं रहे होते तो क्या ‘इसरो’ के अफसरों से ऐसे पक्षपातपूर्ण समझौते पर दस्तखत करवा सकते थे? उनके सेवानिवृत्त होने के बाद जो अफसर ‘इसरो’ में उच्च-पदों पर नियुक्त हुए होंगे, क्या उनमें से कई उनके मातहत नहीं रहे होंगे? यदि उस समझौते पर दस्तखत करते समय उनके आंख-कान खुले रहे होंगे तो उन्हें पता रहा होगा कि एस-बेंड की महत्ता क्या है और दुनिया में उसकी कीमत कितनी है? 

2009 में इसी बेंड को नीलाम करने पर दुनिया के कई देशों ने अरबों डॉलर कमाए हैं। ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देश इन्हीं तरंगों को खरीदने के लिए लालायित हैं। जब चंद्रशेखर ने ये तरंगें खरीदने का सौदा किया, तब उनकी कंपनी की हैसियत क्या थी? 2007 तक भी शेयर होल्डरों की राशि सिर्फ 67.5 करोड़ थी, लेकिन 2010 में वही कूदकर 8 गुना यानी 578 करोड़ रुपए हो गई। यदि यह सौदा रद्द नहीं हुआ तो कुछ ही वर्षो में ‘देवास’ दुनिया की बड़ी कंपनियों में गिनी जाने लगेगी। ‘इसरो’ के साथ सौदा होते ही इस कंपनी में चार चांद लग गए।

यह ठीक है कि चंद्रशेखर ने कोई गैरकानूनी काम नहीं किया है और अपनी तरफ से उन्होंने भारत सरकार को धोखा भी नहीं दिया है, लेकिन क्या ‘इसरो’ को हम निदरेष मान सकते हैं? यह भी संभव है कि 2जी स्पेक्ट्रम सौदे की तरह एस-बेंड सौदे में कोई रिश्वतखोरी नहीं हुई हो, लेकिन क्या यह शुद्ध लापरवाही का मामला नहीं है? देश की संपत्ति और देश की आमदनी के प्रति लापरवाही का मामला! जैसे ही चंद्रशेखर ने अपनी तिकड़म भिड़ाई, ‘इसरो’ के अधिकारियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को सतर्क क्यों नहीं किया और जैसे ही बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय को इसका पता चला, उसने इसके विरुद्ध सीधी कार्रवाई क्यों नहीं की? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? जिम्मेदारी किसके माथे पर डाली जाए? 

विरोधी दल प्रधानमंत्री से जवाब मांग रहे हैं, क्योंकि ‘इसरो’ सीधे प्रधानमंत्री के मातहत है। यहां यह कल्पना करना भी कठिन है कि डॉ मनमोहन सिंह जैसा सीधा-सच्चा और भोला-भाला व्यक्ति नौकरशाहों की सांठ-गांठ में शामिल हो सकता है। यह भी संभव है कि उन्हें इस सौदे की भनक ही न लगी हो। खबर है कि सरकार इस सौदे की समीक्षा कर रही है और महालेखा परीक्षक इसकी जांच कर रहे हैं। समीक्षा और जांच तो होती रहेगी, लेकिन सौदे को रद्द करने में सरकार जितनी देर लगाएगी, उसकी प्रतिष्ठा उतनी ही तेजी से पेंदे में बैठती चली जाएगी। आदर्श सोसायटी, राष्ट्रकुल खेल और राजा घोटालों के मुकाबले ये महाराजा घोटाला है। इस घोटाले के तार किसी मंत्री या मुख्यमंत्री से नहीं, सीधे प्रधानमंत्री से जोड़ने की कोशिश की जा रही है।

वेदप्रताप वैदिक
लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं

आत्ममंथन करें देश के मुस्लिम


Source: फिरोज बख्त अहमद   |   Last Updated 00:15(08/02/11)
 
 
 
 
 
