Thursday, January 3, 2013

मतदाता के महात्मा मोदी


ईमानदार से कहें तो अपने मुंह से एक दुर्वचन निकलने से रोक सका। मोदी की जीत के बाद टीवी पर एक विशेषज्ञ कह रहा था कि नरेंद्र मोदी और उनकी चुनावी जीत भारत के संविधान के खिलाफ है। दूसरा कह रहा था कि गुजरात का फैसला भारत की अतंरात्मा के विरुद्ध है और इसकी वजह सेआइडिया ऑफ इंडियाकिस तरह खतरे में है। हमेशा से मेरी सोच रही कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संविधान, लोकतंत्र और 'आइडिया ऑफ इंडिया ' का उत्सव है। तो यह सब बेवकूफी भरी बाते किसलिए? जितने भी समाचार चैनलों को देखा मुझे बड़ी सहजता से यह अहसास हो गया कि ये लोग मोदी की जीत से बहुत दुखी हैं और अगर मोदी हारते तो उन्हें ज्यादा अच्छा लगता। मैने यह भी महसूस किया कि वे मोदी से तर्कहीन तरीके से नफरत करते हैं। उदाहरण के तौर पर, एक व्यक्ति तो इसी बात पर गया कि मोदी बुरे हैं क्योंकि वह व्यक्तिवाद को प्रोत्साहित करते हैं जो उनके ही इर्द-गिर्द घूमता है।

इत्तेफाक से उस टीवी पैनल में किसी ने यह नहीं कहा कि सरकार ने 60 से अधिक कल्याणकारी योजनाओं के नाम गांधी परिवार के नामों पर रख रखे हैं। यह व्यक्तिवाद नहीं तो और क्या है? किसी दूसरे चैनल पर किसी और ने कहा कि मोदी का रवैया तानाशाही है और उनके अंतर्गत तो किसी का नेतृत्व पनप सकता है किसी की आवाज को बल मिल सकता है। फिर मैने सोचा, कांग्रेस शासित किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री क्या अपने केंद्रीय नेतृत्व के फैसले को अनसुना कर सकता है? अगर ऐसा होता है तो उसका भविष्य क्या होगा? इस मामले में मुझे ईमानदारी से लगता है कि कांग्रेस के युवा नेताओं में सचिन पायलट से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया और मिलिंद देवड़ा तक में देश संभालने के लिए राहुल गांधी की तुलना में बेहतर क्षमता है। लेकिन किसी भी टीवी चैनल पर एक भी पैनलिस्ट ने इस बाबत कभी कुछ नहीं कहा।

चलिए कुछ मुख्य बिंदुओं पर आते हैं: पहली बात यह है कि ज्यादातर अंग्रेजीदां मीडिया वाले नरेंद्र मोदी से नफरत करते हैं। चलिए ये भी ठीक है। पत्रकारों को भी किसी से नफरत करने का अधिकार है। लेकिन मैं सोच रहा था कि जिस तरह से कई वरिष्ठ पत्रकार शिकायत कर रहे थे, आखिर मोदी की जीत भारत को कैसे नष्ट कर सकती है। तो मैंने अपने सहयोगियों से पूछा कि वे ऐसी वजहों को ढूंढ़े जिसके कारण अंग्रेजी पत्रकार मोदी से नफरत करते हैं। नतीजे दिलचस्प थे। पहला कारण यह था कि मोदी मुस्लिम विरोधी और सांप्रदायिक है। साथ ही साथ यह भी कि मोदी ने 2002 के दंगों के लिए कभी माफी नहीं मांगी है। दूसरा कारण यह कि मोदी केवल खुद को पेश करने में रुचि रखते हैं। तीसरा कारण यह है कि वह तानाशाह और फासीवादी है। चौथा कारण यह है कि पत्रकार दावा करते कि विकसित गुजरात का उनका दावा खोखला है।

