Friday, January 28, 2011

एक नई खिचड़ी बोली का उद


 
 
हमें शायद पूरी तरह इसका अंदाजा न हो, लेकिन भारत और पाकिस्तान का शिक्षित मध्य वर्ग एक नए किस्म की भाषा ईजाद कर रहा है, जो अंग्रेजी और हिंदुस्तानी का घालमेल है। लाहौर की मोनी मोहसिन इस खिचड़ी भाषा की मुख्य प्रतिनिधि हैं। उनकी पुस्तक द डायरी ऑफ ए सोशल बटरफ्लाय के अंश नियमित रूप से अखबारों में प्रकाशित होते रहे हैं। उनकी लेखन शैली बहुत रोचक है। वे हाल ही में अपनी दूसरी किताब टेंडर हुक्स (रैंडम हाउस से प्रकाशित) के विमोचन के लिए दिल्ली आई थीं। मैंने उनकी पहली किताब को ‘मजेदार’ बताया था। उनकी दूसरी किताब को मैं ‘मजे की इंतहा’ कहना चाहूंगा। किताब की मुख्य थीम है एक कुंवारे नौजवान के लिए उपयुक्त दुल्हन की तलाश। दुल्हन का खानदानी और खूबसूरत होना जरूरी है। साथ ही वह ऐसी भी होनी चाहिए, जो अपने साथ खासा दहेज लेकर आए। कहानी का एक बड़ा हिस्सा लड़के के परिवार की औरतों के बीच होने वाली बातचीत पर केंद्रित है। मैं यहां किताब के पहले अध्याय से एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूं :

‘तुम जोंकर्स को जानती हो ना? ओह बाबा, तुम्हारी याददाश्त को क्या हो गया है? तुम हमारे बूढ़े अंकल की तरह सबकुछ भूलती जा रही हो। ठीक है, मैं तुम्हारे लिए एक बार फिर बता देती हूं, लेकिन यह आखिरी मर्तबा है। जोंकर्स मेरा मौसेरा भाई है। पूसी मौसी की इकलौती औलाद।’ ‘लेकिन पूसी मौसी कौन हैं?’ ‘ओहो, मुझे तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा है। अगली बार तुम पूछोगी कि तुम्हारा खुद का नाम क्या है। पूसी मौसी मम्मी की मौसेरी बहन हैं। उन दोनों की मम्मियां बहनें थीं। बूढ़े अंकल पूसी मौसी के पिता हैं।’

‘अच्छा तो मैं क्या कह रही थी? हां, जोंकर्स। कल रात उसकी सैंतीसवीं सालगिरह थी और पूसी मौसी मुझे, मम्मी और जोंकर्स को कुक्कू के रेस्टोरेंट ली गईं। यह रेस्टोरेंट पुराने शहर में बादशाही मस्जिद के करीब है। मुझे कुक्कू इसलिए अच्छा लगता है, क्योंकि सब उसे ‘तबाही’ कहकर पुकारते हैं। फॉरेनर्स तो इस पर बस फिदा ही हैं। लाहौर में मानव बमों के हरकत में आने से पहले वे बड़ी तादाद में यहां आया करते थे। अलबत्ता यह जरा बुरी बात है कि कुक्कू पुराने शहर में है, जहां के टॉयलेट्स बहुत बदबूदार हैं। लेकिन जो तवायफें पहले डायमंड मार्केट के करीब पाई जाती थीं, वे अब डिफेंस हाउसिंग सोसायटी की छोटी-छोटी कोठियों में शिफ्ट हो गई हैं। ये कोठियां उनके सियासी बॉयफेंड्रों ने उन्हें खरीदकर दी हैं। शुक्र है कि अब पुराने शहर में बुरे किस्म के किरदारों से हमारा सामना नहीं होता, बशर्ते वे कोई मानव बम न हों। इन मानव बमों के लिए हमारी फौज जिम्मेवार है, जिसकी वजह से आतंकवादी पूरे मुल्क में आराम से घूम-फिर रहे हैं। ‘कुक्कू के साथ एक और गड़बड़ यह है कि उसकी छत तक पहुंचने के लिए पचपन हजार सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं, अलबत्ता वहां से दिखने वाला नजारा बेहतरीन है। यहां से सीधे मस्जिद के बरामदे में देखा जा सकता है। हालांकि धुएं के कारण हम कुछ नहीं देख सके। लाहौर की तीन ही सबसे बड़ी परेशानियां हैं : धुआं, ट्रैफिक और आतंकवादी। बाकी सब ठीकठाक है।