 
इस्लामी शिक्षा के प्रतिष्ठित केंद्र दारुल उलूम देवबंद के हाल ही में निर्वाचित कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तान्वी ने जब कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में सभी अल्पसंख्यक समुदाय विकास कर रहे हैं तो उन्होंने सच कहा था। इसके बावजूद समूचा मुस्लिम मीडिया उनके इस कथन के लिए उनकी लानत-मलामत करने लगा और उसे हकीकत से कोसों दूर बताया जाने लगा। ये प्रतिक्रियाएं यही दिखाती हैं कि मुस्लिम समुदाय आज भी अपनी पुरानी मानसिकता से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है।

नरेंद्र मोदी को गुजरात में हुए सांप्रदायिक नरसंहार के लिए भले ही क्लीन चिट न दी जाए, लेकिन उन्हें इस बात का श्रेय तो जरूर दिया जाना चाहिए कि उनके नेतृत्व में गुजरात के सभी वर्गो ने विकास किया है, जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं। अपनी किताब इंडियन मुस्लिम्स : व्हेयर हैव दे गॉन रॉन्ग? में रफीक जकारिया लिखते हैं कि भारत के मुसलमानों को मुख्यधारा का अभिन्न अंग बनने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें अपनी जड़ताओं और अवरोधों को तोड़कर एक सौहार्दपूर्ण परिवेश का निर्माण करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए। यदि मुस्लिम आत्ममंथन करें और खुद से यह सवाल पूछें कि क्या उन्होंने देश के विभाजन के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी संबंधों को मजबूत बनाने के लिए वास्तव में कोई योगदान दिया है, तो जवाब होगा : नहीं।

जकारिया लिखते हैं कि भारत के मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि उनकी रूढ़िवादी सोच के कारण उनसे कतराने वाले हिंदुओं की संख्या में दिन-ब-दिन बढ़ोतरी होती जा रही है। मुस्लिमों को हिंदुओं की यह धारणा बदलने के लिए भरसक प्रयास करने चाहिए। यह जितना उनके हित में है, उतना ही देश के हित में भी होगा। दुर्भाग्य से मुसलमान अपनी ही अलग दुनिया में जी रहे हैं। मुस्लिम नेता केवल उनकी भावनाएं भड़काने का काम करते हैं और उनकी मुसीबतों में और इजाफा ही करते हैं। इन आत्मतुष्ट नेताओं का मुसलमानों के पिछड़ेपन से कोई सरोकार नहीं है। हर मौके पर उनके द्वारा दिखाए जाने वाले कट्टरपंथी रवैये ने हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी रिश्तों की बुनियाद को और कमजोर किया है। पाकिस्तान का खुलकर विरोध करने और जिहादियों के विरुद्ध ठोस रवैया अख्तियार करने के स्थान पर वे केवल अपनी राजनीतिक दुकानें चला रहे हैं। इनमें से कोई भी नेता कभी गांव-देहात जाकर मुस्लिमों की वास्तविक स्थिति पता करने की कोशिश नहीं करता। उन्हें नहीं पता देश के दूरदराज के इलाकों में बसे गरीब और पिछड़े मुसलमान किन परिस्थितियों में जी रहे हैं।

भारत के मुस्लिमों को आगे बढ़ना चाहिए। उन्हें अपनी आदतों और अपने पूर्वग्रहों के ढांचे से बाहर निकलना चाहिए और खुद को बदलते वक्त की जरूरतों के मुताबिक ढालने की कोशिश करनी चाहिए। उन्हें अपने लिए अनुग्रह की मांग करनी बंद कर देनी चाहिए, क्योंकि इससे वे और कमजोर होंगे। उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना इसलिए सीखना होगा, क्योंकि उनके आसपास उनके कोई सच्चे दोस्त नहीं हैं। कई लोग, जो उनसे सहानुभूति जताने की कोशिश करते हैं, वे वास्तव में उनके शुभचिंतक नहीं हैं। वे उनकी मदद से केवल चुनावी राजनीति में बढ़त हासिल करना चाहते हैं। भारत के मुसलमानों को अगर सफल होना है तो उन्हें अपने आचार-विचार में आमूलचूल बदलाव लाना होगा। यदि वे जल्द ही ऐसा नहीं कर पाए तो बहुत देर हो जाएगी।

