Tuesday, November 23, 2010

जनमत की ताकत


ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब सभी यह कहते थे कि भ्रष्टाचार अब भारत के सामाजिक-राजनीतिक वर्ग के लिए कोई समस्या नहीं रह गया है या अब उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और कोई कहे न कहे, लेकिन कम से कम हमारे उभरते हुए मध्यवर्ग में तो यही कहा जाता था।

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या अब इस धारणा में कोई बदलाव आया है। कोई इतना बड़ा बदलाव कि राजनीतिक दलों के आकाओं के लिए भ्रष्टाचार की अनदेखी करना मुश्किल हो जाए। उन्हें अपने नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने पर मजबूर होना पड़े। हाल ही में टीवी पर एक बहस में मैंने इसी बिंदु को रखा था।

मैं यह देखना चाहता था और इस बात का विश्लेषण करना चाहता था कि वास्तव में क्या बदलाव आया है। भ्रष्टाचार को लेकर यह रवैया क्या हमेशा से था और फर्क केवल इतना था कि राजनीतिक वर्ग केवल समय-समय पर ही उसे तवज्जो देता था और आम तौर पर उसे नजरअंदाज कर देता था।

मैं अपने पहले बिंदु को सामने रखता हूं। मैं सोचता हूं कि भ्रष्टाचार हमेशा से ही राजनेताओं की समस्या थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक रिपोर्टर की हैसियत से जब मैं हवाला केस में दिल्ली की स्थानीय अदालतों में गया था तो मुझे इस बात का अहसास हुआ कि किस तरह महज एक डायरी पूरे देश के नेतृत्व को मुश्किल में डाल सकती है।

एक डायरी बाद में भी पाई गई, लेकिन वह इतनी सशक्त नहीं थी कि उसे सबूत के तौर पर अदालत में पेश किया जा सके। इस पूरे घटनाक्रम ने आम जनमानस के साथ ही मेरी धारणाओं का भी निर्माण किया। कांग्रेस को नरसिम्हाराव के नेतृत्व में चुनावी हार का सामना करना पड़ा था।

यही बात बोफोर्स मामले में भी कही जा सकती थी, जिसकी पूरी सच्चाई सामने आना अब भी बाकी है। लेकिन इतने सालों पहले आम जनमानस में भ्रष्टाचार का बोध इतना सशक्त हुआ करता था कि वह राजीव गांधी जैसे एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री को भी सत्ता से बेदखल किया जा सकता था। जबकि कई साल गुजरने और कई सरकारें बदल जाने के बाद राजीव गांधी को इस मामले में बेकसूर करार दे दिया गया था।

इस आधार पर मुझे लगता है कि भ्रष्टाचार के आरोपों के मामले में उनकी टाइमिंग सबसे महत्वपूर्ण होती है और लोगों की प्रतिक्रियाएं भी इसी से निर्धारित होती हैं। समाज के एक बड़े तबके और खास तौर पर मध्य वर्ग, जो भारत की विकास यात्रा का सहभागी होने के लिए संघर्षरत है, को भ्रष्टाचार की खबरों से बहुत तकलीफ पहुंचती है।

जब उन्हें पता चलता है कि राजनेता दिन-ब-दिन और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं, जबकि उन्हें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी चलाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है तो वे उनके प्रति गुस्से से भर जाते हैं। इसीलिए जब किसी राजनेता का नाम भ्रष्टाचार के मामले में सामने आता है तो आम जनमानस में उसके प्रति एक छवि या एक धारणा बन जाती है।

राजनेता भी इस बात को समझते हैं। उन्हें पता है कि जब तक किसी नेता को जांच के बाद भ्रष्टाचार के आरोप से क्लीन चिट मिलती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। उसकी छवि या उसकी साख पर बट्टा लग चुका होता है।

कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने इस तरह के ‘डैमेज कंट्रोल’ के लिए ही अशोक चव्हाण और सुरेश कलमाडी से इस्तीफा लिया था, अलबत्ता दोनों ही पाक-साफ होने का दावा कर रहे थे। निश्चित ही कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों पर जनमानस का दबाव महसूस कर रही थी।

