Sunday, January 30, 2011

संघर्षो के बीच दोराहे पर देवबंद


समकालीन संसार की सबसे बड़ी नादानियों में से एक है तमाम धर्म, मत संप्रदाय के आचार्यो को काटरून किरदारों में बदल देना। और इसीलिए इमामों का चित्रण लंबी-सी दाढ़ी और विकृत आंखों के साथ किया जाता है, पंडित की जरूरत से लंबी चोटी, बड़ी तोंद और लोलुप निगाहें दिखाई जाती हैं, तो ईसाई फादर बुरी नजर को छुपाने में नाकाम बगुलाभगत की तरह का आभामंडल रखते हैं। इस बेतुकेपन के लिए नैतिक ह्रास वाले आधुनिक संसार में धर्म की अवनति जिम्मेदार है और इसका एक आंशिक कारण हर धर्म-संप्रदाय के पुरोहित वर्ग में जड़तावादी चरमपंथ की मौजूदगी है, जो परमसत्ता के नाम पर हिंसा को न्यायसंगत ठहराता है। 

आस्था- मंदिर, मस्जिद या चर्च- स्वेच्छाचारिता और तानाशाही के असंख्य रूपों से निरंतर संघर्षरत लोगों के लिए परंपरागत अभयारण्य रही है। सक्षम सरकारें, चाहे वे तानाशाह हों या लोकतांत्रिक, धर्माचार्यो की ताकत को समझ चुकी हैं और दोहरी प्रतिक्रिया का चुनाव करती हैं : वे जड़तावादी चरमपंथ को दबाती हैं और चापलूसी व रिश्वत के चतुर मेल के जरिए धर्माचार्य वर्ग को स्थापित होने में सहयोग देने की निरंतर कोशिश करती रहती हैं। इस वर्ग के लिए परीक्षा की असली घड़ी तुलनात्मक रूप से शांत दौर में नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दमन के दौरों में आती है। 

यदि हम भारतीय और खासतौर से उत्तर भारतीय मुस्लिमों के जीवन में उलेमा के असर को समझना चाहते हैं, तो हमें 19वीं सदी में उतार के युग में उनके द्वारा निभाई गई शानदार भूमिका को याद करना पड़ेगा, जब सहारा देने वाला हर स्तंभ भरभरा रहा था। इन्हें या तो पतनकाल की दीमक चाट रही थी या ये ब्रिटिश सेना की उभरती हुई ताकत से परास्त हो रहे थे। तब वह उलेमा वर्ग ही था, जिसने समुदाय को बांधे रखा। यहां तक कि इसकी जड़तावादी शाखा शाह वलीउल्लाह के मदरसे के छात्रों (या तालिबान) ने राजनीतिक शक्ति की पुनस्र्थापना के लिए जेहाद की शुरुआत भी की। यह युद्ध विफल रहा, पर जो इस युद्ध में शामिल नहीं हुए थे, उन्होंने निचले स्तर पर नेतृत्व के जरिए उस समुदाय को कहीं ज्यादा बड़ी सेवा उपलब्ध कराई, जो आर्थिक और सामाजिक दबाव में था और न सिर्फ भरण-पोषण को लेकर डरा हुआ था, बल्कि अपनी भाषा और संस्कृति के खात्मे को लेकर भी भयभीत था। ऐसे पीड़ादायक हालात के बीच से ही करीब डेढ़ सदी पहले देवबंद से दार-उल-उलूम जैसे संस्थान का जन्म हुआ। महात्मा गांधी ने इस मदरसे के न सिर्फ धार्मिक महत्व, बल्कि जनसामान्य से इसके जुड़ाव के असर को भी पहचाना था। 

देवबंद बीसवीं सदी की शुरुआत में उच्चवर्ग, नवाब और जमींदारों के प्रभुत्व वाली मुस्लिम राजनीति का विरोधी था। पश्चिम प्रभावित संवाद में देवबंद का आमतौर पर दानवीकरण ही किया गया। हां, एक गौण गतिविधि भी है, जिसने देवबंद को प्रतिगामी घोषणाओं की एक फतवा फैक्टरी में बदल दिया है। और इसके कुछ प्रभावशाली नाम हिंसा को जायज ठहराते रहे हैं। लेकिन हर महान संस्थान से कुछेक ऐसे बच्चे तो निकलते ही हैं, जो अपने बुद्धिमान बुजुर्गो का सम्मान नहीं करते। देवबंद उन मुस्लिमों के लिए बेहद शानदार स्रोत है, जिन्हें जन्म और वंश परंपरा से कोई लाभ नहीं मिला। 

मुस्लिमों के बीच यह लगाव देवबंद को शक्ति केंद्र बनाता है। और जहां पर शक्ति होगी, वहां राजनीति भी होगी। फिलहाल हम विरोधी गुटों के बीच राजनीतिक संग्राम देख रहे हैं और अधिकारप्राप्त दल देवबंद पर नियंत्रण के लिए उन्हें हवा दे रहे हैं। मोहतमिम या एक तरह से वाइस चांसलर के तौर पर मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तान्वी की नियुक्ति से जन्मी अशांति के पीछे कई कारण हैं। वस्तान्वी एक असाधारण मौलाना हैं, जिन्होंने 1979 में गुजरात-महाराष्ट्र की सीमा पर एक जनजातीय क्षेत्र में महज छह छात्रों के साथ एक झोपड़ी में मदरसा शुरू किया था और उसे देशभर में दो लाख छात्रों वाले संस्थान में बदल दिया। इसीलिए वे उत्तरप्रदेश के बाहर के पहले व्यक्ति हैं, जिन्हें यह सम्मान और जिम्मेदारी दी गई। उनकी मौजूदगी उन सुधारों के लिए भरोसा दिलाती है, जो छात्रों की गहरी इच्छा हैं। लेकिन यह उस वर्ग के लिए चिंता भी है, जिसने दिल्ली और देश के बाहर से व्यक्तिगत लाभों के लिए देवबंद को निचोड़ा है। गहरे तक पैठ चुके इन स्वार्थो को तो हर बहाने से वस्तान्वी को चुनौती देनी ही थी। और उन्होंने आत्मरतिकों की मदद से ताकत के भूखे पत्रकारों को खोज ही लिया। 

जैसा कि पहले भी हो चुका है, देवबंद दोराहे पर है। अगर यह धार्मिक कर्मकांडी समूह की मिल्कियत बन जाता है, जो अपने लालच के लिए इस महान नाम का शोषण करना चाहते हैं, तो फिर वस्तान्वी बाहर हो जाएंगे। अगर देवबंद अपने संस्थापकों के आदर्शो के प्रति ईमानदार बना रहता है, तो फिर यह शैक्षिक सुधार और खुले विचारों की ओर जाएगा, जो एक साधनहीन भारतीय मुस्लिम बच्चे को साधनसंपन्न वयस्क में बदल सकता है।

एम.जे. अकबर
लेखक द संडे गार्जियन के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं

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