मुस्लिम अभिभावकों को भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। उन्हें अपनी पुरानी आदतें और धारणाएं छोड़नी होंगी और अपने बच्चों को प्रोत्साहित करना होगा कि वे अच्छी शिक्षा प्राप्त करें। यदि वे योग्य हैं तो उन्हें जरूर सफलता मिलेगी, जैसाकि मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तान्वी ने कहा है और ठीक ही कहा है। मुस्लिमों को सबसे पहले तो अपनी कट्टरता से मुक्त होना होगा, जिसके कारण वे आज समाज में अलग-थलग पड़ गए हैं। उन्हें गैरमुस्लिमों को आश्वस्त करना होगा कि उनका मजहब ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत में भरोसा रखता है। मुस्लिमों को अपने धर्मग्रंथों में वर्णित शिक्षाओं का उल्लंघन किए बिना अपने पर्सनल लॉ में कुछ बदलाव लाने की कोशिश करनी चाहिए, खासतौर पर बहुपत्नीवाद। वास्तव में शरीया कानून में शादी, तलाक, दहेज और यहां तक कि भरण-पोषण से संबंधित नियमों में भी संशोधन की पर्याप्त गुंजाइश है। इज्तिहाद या स्वतंत्र चिंतन, जिन्हें पहले शास्त्रीय विधिवेत्ताओं और धर्मशास्त्र के जानकारों द्वारा अमल में लाया जाता था, का मौजूदा पीढ़ी द्वारा भी पालन किया जाना चाहिए। भारत के मुसलमानों में यह जागरूकता पैदा होनी चाहिए कि वे हिंदुओं के साथ इस आधार पर सौहार्दपूर्ण संबंध विकसित कर सकते हैं कि वे एक-दूसरे की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं, भावनाओं और रीति-नीतियों का सम्मान करेंगे। जहां तक समान नागरिक संहिता के प्रारंभिक चरण के रूप में पर्सनल लॉ में सुधार लाने का सवाल है तो मुस्लिमों को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी ऐसी चीज का विरोध न करें, जिसके भविष्य के स्वरूप के बारे में वे जानते ही न हों।

19 मई 1950 को एक निजी भेंट में सरदार वल्लभभाई पटेल ने सैफुद्दीन किचलू से कहा था, ‘बहुसंख्यक समुदाय की सद्भावना ही अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सर्वश्रेष्ठ नीति होनी चाहिए।’ मुस्लिमों को पारसी समुदाय से सबक सीखने की जरूरत है, जो भारत में शायद सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला समुदाय है। अपने धर्म की विलक्षणता और अपने अधिकारों के बारे में बिना कोई शोर-शराबा मचाए पारसियों ने कानून, उद्योग, व्यवसाय, चिकित्सा, पत्रकारिता, विज्ञान और बैंकिंग के क्षेत्र में देश को महान विभूतियां दी हैं

मिस्र : अपनी-अपनी चिंताएं


Source: श्रवण गर्ग   |   Last Updated 07:22(07/02/11)
 
 
 
 
 
 
मिस्र को लेकर अमेरिका और उसके नाटो मित्रों की चिंता में यह भी शामिल है कि काहिरा अल-कायदा जैसे संगठनों का गढ़ बन सकता है और अनवर सादात के बाद पश्चिम एशिया में शांति स्थापना के प्रयास खतरे में पड़ जाएंगे। इसकी पहली मार इजरायल पर पड़ेगी। 