जरा इसकी विडंबना देखिए, मोदी का अभियान पहचान पर आधारित हो तो वे फासीवादी और सांप्रदायिक शैतान है, अगर वे विकास के ट्रैक रिकॉर्ड पर अभियान चलाते हैं तो ऐसे आंकड़ों का अंबार लगा दिया जाता है कि अन्य राज्यों ने गुजरात की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है या फिर गुजरात का सामाजिक संकेतकों पर प्रदर्शन बेहद बुरा रहा है। अब यह समझ से बाहर है। कुछ समय पहले तक मैंने किसी भी प्रमुख पत्रकार या मीडिया आउटलेट को गुजरात में सामाजिक विकास के तथाकथित दयनीय सामाजिक संकेतकों की ओर इशारा करते हुए देखा सुना हो, याद नहीं है। लेकिन जैसे ही मोदी ने घोषणा कि कि पूरे चुनाव अभियान का आधार अपने सुशासन और विकास के ट्रैक रिकॉर्ड को बनाएंगे, वहां सैकड़ों कहानियां फैलाई जाने लगी कि किस तरह उन्होंने गुजरातियों का उतना विकास नहीं किया है जितना कि वे दावा कर रहे हैं। मेरे सहयोगी सुतनु ने मुझे इंडियन एक्सप्रेसमें प्रताप भानु मेहता का लिखा लेख भेजा। मैंने उसे पढ़ा तो एहसास हुआ कि इस बारे में अचरज करनेवाला मैं अकेला नहीं हूं कि अंग्रेजी मीडिया मोदी से अतार्किक तरीके से नफरत क्यों करता है। सच यह है कि यह भारत और इंडिया के बीच की लड़ाई है। मेरे अनुसार नरेंद्र मोदी भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। जबकि अंग्रेजी मीडिया इंडिया का। मैं यह क्यों कह रहा हूं।

सीधी सी बात यही है कि अंग्रेजी मीडिया अब भी पुराने सामंती सोच का हामी है जहां कुछ लोगों का ही दावा है कि सिर्फ उन्हें ही पता है कि भारत और भारतीयों दोनों के लिए क्या सबसे बेहतर है। दूसरी ओर, मोदी दूसरे इंडिया-भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो अंग्रेजी मीडिया के जकड़ भरे एकाधिकार और जानकारी और सूचना तथा संदेशों पर उनके धर्मनिरपेक्ष योद्धाओं की हरकतों से निराश हैं। फर्क साफ है: अंग्रेजी मीडिया ने मोदी को ध्वस्त करने में तब कोई कसर नहीं छोड़ी जब उन्होंने शशि थरूर की महिला मित्र सुनंदा पुष्कर के बारे में बात छेड़ी थी। लेकिन जब संजय निरुपम टीवी पर स्मृति ईरानी के साथ घृणित बर्ताव करते हैं तो महिला पत्रकार तक विरोध नहीं करतीं। जिस तरह के लोगों का मोदी प्रतिनिधित्व करते हैं वे पाखंड और बेशर्मी भरे इस दोहरे मानक को खूब समझते हैं। और अगर आप चुनाव परिणामों की बात करते हैं, वे कतई प्रभावित नहीं होते हैं। लेकिन यह असली अलगाव है और इंडिया और भारत के बीच एक युद्ध जारी है कि इंडिया क्या है। भारत क्या है? यदि आप अंग्रेजी मीडिया की परिभाषा से समझे तो, भारत एक बनावटी देश है जो बनना ही नहीं चाहिए था। उनकी और अरुंधति रॉय जैसे उनके चीयरलीडर्स, की नजर में भारत लाख दंगों से ग्रस्त है जिसके अस्तित्व की कोई उम्मीद नहीं है।
इसके अलावा, अंग्रेजी मीडिया की नजर से दुनिया को देखने वालों के पास 67 बरस पुराना नेहरूवादी नेटवर्क है जो वक्त जरूरत काम आता है। इसके ठीक विपरीत, वे लोग हैं जो सही मायने में मोदी का समर्थन करते हैं- मैं उन नए धर्मान्तरि, शिक्षित मध्यम वर्ग के लोगों की बात नहीं कर रहा हूं जो अंग्रेजी बोलने में असहज महसूस करते हैं, भले ही अपने जीवन में भरपूर सफल रहे हों। जब कार्यक्रम में फर्राटेदार शानदार अंग्रेजी बोली जाने लगती है तो वे बड़ी सहजता से बहस को खारिज कर देते हैं। कुछ ही देर पहले मैंने नहरूवादी नेटवर्क का उल्लेख किया था। मेरा इससे क्या तात्पर्य है? मुझे लगता है कि नेहरूवाद नेटवर्क मोटे तौर पर उसे कहा जा सकता है जो भारत में 1947 से पहले काम कर रहा था। मैं सोचता हूं कि यह मूल रूप से उन विचारों और ऐसे लोगों का सामुच्च्य है जिनका विश्वास है कि अंग्रेजी द्वारा स्थापित प्रणाली सबसे बेहतर थी। वे असलीब्राउन साहेबहैं। वे वही सब कुछ लिखते या प्रचारित करते हैं जो पश्चिमी मीडिया में प्रकाशित होता है। वे उपन्यास और पुस्तकों के माध्यम से भारत पर प्रहार करना पसंद करते हैं। वे पूरी तरह से आश्वस्त हैं कि भारतीयों को थोड़ी तमीज की दरकार है।

