सांप्रदायिक दंगे गंभीर चिंता का विषय है 1947 के पूर्व इन दंगो के लिए हम
अंग्रेज को दोष देकर हम अपना दायित्व ख़तम कर लेते थे | आजादी के प्राप्ति और
पाकिस्तान की सथापना के 6 दसक बाद भी अगर दंगा होता है तो ये गंभीर चिंता का विषय
है इसे हमें जल्द ही सुलझाना होगा |
धर्मों के उन्माद फैलाकर सत्ता हासिल करने की हर कोशिश साम्प्रदायिकता को
बढ़ाती है , चाहे वह कोशिश किसी भी व्यक्ति , समूह या दल के द्वारा क्यों न होती हो
। थोक के भाव वोट हासिल करने के लिए धर्म-गुरुओं और धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल
लगभग सभी दल कर रहे हैं । इसमें धर्म निरपेक्षता की बात कहने वाले राजनीतिक दल भी
शामिल हैं । यदि धर्म निरपेक्षता की बात कहने वाले दलों ने मौकापरस्ती की यह
राजनीति नहीं की होती तो धर्म-सम्प्रदायाधारित राजनीति करने वालों को इतना बढ़ावा
हर्गिज़ नहीं मिलता । जब धर्म-सम्प्रदाय की रजनीति होगी तो साफ़ है कि छद्म से अधिक
खुली साम्प्रदायिकता ताकतवर बनेगी।
पूँजीवादी शोषणकारी वर्तमान व्यवस्था के पोषक और पोषित – वे सभी लोग
साम्प्रदायिकता बढ़ाने में सक्रिय साझीदार हैं , जो व्यवस्था बदलने और समता एवं
शोषणमुक्त समाज-रचना की लड़ाइयों को धार्मिक-साम्प्रदायिकता उन्माद उभाड़कर दबाना और
पीछे धकेलना चाहते हैं । हमें याद रखना चाहिए कि धर्म सम्प्रदाय की राजनीति के
अगुवा चाहे वे हिन्दू हों , मुसलमान हों , सिख हों , इसाई हों या अन्य किसी धर्म को
मानने वाले , आम तौर पर वही लोग हैं , जो वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था से अपना निहित
स्वार्थ साध रहे हैं – पूँजीपति , पुराने राजे – महाराजे , नवाबजादे , नौकरशाह और
नये- नये सत्ताधीश , सत्ता के दलाल ! और समाज का प्रबुद्ध वर्ग , जिससे यह
अपेक्षा की जाती है कि साम्प्रदायिकता जैसी समाज को तोड़ने वाली दुष्प्रवृत्तियों का
विरोध करेगा , आज की उपभोक्ता संस्कृति का शिकार होकर मूकदर्शक बना हुआ है ,अपने
दायित्वों का निर्वाह करना भूल गया है !
हम-आप भी , जो इनमें से नहीं हैं , धार्मिक-उन्माद में पड़कर यह भूल जाते हैं
कि भविष्य का निर्माण इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने से नहीं होता । अगर इतिहास में
हुए रक्तरंजित सत्ता , धर्म , जाति , नस्ल , भाषा आदि के संघर्षों का बदला लेने की
हमारी प्रवृत्ति बढ़ी , तो एक के बाद एक इतिहास की पर्तें उखड़ेंगी और सैंकड़ों नहीं
हजारों सालों के संघर्षों , जय-पराजयों का बदला लेनेवाला उन्माद उभड़ सकता है । फिर
तो , कौन सा धर्म-समूह है जो साबुत बचेगा ? क्या हिन्दू-समाज के टुकड़े-टुकड़े नहीं
होंगे ? क्या इस्लाम के मानने वाले एक पंथ के लोग दूसरे पंथ बदला नहीं लेंगे ?
दुनिया के हर धर्म में पंथभेद हैं और उनमें संघर्ष हुए हैं । तो बदला लेने की
प्रवृत्ति मानव-समाज को कहाँ ले जायेगी ? क्या इतिहास से हम सबक नहीं सीखेंगे ?
क्या क्षमा , दया , करुणा , प्यार-मुहब्बत , सहिष्णुता ,सहयोग आदि मानवीय
गुणों का वर्द्धन करने के बदले प्रतिशोध , प्रतिहिंसा , क्रूरता , नफ़रत ,
असहिष्णुता , प्रतिद्वन्द्विता को बढ़ाकर हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को संभालना और
बढ़ाना चाहते हैं ?
वक्त आ गया है कि हम भारतीय समाज में बढ़ती विघटनकारी प्रवृत्तियों को गहराई से
समझें और साम्प्रदायिकता के फैलते जहर को रोकें । क्या यह दायित्व किसी राजनितिक
दलों का नहीं है की वो उनलोगों को सही शिक्षा दे तथा उन्हें स्वार्थी और
संकीर्णतावादी धर्मगुरुवो के
चंगुल में जाने से उसे रोका जाए, यह आश्चर्च की बात है की राजनितिक दल ही
सेकुलरबाद का सबसे जयादा दिनडोरा पिटते है और साम्प्रदायिकता को कोसते मे अधिक आगे
रहते है, वे न केवल दलगत स्वार्थो की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिक तत्वों के साथ
समझोता ही करते है आपितु अल्पसंख्यक के अधिकारों की रक्षा के नाम पर उनकी ऐसी मांगो
को अपना समर्थन देने मे भी संकोच नहीं करते जो राष्ट्रयता के लिए घातक और लोकतंत्र
के लिए सवर्था प्रतिकूल होती है | यदि देश को साम्प्रदायिकता की बिभीशिका
से बचना है तो राजनितिक दलों को यह संकल्प करना होगा की वो मन, वचन तथा कर्म से
साम्प्रदायिकता को प्रश्रय नहीं देंगे.....अरबिंद झा, ये मेरे अपने विचार है