मिस्र में वहां के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के प्रति व्यक्त हो रहे राष्ट्रीय जनआक्रोश को भारतीय संदर्भो में किस तरह से देखा या व्यक्त किया जा सकता है? क्या मिस्र की जनक्रांति को आजादी की लड़ाई के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? भारत में जब स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई अपने चरम पर थी और गांधीजी के नेतृत्व में अंग्रेजों पर भारत छोड़ने के लिए दबाव बढ़ने लगा, तब उन्होंने वही तर्क दिया जो मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक अपनी जनता को दे रहे हैं। मुबारक का कहना है कि वे अगर सत्ता से हट जाएंगे तो मिस्र में अराजकता फैल जाएगी। अंग्रेजों ने भी गांधीजी को यही तर्क दिया था कि उनके चले जाने के बाद भारत में अराजकता का साम्राज्य हो जाएगा। गांधीजी ने तब जवाब दिया था कि वे अंग्रेजों की गुलामी की बजाय देश में अराजकता ज्यादा पसंद करेंगे। 

अंग्रेज जिस अराजकता का हवाला दे रहे थे, वह वास्तव में राष्ट्रवाद की लहर थी, जो हर तरह के पश्चिमी आधिपत्य को देश से बाहर कर देना चाहती थी, जो पश्चिम के वैचारिक साम्राज्यवाद के भी खिलाफ थी। मिस्र के पहले ट्यूनीशिया में जो कुछ हुआ, वह यूरोपीय आधिपत्य के खिलाफ वहां की जनता का संघर्ष था। इस आधिपत्य की अगुआई ट्यूनीशिया में फ्रांस कर रहा था। मिस्र के जनआंदोलन की तीव्रता और उसके परिणामों से मुखातिब होने में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और अमेरिका से प्रभावित तमाम राष्ट्रों को एक सप्ताह से ज्यादा का वक्त लगा तो कल्पना की जा सकती है कि पश्चिमी देशों के लिए काहिरा में दांव पर क्या लगा है। अमेरिका और पश्चिमी राष्ट्रों को मिस्र के परिणामों में इस्लामी कट्टरपंथियों के सत्ता में काबिज होने का खतरा दिखाई दे रहा है जो कि हाल-फिलहाल के लिए देश में प्रजातंत्र की स्थापना की मांग के रूप में व्यक्त हो रहा है। अंग्रेजों को भी डर रहा होगा कि उनके जाते ही एशिया के प्रमुख मुल्कों में से एक भारत अपने आपको कट्टरपंथी हिंदू राष्ट्र में तब्दील कर लेगा। अगर होस्नी मुबारक को तीस वर्षो से सत्ता में बनाए रखना अरब संसार में पश्चिमी हितों को पोषित करते रहने की कोई साजिश नहीं थी तो मिस्र के जनआंदोलन का प्रजातंत्र और मानवाधिकारों की रक्षा के आधार पर समर्थन करना भी बेमायने है। वास्तविक खतरा यह है कि ट्यूनीशिया और मिस्र के बाद जनता की नाराजगी उन तमाम मुल्कों को अपनी गिरफ्त में ले सकती है, जहां की हुकूमतें पश्चिमपरस्त हैं। यानी कि अरब क्षेत्र में एक नए प्रकार का शक्ति संतुलन कायम हो सकता है, जो अपनी शर्तो पर अपना उपभोक्ता बाजार भी उपलब्ध कराएगा और अपनी ही शर्तो पर अपने संसाधनों का दोहन भी होने देगा। 

मिस्र को लेकर अमेरिका और उसके नाटो मित्रों की चिंता में यह भी शामिल है कि काहिरा अल-कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों का गढ़ बन सकता है और अनवर सादात के बाद पश्चिम एशिया में शांति स्थापना की दिशा में किए गए तमाम प्रयास खतरे में पड़ जाएंगे। इसकी पहली मार इजरायल पर पड़ेगी। समझा जा सकता है कि मिस्र के घटनाक्रम को लेकर प्रतिक्रिया देने में जितनी सावधानी बराक ओबामा द्वारा बरती गई, उससे कहीं ज्यादा इजरायल में नेतन्याहू द्वारा प्रदर्शित की गई। अत: मिस्र में जो कुछ भी हो रहा है, उसके सारी दुनिया की राजनीति पर दूरगामी परिणाम होने वाले हैं। एक नए प्रकार का शक्ति ध्रुवीकरण आने वाले वर्षो में देखने को मिल सकता है। 