‘बहरहाल, पूसी मौसी ने जानू को भी डिनर पर बुलाया था। अगर तुम यह भी भूल चुकी हो कि वे कौन हैं तो मैं तुम्हें बता दूं वे मेरे शौहर हैं। लेकिन वे अपने गांव शार्कपुर में थे। ठीक है, ठीक है, मुझे कहना चाहिए हमारा गांव, क्योंकि मैं उनकी बीवी हूं। लेकिन शुक्र है कि वह वास्तव में मेरा गांव नहीं है और मैंने तीन साल से उसकी तरफ मुड़कर भी नहीं देखा है। जानू अपना आधा वक्त वहीं बिताते हैं। वे वहां खेत और आम-संतरे के बाग की देखभाल करते हैं। लेकिन चूंकि खेतीबाड़ी से मेरा कोई नाता नहीं है और मेरा काम केवल उस पैसे को खर्च करना है, जो खेतीबाड़ी से हमें मिलता है, लिहाजा मेरे लिए तो यही बेहतर होगा कि मैं लाहौर में रहूं। आखिर यहां इतने शानदार बाजार जो हैं। पूसी मौसी ने कुलचू को भी बुलाया था, लेकिन उसने यह कहकर इनकार कर दिया कि वह अपना होमवर्क कर रहा है। हालांकि मेरा ख्याल है कि वह फेसबुक पर मसरूफ था। ऐसा नन्हा किताबी कीड़ा है मेरा प्यारा बेबी।’

मोहसिन लाहौर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक फ्राइडे टाइम्स के लिए नियमित रूप से लिखती हैं। उनके उपन्यास द एंड ऑफ इनोसेंस के लिए उन्हें पुरस्कृत भी किया जा चुका है।

हमारी डाक सेवाएं : भुवनेश्वर में रहने वालीं श्रीमती राव मेरे लेखन के बारे में अपनी राय व्यक्त करना चाहती थीं, लेकिन उनके पास मेरा पता नहीं था। लिहाजा उन्होंने मेरे नाम के आगे लिख दिया : ‘पगड़ीवाले’। मेरा पता भी उन्होंने कुछ इस तरह लिखा : ‘ए बी से वाई जेड एवेन्यू, नईदिल्ली’। हमारी डाक सेवाओं में काम करने वाले किसी सज्जन ने उनकी इस कारस्तानी को दुरुस्त किया और मेरा सही पता लिखकर मुझे उनका पत्र भेज दिया। मैं डाक विभाग की इस कुशलता से बहुत प्रभावित हुआ था। 

बीस साल पहले तक मैं किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता था, जिसका नाम भी मेरी तरह खुशवंत सिंह हो। लेकिन अब टेलीफोन डायरेक्टरी में कई खुशवंत सिंह हैं। कभी-कभार मुझे कुछ ऐसे खत भी मिल जाते हैं, जो मेरे लिए नहीं हैं। मुझे मिलने वाले बहुत से पत्र ऐसे होते हैं, जिन पर पते के तौर पर केवल नई दिल्ली लिखा होता है। जब ऐसे पत्र भी मेरे घर पहुंच जाते हैं तो मैं हमारी डाक सेवाओं के प्रति सराहना के भाव से भर जाता हूं। 

अस्सी के दशक में जब पंजाब में भिंडरावाला सक्रिय थे, तब मुझे कनाडा में बसे उनके एक समर्थक का पत्र मिला। पत्र गुरमुखी में लिखा हुआ था और उसमें मुझे भारी-भरकम गालियां दी गई थीं। पत्र पर अंग्रेजी में यह पता लिखा था : ‘नालायक खुशवंत सिंह, भारत’। हमारे डाक विभाग में से किसी सज्जन ने इस पत्र को भी मुझ तक पहुंचा दिया। मेरे मन में हमारी डाक सेवा के लिए इज्जत और बढ़ गई।

खुशवंत सिंह
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं

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