जब उमा भारती या मायावती अथवा मोदी जैसे नेता कहीं से उभरते हैं और पूरे गर्व के साथ अंग्रेजी बोल पाने की कमजोरी की घोषणा करते हैं तथा उसके बावजूद अपने मतदाताओं को अपनी सही बातें भली-भांति समझा पाते हैं तो वे आंहे भरते हुए मुंह दबाकर हंसते हैं। आखिर निचला तबका इतना ताकतवर कैसे हो गया, नेहरूवादी नेटवर्क यह बात आसानी से नहीं समझ सकता हैं। आपने देखा, जब केवल नेताओं और नौकरशाहों के बच्चे जो बेहतर और निर्दोष अंग्रेजी में बात करते थे, राष्ट्र के लिए एजेंडा नियत करते थे तो कितना बेहतर था।

मेरे सहयोगी सुतनु ने मुझे एक ट्वीट फार्वर्ड किया जिसमें किसी पत्रकार ने दिवाली से पहले बेहद आक्रमक और शर्मनाक तरीके से राम नाम का इस्तेमाल किया था। सुतनु ने कहा कि कुछ नहीं होगा और सचमुच कोई दंगा नहीं हुआ। मेरे लिए, उस देवता के लिए जिसे हिंदू एक भगवान के रूप में पूजते हों इस तरह का अपशब्द लिखना बेहद भड़काऊ था। पर वास्तव में कुछ नहीं हुआ। लेकिन तब मुझे एहसास हुआ कि क्यों मोदी को 2002 के लिए हमेशा के लिए दोषी मान लिया जाता है, भले ही सुप्रीम कोर्ट का कहना हो कि वह दोषी नहीं हैं।

चलिए क्योंकि भारत और इंडिया के बीच खाई कभी खत्म नहीं होगी। मैं ऐसी पार्टियों में जाता हूं जहां मेरे मित्रउन निचले तबके के लोगोंके बारे में उपहासपूर्वक बात करते हैं। उन्हें कोई अपराधबोध नहीं होता कि वे साथी भारतीयों के बारे में बात कर रहे हैं। उनके लिए, भारत वहीं है, जहां और जैसे वे रहते हैं। लेकिन समस्या यह है कि नरेंद्र मोदी जैसे लोग विशेषाधिकार प्राप्त सामंती समूह को चुनौती दे रहे हैं। आप देख सकते हैं कि इस सामंती समीकरण को अटल बिहारी वाजपेयी भी चुनौती नहीं दे सके थे। कोई आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजी मीडिया मोदी से इतनी नफरत करता है।

इंडिया और भारत के बीच की यह लड़ाई 1980 में शुरू हुई। इस दौरान देश के लिए लड़नेवाले कई नायक-नायिकाएं उभरी। मोदी पहले व्यक्ति हैं जो भारत की ओर से आक्रामक तरीके से लड़ रहे हैं और वह जीतते भी नजर रहे हैं। ऐसे भारत की कल्पना कीजिए जहां कांग्रेस के चमचे. जेएनयू के बुद्धिजीवियों और उनके साथी पिछलग्गुओं के लिए दिल्ली की सत्ता तक की पहुंच नहीं होगी। कोई आश्चर्य नहीं कि धर्मनिरपेक्ष अंग्रेजी मीडिया नमो से इतनी शिद्दत के साथ नफरत करता है।

मुझे लगता है कि महात्मा गांधी के जमाने के बाद भारत में यह सबसे दिलचस्प राजनीतिक लड़ाई होगी। उन्होंने नेहरू और वल्लभ भाई पटेल (एक गुजराती, जो दूसरे स्थान पर रहे) के समर्थन में उसका फैसला किया। आज कोई महात्मा गांधी नहीं हैं, केवल मतदाता है। तो फिर राहुल गांधी या मोदी? राहुल बनाम मोदी की संभावना तलाशने संबंधी सर्वेक्षण करने वाले हम सबसे पहले थे और उसमें मोदी निश्चित विजेता रहे थे। यदि आपकों संदेह है तो महा संघर्ष देखते रहिए! इस बार जीत भारत के भाग्य में है

अरिन्दम चौधरी 

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