मिस्र के जनआंदोलन की लहर अरब मुल्कों के साथ ही अफ्रीका के उन राष्ट्रों की हुकूमतों के सामने संकट खड़ा कर सकती है जहां जनआकांक्षाओं के साथ दशकों से धोखाधड़ी की जा रही है। आश्चर्यजनक नहीं कि मिस्र के जनआंदोलन से संबंधित तमाम खबरों को चीन में प्रतिबंधित कर दिया गया है। बहुसंख्यक चीनी नागरिकों के लिए मिस्र पूर्व की तरह से ममियों और पिरामिडों के देश के रूप में ही कायम है, पर शक किया जा सकता है कि यह स्थिति लंबे समय तक कायम रह सकेगी। मिस्र में प्रजातंत्र की स्थापना के लिए चल रहे आंदोलन का एक रोचक पहलू यह भी है कि एक ओर ओबामा प्रशासन वर्तमान सरकार को अपनी ही कठपुतली मानता रहा है और मुबारक के बाद अपने ही किसी समर्थक को सत्ता में देखना चाहता है। राष्ट्रपति होस्नी मुबारक आरोप लगा रहे हैं कि उन्हें हटाने की मांग करने वाले युवा इजरायल के पिट्ठू हैं जिन्हें अमेरिका और कतर में प्रशिक्षण दिया गया है। दूसरी ओर मुबारक द्वारा ही जनआंदोलन के पीछे ईरान का हाथ भी बताया जा रहा है, जो कि कट्टरपंथी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड को उनके खिलाफ मदद दे रहा है। यानी कि मिस्र के नागरिकों की समूची लड़ाई को या तो अमेरिकी-इजरायली षड्यंत्र या फिर धार्मिक साम्राज्यवादी संघर्ष में बदला जा रहा है। इतने व्यापक जनआंदोलन का विरोध करने के लिए मुबारक समर्थकों का सेना के साए में हिंसक तरीके से सड़कों पर उतर आना, वह भी 25 जनवरी को प्रारंभ हुए प्रदर्शनों के इतने दिन बाद कई तरह के संदेहों को जन्म देता है। 

इस बात पर भी गौर किया जा सकता है कि निगरुट देशों के आंदोलन, अफ्रीकी यूनियन और इस्लामिक कांफ्रेंस संगठन जैसे बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने मिस्र के शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ मुबारक सरकार द्वारा इस्तेमाल की जा रही हिंसा की कोई आलोचना नहीं की है। भारत ने भी एक लंबी चुप्पी के बाद नपे-तुले शब्दों में ही मिस्र के घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। मिस्र में जो कुछ चल रहा है उसका एक भारतीय संदर्भ यह भी है कि जनता के स्तर पर भी हम वहां के आंदोलन और आंदोलनकारियों की पीड़ाओं से बहुत दूर हैं। वहां के जनआंदोलन को लेकर हमारी चिंताएं केवल अपने इस स्वार्थ तक ही सीमित हैं कि कहीं पेट्रोल और डीजल के दाम और नहीं बढ़ जाएं

मिस्र में एक झूठ का धराशायी होना



Source: एम जे अकबर   |   Last Updated 00:05(06/02/11)
 
 
 
 
 
 
तानाशाहियां अभिजात वर्ग के बीच क्रम स्थापना की तरह होती हैं। जैसा कि हुस्नी मुबारक के मामले में हुआ, उनकी शुरुआत लॉटरी खुलने की तरह होती है। अगर परेड के दौरान एक सैनिक ने अनवर सादात की हत्या न की होती, तो मुबारक सीने पर कुछ मैडल लटकाए साधारण जनरल के रूप में गुमनामी में ही रिटायर हो गए होते। मुबारक ने अपना शासन एक झूठ के साथ शुरू किया था, वे लोकतंत्र का वादा कर रहे थे, जबकि उन्होंने साधनों और संस्थानों को अपने हिसाब से व्यवस्थित किया, जिसने उन्हें तीन दशकों तक शक्तिसंपन्न बनाए रखा। वे अब एक और झूठ को टिकाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे सितंबर में शांति से चले जाएंगे। 