अब मैं अपने दूसरे बिंदु पर आता हूं। उभरते जनाक्रोश के दबाव के चलते जहां राजनेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, वहीं बहुतों को लगता है कि नौकरशाह इस मामले में साफ-साफ बच निकलते हैं, जबकि यह धारणा आम है कि देश को नेता नहीं नौकरशाह चलाते हैं।

नौकरशाह प्रशासन की स्थायी मशीनरी हैं, जबकि नेता तो बस समय-समय पर एक निश्चित कार्यकाल के लिए ही सत्ता का उपभोग करते हैं। फिर भ्रष्टाचार के लिए नौकरशाहों को भी समान रूप से जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाता? क्या इसलिए, क्योंकि वे सत्ता के प्रत्यक्ष केंद्र नहीं होते? यदि हम गौर से देखें तो पाएंगे कि भ्रष्टाचार से लोगों का पाला सबसे पहले बाबू तंत्र के माध्यम से ही पड़ता है।

काम कराने के लिए घूस लेने वालों की पहली पायदान पर होते हैं क्लर्क या हवलदार। इस मायने में एक आम भारतीय का वास्ता अमूमन राजनेताओं से नहीं पड़ता। टीवी पर कुछ समय पूर्व प्रसारित होने वाले ‘ऑफिस-ऑफिस’ नामक एक लोकप्रिय धारावाहिक में यही दिखाया गया था।

क्या हमने कभी नौकरशाही के विरुद्ध आमजन की धारणाओं का आकलन करने की कोशिश की है? या क्या हम केवल इसीलिए इसकी जरूरत नहीं महसूस करते, क्योंकि नौकरशाहों की नियुक्ति जनमत के आधार पर नहीं होती?

अंतिम विश्लेषण में यह कहा जा सकता है कि जनता के मूड का राजनीतिक निर्णयकर्ताओं के मन पर असर होता है। जनमत किस दिशा में झुक रहा है और आम धारणा क्या बन रही है, वे इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। वे जनता के रुझान की परवाह करते हैं।

देश के ‘मुसद्दीलाल’ (टीवी सीरियल ‘ऑफिस-ऑफिस’ का एक पात्र, जो कि आम आदमी का प्रतीक है) राजनेताओं के लिए उतने गैरजरूरी नहीं होते, जितना वे उन्हें आम तौर पर समझते हैं। 15 अगस्त पर लाल किले के प्राचीर से कितने ही प्रधानमंत्रियों ने भाषण दिए हैं और भ्रष्टाचार से लड़ने का आह्वान किया है। ये बातें कितने ही सम्मेलनों और सेमिनारों में भी दोहराई जा चुकी हैं, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

भ्रष्टाचार बदस्तूर जारी रहता है और लोग भी आखिरकार समझ जाते हैं कि बातें महज बातें हैं। लेकिन लोगों को यह बात याद रखनी चाहिए कि राजनेता उनकी धारणाओं का दबाव महसूस करते हैं। भारतवासियो, कृपया इस बात को न भूलें कि अगर आप चाहें तो तंत्र को बदल सकते हैं।

यदि आप चाहें तो सरकार बदल सकते हैं। मुख्यमंत्रियों को रुखसत कर सकते हैं। कैबिनेट मंत्रियों को बेदखल कर सकते हैं और सत्ता के ढांचे में बदलाव ला सकते हैं। यदि देश के अहम फैसले लेने वाले नेताओं के मन में जनता के नकार की ताकत के प्रति डर बना रहेगा तो वे जनमत की उपेक्षा कभी नहीं कर पाएंगे।

लेकिन यहां यह कहने की भी जरूरत है कि हमें पहले खुद को बदलना होगा। हम कितनी जल्दी अपनी छोटी से छोटी जरूरतों को पूरी करने के लिए घूस दे डालते हैं और इस तरह भ्रष्टाचार की बुनियादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं।

इसके बावजूद हमें लगता है कि सिस्टम पर सवाल खड़े करना ‘फैशनेबल’ है। हमें अपनी सरकार से जवाब पूछने का पूरा-पूरा अधिकार है, लेकिन हमें खुद को भी सवालों के घेरे में खड़े करना आना चाहिए। - लेखक टीवी एंकर एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।

1 comment:

Barun Kumar 4 U said...

mie abhigyan sir kae in baato sae sehmat hoon

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