सेना ने मुबारक को असरदार मदद तो उपलब्ध कराई है, लेकिन कुछ दूरी बनाते हुए, क्योंकि मिस्र में अनिवार्य सैन्य भर्ती है और सेना नागरिकों के साथ अपना जुड़ाव नहीं खोना चाहती। नौकरशाही ने फाइलें दबाईं और फायदे उठाए। मीडिया ने मुबारक की भाषा बोली और महल के मध्यस्थों की खूब खुशामद की। 

जनता के लिए यह अलग कहानी थी। मुबारक के मिस्र में डर की जहरीली धुंध छाई थी। जिसने भी मानवाधिकार या राजनीतिक अधिकारों की मांग की, जेल में डाल दिया गया। अव्यवस्था को बुलावे के नाम पर लोकतंत्र को खारिज कर दिया गया था। मुबारक का पहला बहाना मुबारक का आखिरी बहाना बना हुआ है। यह स्वयंसिद्ध है कि तानाशाह अपने ही लोगों के लिए घृणा और उपेक्षाभाव रखता है, क्योंकि वह सामूहिक रूप से उन पर भरोसा नहीं कर सकता। अपनी बात पर अड़े असहमत लोग या जिन्होंने सेकुलर विपक्ष को संगठित करने का दुस्साहस किया, वे समझौतावादी न्याय व्यवस्था का कोई लिहाज न करने वाली भयंकर गुप्तचर सेवा ‘मुखबरत’ द्वारा उठा लिए गए। इसका उद्देश्य सिर्फ शिकार को मिटा देना नहीं था, बल्कि हर उस व्यक्ति तक संदेश पहुंचाना था, जो बदलाव में मूर्खता की हद तक विश्वास रखता है। 

पिछले दशक में केवल मुबारक ही नहीं, उनके बेटे जमाल भी देश पर छाए रहे, जिनकी एकमात्र योग्यता मुबारक का पुत्र होना ही है। यह मुबारक के अनुकूल था कि एकमात्र विपक्ष के तौर पर मुस्लिम भ्रातृत्व को बर्दाश्त कर लें (बेशक, पैमानों के भीतर)। वे उन्हें अपने विकल्प के रूप में दिखाकर पश्चिम से चयन के लिए कह सकते थे। अमेरिका और यूरोप ने खुद को समझा लिया कि इजराइल की सुरक्षा के लिए मिस्री जनता के दमन की कीमत वाजिब है। मिस्र के शासक वर्ग ने फिलीस्तीन के एक स्वतंत्र राष्ट्र के सपने को इस तरह उदासीन कर दिया कि वह सपना ही बना रहे। अमेरिका प्रायोजित काहिरा-तेजअवीव डील ने मौजूदा राष्ट्रों के मध्य दर्जे और उनके वंशानुगत शासन को तो बनाए रखा, लेकिन फिलीस्तीन की जगह को वृक्ष दर वृक्ष, बाग दर बाग, गज दर गज, साल दर साल, परिनिर्धारण और परिनिर्धारण करके काटा। 

यह एक शानदार फंदा था। यह फंदा खुलकर सामने आ गया है। मुबारक दो चीजें नहीं कर सके, जिनमें से दूसरी के मुकाबले पहली, तार्किक तौर पर उनके लिए कम खतरनाक थी। वे हर शुक्रवार को होने वाली मुस्लिम सामूहिक प्रार्थना पर प्रतिबंध नहीं लगा सके। ये हजारों लोगों की आम बैठक बन गईं- ईश्वर के प्रति श्रद्धा में एकजुट, लेकिन उस व्यक्ति के प्रति संदेह बढ़ रहा था, जिसने काहिरा पर अपना अधिकारवादी शासन थोप रखा था। यह महज संयोग नहीं है कि नमाज काहिरा के तहरीर चौक पर बार-बार दोहराए जाने वाले विरोध का प्रतीक बन चुकी है। मुबारक मिस्री हास्यबोध पर सेंसर भी नहीं लाद सके। लतीफे विरोध का शानदार हथियार बन गए हैं। मुखबरत लाचार है। लतीफे का कोई लेखक नहीं होता। आप श्रीमान अनाम को कैसे जेल भेजेंगे? 

जनता से मुकाबले के दौरान राज्य को कई सुविधाएं होती हैं। वह व्यवस्था बनाए रखने के बहाने कानून में तोड़-मरोड़ कर सकता है, यहां तक कि तब भी, जब यही अव्यवस्था की मुख्य वजह हो। एक तानाशाह को तो और भी फायदे होते हैं। तानाशाह हिंसा को उकसा सकता है और उस हिंसा को आसन्न अव्यवस्था की भविष्यवाणी के तौर पर पेश कर सकता है। मुबारक के पूर्वनियोजित पासे का यह आखिरी दांव है। शुरुआत की स्थिति पर वापस पहुंचने के लिए तानाशाह के पास कई रास्ते होते हैं। लोकतंत्र के अपने क्षितिज की ओर जाने के लिए जनता के पास सिर्फ एक राह होती है। मिस्र कंपकंपा रहा है। यदि जनता विफल होती है, तो देश खतरनाक रसातल में जा गिरेगा।

एम.जे. अकबर
लेखक द संडे गार्जियन के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं

'पाटील को राष्‍ट्रपति बना कर सोनिया ने दिया इंदिरा जी की रसोई संभालने का ईनाम'

 
Source: bhaskar network   |   Last Updated 10:15(09/02/11)
 
 
 
 
 
 
 
पाली. देश के सर्वोच्च पद पर आसीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील किसी जमाने में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के घर में रसोई बनाती थीं। इसी वफादारी के नतीजे में कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें राष्ट्रपति बना दिया। यह चौंकाने वाला बयान राजस्‍थान के पंचायती राज और वक्फ राज्यमंत्री आमीन खां ने मंगलवार को दिया।

वे मानपुरा भाखरी पर स्थित जगदंबा माता मंदिर में आयोजित जिला कांग्रेस कमेटी की बैठक में बोल रहे थे। कांग्रेस नेताओं ने आलाकमान तथा कुछ पदाधिकारियों द्वारा कार्यकर्ताओं को तवज्जो नहीं देने के आरोप लगाए। इस पर आमीन खां ने यह कहते हुए कार्यकर्ताओं को संबल दिया कि आपातकाल के दौरान प्रतिभा पाटील पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के घर में रसोई बनाने का कार्य करती थी।

उनकी वफादारी का नतीजा देर से ही सही, पर मिला जरूर। जब राष्ट्रपति के चयन की बात आई तो सोनिया गांधी ने पाटील की उसी वफादारी को देखते हुए उनका नाम लिया। खां ने कहा कि पाटील की तरह सभी कार्यकर्ता निस्वार्थ भावना से कार्य करते रहें। ना मालूम कब किसी के घर फोन आ जाए कि आपको एमएलए या एमपी का चुनाव लड़ना है।

कोट्स

' संवैधानिक पद पर बैठी हस्ती के लिए अशोभनीय टिप्पणी करना उचित नहीं है। खां को राष्ट्रपति की मर्यादा का खयाल रखना चाहिए।'
- राजेंद्र राठौड़, सचेतक, भाजपा विधायक दल 

' पाटील की योग्यता पर सवाल कैसे उठाया जा सकता है। मंत्री को ऐसे बयान नहीं देने चाहिए। उन्हें मर्यादा में रहना चाहिए। '  
प्रतापसिंह खाचरियावास, विधायक, कांग्रे

प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पर पार्टी और वरिष्ठ नेताओं की छवि धूमिल करने के गंभीर आरोप

प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पर प्रदेश महासचिव कुलजीत चहल पार्टी और वरिष्ठ नेताओं की छवि धूमिल करने के गंभीर आरोप बीते 20 साल से सत्ता का बनवा...